लेख शब्द-टंकण
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दोनों की ही अपनी विशेषताऐं हैं, पर लेखन तो निज-उद्गार से ही संभव।
ज्ञान हेतु बाह्य-आगम जरूरी है, टीका या नकल भी पर निज शब्द-टंकण
समझ लो जिसकी नकल कर हो, उसने तो स्वयं से लिखा ही होगा किञ्चित।
कोई एक मूल लेखक रहा होगा, जिसने लिपिबद्ध किया मनोद्गारों को निज
चाहे वह भी किसी विद्वद-कथन का निज-शब्द टंकण हो, और ग्रंथ प्रस्तुत।
वैसे वार्णिक नित अंतः-आगमों के कार्यान्यन के लेखे-जोखे का प्रस्तुतकर्ता ही
वह कोई मूल सर्जक तो है न घटना-विचारों का, बृहद विश्व से निवेश सतत भी।
अब अपनी अपनी मनोदशा है सुनने-समझने से, प्रतिक्रिया कई रूपों में समक्ष
कथन भी एक अभिव्यक्ति, लेखक किंचित कलम पकड़ कर देता लिपिबद्ध।
वास्तव में लेखन भी एक कथन ही है, कई बार मनुष्य सोच-समझकर बोलता
जब वह कुछ संयत- एकाग्रचित्त हो सोचते बखानता, तो बढ़ जाती है महत्ता।
लेखक कुछ शिक्षित है, व कागज-कलम हाथ में ले जो समझ आए देता उकेर
आवश्यक न सदा उचित ही, अनेक कथन-वाक्य-लेख भ्रामक-असत्य संभव।
कई अंतःमन-दुराभाव पदों द्वारा मुखरित होते सदा, पूर्वाग्रह सर्वत्र ही छितरित
चाहे वे मौलिक अभिव्यक्ति हो या लेखन, व्यक्तित्व-छाप छोड़ते हर तत्व पर।
मूलतः हम व्यक्ति-विशेष हैं एक साचे में ढलें, अपनी ढ़ोल-ढफ़ली बजाए जाते
सोचते कि विज्ञतम हैं अन्य सुन लेंगे, अन्यदा प्रतिक्रिया ज्ञात तथापि कह देते।
वस्तुतः हम अति जटिल, गूढ़-व्यूही हैं, बस कुछ ढ़ोंग कर लेते बनने का अबूझ
यदि ताकतवर हैं तो समक्ष भी तंज भर देते, परोक्ष में तो बोलते रहते यह-वह।
लेखन भी सतत मन-प्रक्रिया की बाह्य प्रस्तुति ही है, क्या काम चलेगा नकल से
किञ्चित अन्य भी धीमानतर हों और कुछ उत्तम किया हो, तो हमें जँच सकते।
सत्य कुछ विषय हमें रुचिकर लगते अन्य त्याज्य, अन्वेषण है अपने जैसों का ही
जब पढ़ते तो हम सुग्राह्ययों में से कुछ उठाने लगते, कई बार नोट कर लेते भी।
मस्तिष्क भी एक बड़ा ग्रह-भंडार, कुछ स्मृति शेष रह जाती देखे-पढ़े-सुने में से
चाहे अधकचरा ही, यदि परिपक्व हों तो समझते भी, सामर्थ्यानुसार राय दे देते।
जग में सब अपनी भाँति के सर्जक या कहें लेखक, शब्द-लेख या न बात अन्य
लेखन मात्र कागज-लिखा ही न, अपितु मन-वाच-कर्म की है अभिव्यक्ति सर्व।
हम बहुदा एकरूप तो न हैं, विभिन्न आयामों में विरोधाभास होता स्पष्ट दर्शित
किञ्चित मनन ही मूल-प्रकृति, वचन-कर्म में अवसर अनुरूप होते परिवर्तित।
प्रश्न था जो पठन या टीका करते और अच्छा लगता, क्या हमारा निजी न वह
या जिसे सुनने में प्रशंसते व शायद हितकर लगता, हमारे मनानुरूप है यह।
या जिसे हम प्रायः मनन न कर सके, या कि तहों में संकलित रूप में न पाते
किंतु वह यदि अन्य-रचना रूप में लब्ध हो, तो उसे स्व-उद्गार ही समझ लेते।
यहाँ स्व-लिखित तो अत्युत्तम है ही, अन्य के पठन-टीका से भी क्षमता वर्धन
शुद्ध संदर्भ तो सदैव वरणीय, ज्ञानवर्धन निज-परिष्कार का अमोघ वरदान।
हम सुसंपर्कों से बहुदा सुधर सकते, निर्मल-सरल तो अन्य-कथन भी मान्य
दुनिया हमें आदर देगी यदि कर्त्तव्यमुखी, उचित अभिव्यक्ति का लें सहाय।
पवन कुमार,
२३ मई, २०२१, रविवार, समय १०:१७ बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २० मार्च २०२०, समय ८:४३ प्रातः से)
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