पढ़ना- लिखना
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पढ़ना- लिखना पृथक पर युग्म-शब्द, प्रथम से दूजे की निकलती पाँखें
पर दोनों का अनुभव विलग, पढ़ने में सुलभता, श्रम लगता लिखने में।
लेखन तो प्रायः निजी ही, कदाचित पढ़ते हुए भी लिखने का करता प्रयोग
यदि विषय-ज्ञान न
तथापि है लेखन कामना, तो संदर्भ लेना अत्यावश्यक।
अनेक अवसरों पर स्वयं अधूरा सा मिलता, विद्या-रिक्तता से पीड़ा गहन
बहुदा चाहता सर्वज्ञान अंतःस्थल होए, या उसमें पूर्णतया हो जाऊँ लुप्त।
एक विचित्र उलझन सीमित क्षण जीवन, वहीं किसी पल ज्ञान-पिपासा जगती
एक क्षुधा नित उदर कुलबुलाती, कैसे विपुल ब्रह्माण्ड-गुह्यों से आत्मसात ही।
कोई पुस्तक मिल गई तो प्राण-तत्व अन्वेषण यत्न, तथापि खोखला ही प्रतीत
लेखक निज जटिलताओं से पार चाहता, हाँ प्रयास से कुछ कुछ तरण सीख।
पुस्तकें बुद्धिजीवियों द्वारा विश्व को उपहार, लाभ उठाते या सजाना ही मात्र
कहते खोजने वालों को ख़ुदा भी प्राप्त, फिर तुम भूल-भुलैया में ही व्यस्त।
पोथियाँ राह खोलती नव-आयाम के दर्शनार्थ, विद्वानों का सुधा-रसास्वादन
अभिधानी में शब्द-कहावतें युजित, हाँ पूर्ण-उचित कितना कथन असक्षम।
एक हर्षित-चित्त स्वतः ही उदित, किस काल सुलभ होगा, किसी को न ज्ञात
निर्मलचित्त की सरल पथ चरण चेष्टा, स्वार्थ तज परम में समाने का प्रयास।
जब पढ़ते तो किंचित अंश निजी ही पाते, हम आत्म-अंतः करते होते सशक्त
ज्ञान तो सर्वत्र स्वतः छितरित, अनुभव चाहिए, शनै सब आने लगता समझ।
माना विषय कठिन भी होते, जल्द समझ न, पर निकटता से मित्रता वर्धन
दूर से भी चीजें न समझ आती, कोई गुरु चाहिए ज्ञान-पथ में हेतु अग्रेषण।
बोध-ग्रहण सतत श्रम का ही परिणाम, यदि रत कुछ विश्रुत निर्माण शक्य
सुशिक्षण-कला सबको न
आती, उत्तम-औजारों की आवश्यकता सतत।
जब लेखन में होता प्रायः नितांत एकाकी, किञ्चित भी न होता पूर्व-स्मरण
शब्द कैसे टपकते अज्ञात रहस्य, कलम निज संग चलाती भी मस्तिष्क।
प्रायः अगला शब्द या वाक्य भी न
ज्ञात, तथापि स्वतः कुछ जाता युजित
गीत-प्रगीत स्वयंभूत होते लेखन से, कुछ समय पश्चात प्रवाह में उदित।
प्रारंभ था कौन सा उचित पथ, विषय को पढ़ते हुए सार लिखते जाना
या स्वतः आशु या अचिंतित प्रयास हो, पर उसमें विशेष तथ्य न
होता।
अंतः जगत की बात कर सकते, पर उसमें बहु उदाहरण न सकते दे
तथ्य-परक लेखन की भी निज श्रेष्ठता, विचार साथ में जोड़ हो सकते।
लेखक भी वस्तुतः कुछ ज्ञान-तंतुओं का संघ, गुच्छी सदा उलझी निकट
इतने महद विश्व में निपट विमूढ़, स्व को पूर्ण से युग्म करने में असमर्थ।
पढ़ना- लिखना निज पूर्ण-परिचय हेतु वीथि में, मैं भी कुछ करता प्रश्रम
पर प्रज्ञान मिले कुछ ऐसा जीवन निखरे, पल-२
जीवन हो रहा है रिक्त।
लेखन में एकाकी नितांत नग्न, स्व-मूढ़ता पर लज्जित सा पटके हाथ-पाद
पढ़ने में कुछ पका-पकाया मिलता, हम भोगी से होते, तृप्ति-साधन मात्र।
लेखन मोमबत्ती बिन अंधेरे में चलना सा होता, पठन से सहायता निकट
कुछ दिव-किरण दर्शन हो तो भाग्य, हर चरण पर जूझना ही होता वरन।
लेखन में विषय सतत भ्रमित होता रहता, हम इधर से उधर भटकते रहते
समुद्र-मंथन सा बड़ा कर्त्तव्य जिम्मे है, अज्ञात क्या लभ्य बस रहो खटते।
बस मजदूरी सी है अज्ञात स्वामी की, प्रायः भृत्ति भी न लब्ध लाचारी सी
सत्यपथ तो अल्पों को ही प्राप्त, प्रायः प्रजा भेड़ सी अनुसरण करते ही।
मैं भी उदय चाहूँ इस यथासंभव लेखन द्वारा, इसी प्रयास से खुलेगा सुपथ
पठन से जीवन कुछ सुघड़, अर्जित ज्ञानसार किञ्चित लेखन में हो प्रस्तुत।
सतत दोनों संपर्क चाहिए, परस्पर पूरक, समर्थ अतिदूर तक ले जाने में
उद्देश्य यहाँ स्वयं-अनुसरण भी करना, आत्म-रचनार्थ सब मिथकों से परे।
कुछ जीवन-सार हर शब्द से ग्रहण, आभारी हूँ यह कलम है संगिनी-चिर
वर्तमान बेढंगे प्रस्तर-रोड़े से उत्तम रत्न बनना, आशा कि होगा फलन्वित।
पवन कुमार,
५ जुलाई, २०२१ सोमवार समय ०८ :०८ बजे प्रातः
(मेरी महेन्द्रगढ़ डायरी २८ जून, २०१९ शुक्रवार, समय ८:५० बजे प्रातः से)
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