परिच्छेद - ८ (भाग -२)
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"उसकी
विदाई पर चन्द्रापीड़ किशोरियों
द्वारा अनुसरित हुआ चला गया, जो उसके विनोद
हेतु कादम्बरी के आदेश पर
प्रतिहारी द्वारा भेजी गई थी, वीणा
व बाँसुरी, गायन-निपुण, पाँसे व चित्रकारी की
क्रीड़क, अनुभवी चित्रकार व श्लाघ्य काव्य
के गवैयी; उसे पूर्व-परिचित केयूरक द्वारा क्रीड़ा-शैल पर रत्न-जड़ित
मण्डप में ले जाया गया।
"जब
वह जा चुका, गन्धर्व-राजकन्या ने अपनी सखियों
व परिचारिकाओं को विदाई दी,
और मात्र कुछ द्वारा अनुसरित हुई प्रासाद में गई। तब वह अपनी
शय्या पर पड़ गई,
जबकि उसकी किशोरियाँ आदर-पूर्ण कुछ दूर ठहर गई, और उसको सांत्वना
देने का प्रयास किया।
कुछ समय पश्चात वह चेतना में
आई और अकेले रहते
हुए, वह लज्जा-पूरित
हो गई क्योंकि शालीनता
ने उसकी निंदा की थी : 'क्षुद्र,
तुम पर क्या प्रारम्भ
हो गया है?' आत्म-सम्मान ने उसकी वंचना
की : 'गंधर्व-राजकुमारी, यह तुम्हारे हेतु
कैसे उपयुक्त है?' सरलता ने उसका उपहास
किया : 'इसका दिवस पूर्ण होने से पूर्व ही
शैशव कहाँ चला गया ?' यौवन ने उसे चेतावनी
दी : 'हठधर्मी बाला, स्वयं में अकेले कोई लम्पट योजना न बनाओ।' मर्यादा
ने उपहास किया : 'भीरु बालिके, यह एक उच्च-कुल जन्मी कन्या का पथ नहीं
है।' शील ने उसे उलाहना
दिया : 'असावधान लड़की, इस अशोभनीय व्यवहार
को त्याग दो।' उच्च-जन्म ने चेताया : 'मूढ़ा,
प्रेम तुम्हें तुच्छता में ले गया है।'
दृढ़ता ने उसपर लज्जा-क्रंदन किया : 'तुममें कहाँ से स्वभाव-अस्थिरता
आई?' कुलीनता ने उसका तिरस्कार
किया : 'आत्म-अभिलाषिणी, मेरा अधिकार तुम द्वारा नही स्थापित किया जा रहा है।
'
"और
उसने स्वयं में विचार किया, 'मेरा यह कितना शर्मनाक
शील है, जिसमें मैं सब भय त्याग
देती हूँ और अपनी अस्थिरता
प्रदर्शित करती हूँ और मैं मूढ़ता
द्वारा अंध हूँ। अपनी धृष्टता में, मैंने कदापि नहीं सोचा वह एक परजन
(अनजान) है; अपनी निर्लज्जता में मैंने नहीं विचारा कि वह मुझे
प्रकृति में तुच्छ समझेगा; मैंने कदापि उसका चरित्र निरीक्षण नहीं किया; मैंने अपने अविचार में कदापि यह चिंतन नहीं
किया कि क्या मैं
उसके विषय की उपयुक्त हूँ;
मुझे अस्वीकृति की कोई आशंका
नहीं थी; मुझे अपने अभिभावकों का कोई भय
नहीं था, न प्रगल्भ की
चिंता। इसके अतिरिक्त अपनी रुक्षता में मैंने स्मरण नहीं किया कि महाश्वेता सन्ताप
में है; अपनी मूढ़ता में मैंने ध्यान नहीं दिया कि मेरी सखियाँ
मेरे साथ खड़ी हैं और मुझे देख
रही हैं। गम्भीर मस्तिष्क इस तरह को
औचित्य का घोर विस्मरण
चिन्हित करेंगे; महाश्वेता कितना अधिक, जो प्रेम-पथ
को जानती है; और मेरी सुहृदा
इन सब मार्गों में
निपुण है, और मेरी अनुचरिकाऐं
जो इसके सब संकेत जानती
हैं, और जिनकी बुद्धि
न्यायालय पर जीवन द्वारा
तीव्र है। एक अन्तःपुर की
सेविकाऐं ऐसे विषयों में पैनी दृष्टि रखती हैं। मेरे दुर्भाग्य ने मुझे नष्ट
कर दिया है ! यह मेरे हेतु
अब श्रेष्ठतर होगा कि एक शर्मनाक
जीवन जीने की अपेक्षा मर
जाऊँ। मेरे पिता व माता व
गंधर्व क्या कहेंगें जब वे इस
कथा को सुनेंगें? मैं
क्या कर सकती हूँ?
क्या उपाय है? कैसे मैं इस त्रुटि का
परिष्कार कर सकती हूँ?
किसे मैं अपनी अनानुशासित इन्द्रियों की इस मूढ़ता
को बता सकती हूँ? और पञ्चशर (मदन)
द्वारा वशित मैं कहाँ जाऊँगी? मैंने महाश्वेता के दुःख में
एक वचन लिया है, मैं इसे अपनी मित्रों के समक्ष घोषित
कर चुकी हूँ, और कैसे अब
यह हुआ कि विलोभन चन्द्रापीड़
यहाँ लाया गया है, मुझे नहीं ज्ञात, मैं वह मन्द-भागी
हूँ; चाहे यह निर्दयी दैव
द्वारा अथवा गर्वित आसक्ति द्वारा, अथवा मेरे पूर्व-कृत्यों का अपरिहार्य दण्ड,
या अभिशप्त मृत्यु, या कुछ अन्य
वस्तु। परन्तु कुछ अनदेखी, अज्ञात, अनसुनी, अविचारित व अकल्पित पूर्व,
मुझे छलने हेतु आ गई है।
उसकी मात्र दृष्टि से मैं बन्धन-पाशित हूँ; मैं पिंजर-बद्ध हूँ और अपनी इन्द्रियों
द्वारा हस्तांतरित कर दी गई
हूँ; मैं अनुराग द्वारा प्रेषित हूँ; मैं अपनी भावनाओं द्वारा एक मूल्य पर
बेच दी गई हूँ;
मैं अपने हृदय द्वारा एक पारिवारिक चल-सम्पत्ति सम बन गई
हूँ। मैं इस एक अनुपयुक्त
संग कुछ भी न करुँगी।'
अतएव एक क्षण हेतु
उसने वचन लिया। परंतु इस व्रत लेने
पर, वह अपने हृदय-कम्पन द्वारा विव्हलित चन्द्रापीड़ की आकृति द्वारा
उपहास की जा रही
थी, 'यदि तुम, अपने मिथ्या-व्रत में मेरे संग मिलन न करोगी, मैं
चला जाऊँगा।' वह अपने जीवन
द्वारा प्रश्न की जा रही
थी, जो चन्द्रापीड़ को
त्यागने हेतु अपने निश्चय के क्षण पर
प्रारम्भ करने से पूर्व एक
विदा-आलिंगन में उससे चिपका था; वह एक अश्रु
द्वारा सम्बोधित थी जो उस
क्षण उदित हुआ था, उसे एक बार और
स्पष्टतर नयनों से देख लिया
जाए कि क्या वह
बहिष्करण के उपयुक्त है
या नहीं'; उसकी कामदेव द्वारा भर्त्सना की गई, कहते
हुए, 'मैं तुम्हारे जीवन के साथ तुम्हारा
अभिमान भी ले जाऊँगा';
और उसका उर पुनः चन्द्रापीड़
की ओर आमुख हुआ।
पराजिता, जब मदन-आगमन
द्वारा उसका चिंतन-बल समाप्त हो
गया, इसके अधिकार में वह उठी, और
क्रीड़ा-शैल पर गवाक्ष के
माध्यम से देखती हुई
खड़ी हो गई। और
वहाँ, जैसे कि हर्षपूर्ण अश्रुओं
के आवरण द्वारा किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हुई, उसने स्मरण संग देखा, अपनी चक्षुओं से नहीं, जैसे
कि अपने चित्र को एक ऊष्म
कर द्वारा दूषित होने से डर रही
हो, जो उसने अपनी
कल्पना-शक्ति से रंजित किया
हो, न कि अपनी
वर्तिका (कूची) से; एक रोमहर्ष के
व्यवधान की आशंका में,
उसने अपने उर सहित एक
आलिंगन अर्पित किया न कि अपने
वक्ष द्वारा; आगमन में उसके विलम्ब को सहने में
अक्षम, अपनी अनुचरिकाओं को नहीं, उसने
अपने मस्तिष्क में उससे मिलने का निश्चय किया।
"इसी
मध्य, चन्द्रापीड़ ने इच्छा से
रत्न-जड़ित निकेतन में प्रवेश किया, जैसे कि यह कादम्बरी
का द्वितीय हृदय ही हो। इसके
प्रत्येक सिरे पर उपधान (तकिया)
सहित, शैल पर एक आस्तरण
(कम्बल) बिछा था, और उसपर वह
केयूरक के अंक में
अपने चरण सहित लेट गया, जबकि किशोरी दासियाँ उसके गिर्द अपने निश्चित स्थानों पर बैठ गई।
हलचल (कष्ट) में एक उर सहित
उसने स्वयं को चिंतन में
लिया : 'क्या राजकुमारी कादम्बरी की ये शोभा,
जो सभी पुरुष-हृदयों को चुराती हैं,
उसके स्वभाव में हैं; अथवा कामदेव ने, मेरी किसी बिना सेवा द्वारा विजित करुणा से, उसकी मेरे हेतु नियुक्त की है? क्योंकि
उसने मुझे प्रेम से वक्र-दृष्टि
प्रदान की है, आधी
झुकी जैसे कि यह कामदेव
के कुसुम-शरों के रज से
आवरित हो जैसे वे
उसके उर पर पड़ते
हों। उसने शालीनता से कौशेय सम
शुभ्र एक उज्ज्वल स्मित
संग स्वयं को गुह्य (छुपा)
कर लिया था। उसने मेरी प्रतिच्छाया को ग्रहण करने
हेतु अपने कपोल का मुकुर प्रस्तुत
किया था, जैसे कि मेरी दृष्टि
से अपना मुख फेर लिया हो। उसने अपने नख से एक
हृदय की कामना-पूर्ति
के प्रथम चिन्ह को आसन पर
चित्रित किया था जो मुझे
मूर्च्छा दे रही थी।
मुझे ताम्बूल अर्पण करने के श्रांत से
आर्द्र, उसका कर अपने कम्पन
में उसके ऊष्म आनन को वात देता
प्रतीत होता था, जैसे कि यह एक
तमाल शाख हो जो उसने
ली हो, क्योंकि त्रुटि से इसको एक
गुलाबी उत्पल समझते हुए मधु-मक्षिकाओं का एक झुण्ड
उसके गिर्द मँडरा रहा था। वह चिंतन करता
गया 'किंचित नश्वरों में इतनी सामान्य अभिलाषा हेतु अल्प-तत्परता अब मुझे वृथा
कामनाओं के सम्बाध द्वारा
छल रही है; और यौवन-प्रदीप्ति,
न्याय से शून्य, अथवा
स्वयं मदन, मेरे मस्तिष्क को चकरा रहा
है, मोतिया-बिन्द द्वारा जैसे यद्यपि पीड़ित, कैसे युवा-अक्षियाँ, एक क्षुद्र बिंदु
को भी आवर्धन कर
देती है, और प्रेम का
एक सूक्ष्म चिन्ह जैसे जल द्वारा सम
तारुण्य-उत्कण्ठा द्वारा दूर तक विस्तृत है।
एक कवि की कल्पना सम
एक उत्सुक उर उमंग-समाकुल
(जमघट) द्वारा किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हुआ जाता है जिसको यह
स्वयं बुलाता है, और प्रत्येक वस्तु
से समरूपता आकर्षित करता है; चतुर काम के कर में
तारुण्य-भावनाऐं एक वर्तिका भाँति
और कुछ भी चित्रित करने
से बचती हैं; और अपने अकस्मात
लब्ध सौंदर्य-गर्व में प्रत्येक दिशा में मुड़ती है। अभिलाषा एक स्वप्न में
समतल दिखाती है जो मैंने
छोड़ दिया है। एक सिद्धनर (ऐन्द्रजालिक)
की छड़ी सम, आशा हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है जो कदापि
नहीं हो सकता। तब
क्यों, उसने पुनः विचारा, 'क्या मुझे अपना मस्तिष्क वृथा में श्रांत करना चाहिए?' यदि दीप्त-नयनों वाली यह बाला मेरी
ओर आकर्षित है, अप्रार्थित ही कामदेव जो
इतना कृपालु है, इसे शीघ्र ही मेरे लिए
सरल बना देगा। वह इस शंका
का निर्णायक होगा। दीर्घ पश्चात् इस निश्चय पर
पहुँचकर वह उठा, और
फिर बैठ गया, और प्रसन्नता से
युवतियों की उत्तम-वार्ता
और भव्य-आनंदों में सम्मिलित हो गया - पाँसे,
गायन, वीणा, मृदंग, मिश्रित स्वर के सह-वादन,
और मधुर-काव्य का गुनगुनाना। एक
अल्प काल विश्राम पश्चात् वह उपवन को
निहारने हेतु बाहर गया, और क्रीड़ा-शैल
के शिखर पर चढ़ गया।
"कादम्बरी
ने उसे देखा, और विचारा कि
महाश्वेता की वापसी-दर्शन
हेतु गवाक्ष खोल देना चाहिए, कहते हुए, 'उसने अति-विलम्ब कर दिया', और,
मदन द्वारा उत्तुंग एक हृदय द्वारा
प्रासाद की छत पर
चढ़ गई। वहाँ वह कुछ परिचारिकाओं
संग ठहरी, सुवर्ण-दण्डक छत्र द्वारा उष्मा से रक्षित, पूर्ण-चन्द्र सम शुक्ल, और
फेन सम निर्मल चार
याकों के पुच्छल-चँवरों
द्वारा वात की जा रही
थी। वह चन्द्रापीड़ से
मिलन हेतु एक उपयुक्त अलंकरण
का अभ्यास करती प्रतीतित थी, कुसुम-सुवास हेतु उत्सुक, जो उसको अंधकार
में भी दिवस द्वारा
आवरित कर रही थी।
अब वह चँवर के
सिरे पर झुकी, अब
छत्र के दण्डक पर;
अब उसने तमालिका के स्कंध पर
अपने हस्त रख लिए; और
अब उसने अपनी बालाओं के मध्य स्वयं
को छुपा लिया, तिरछी नयनों से देखते हुए;
अब उसने अपने को गोल घुमा
लिया; अब उसने प्रतिहारी
के दण्डक के सिरे पर
अपना गण्ड (कपोल) रख दिया; अब
एक निश्चल कर से उसने
ताम्बूल अपने नूतन ओष्ठों पर रख दिया,
अब वह हँसती हुए
उसके द्वारा उत्पल-वार से छितरी अपनी
सेविकाओं के अन्वेषण में
कुछ पग दौड़ी। और
युवराज को देखने में,
और उस द्वारा उसे
देखने में, वह नहीं जानती
थी कि कितना समय
बीत गया है। अंत में एक प्रतिहारी ने
महाश्वेता के आगमन की
सूचना दी, वह नीचे गई,
और अन्यथा अनिच्छुक, तथापि महाश्वेता को हर्षित करने
हेतु उसने स्नान किया और दिवस के
नित्य-कृत्य सम्पादित किए।
"परन्तु
चन्द्रापीड़ नीचे आया, और कादम्बरी की
अनुचारिकाओं से विदा लेकर,
अभिषेक (स्नान)-संस्कारों को पूर्ण किया,
और क्रीड़ा-शैल पर अपने भोजन
समेत, पर्वत में सब जगह सम्मानित
देवता की आराधना की।
वहाँ वह एक हरिताश्म
आसन पर निष्ठ हुआ
जो क्रीड़ा-शैल सम्मुख को आदेशित करता
था, मनभावन, हरित जैसे कि एक शुक,
वनचरों (मृगों) के चबाने से
गिरी फेन से शुभ्र (ओसित),
बलराम के हल के
भय में निश्चल खड़ी यमुना के जलों सम
चमकते, कामिनी-चरणों से लाक्ष-रस
संग चमकते रक्तिम, एक पुष्प-रज
से धूसरित, एक निकुञ्ज (वाटिका)
में छिपा, मयूरों का एक सह-संगीत निकेतन। उसने यकायक एक शुभ्र-ज्योत्स्ना
धारा द्वारा, एक मृणाल-पर्ण
माला द्वारा सम-प्रकाश का
पान किए, एक आकाश-गंगा
द्वारा प्लुत वसुंधरा सम, एक चन्दन-द्रव
प्रवाह द्वारा जल-सिक्त सम,
और शुक्ल चूने द्वारा वर्णित नभ सम, महिमा-समृद्ध दिवस को ग्रहण होते
देखा।
"उसने
विचारा, 'क्या हमारा भर्ता है, शशि-पादपों का नृप, अकस्मात
उदित, अथवा एक निर्झर द्वारा
पतित अपनी शुभ्र-धाराओं संग सहस्र धारा-स्नान स्थापित है, या यह आकाश-गंगा है जो वसुंधरा
को अपनी शुभ्र-उछाली बौछारों से श्वेत कर
रही है, क्या वह पृथ्वी पर
उत्सुकता में आई है ?
"तब,
ज्योति-दिशा में अपने चक्षु मोड़ते हुए, और उसने अपनी
मदालेखा व तारालिका संग
एक स्थाली में श्वेत कौशेय से ढ़के हुए
एक मुक्ता-कण्ठहार धारण किए कादम्बरी को निहारा। उसके
पश्चात् चंद्रापीड़ ने निर्णय किया
कि यह कण्ठहार ही
था जिसने शशि-चन्द्रिका ग्रहण किया है, और यद्यपि वह
अभी दूर ही थी, उठते
हुए उसने सभी अभ्यस्त विनम्रताओं द्वारा मदालेखा के आगमन का
अभिनन्दन किया। एक क्षण हेतु
उसने उस हरिताश्म-आसन
पर विश्राम किया और तब, उठते
हुए, उसको चन्दन-परिमल से अभिषेक कराया,
उसको दो शुक्ल-अंशुक
पहनाए, (३८५) मालती-कुसुमों का मुकुट पहनाया
और तब यह कहते
हुए, 'मेरे कुमार, इस तुम्हारी उत्तमता,
शून्य-गर्विता को प्रत्येक हृदय
विजित करना ही चाहिए', उसे
कंठहार पहनाया। तुम्हारी करुणा यहाँ तक कि मेरे
सम को भी एक
निमन्त्रण देती है, अपने रूप द्वारा तुम सभी के प्राण-स्वामी
हो; अपनी उस दर्शित तनुता
द्वारा उनपर भी जिनका तुम
पर कोई अधिकार नहीं है, तुम सब पर एक
स्नेह-बन्धन फेंकते हो; तुम्हारे आचरण की नैसर्गिक मधुरता
प्रत्येक पुरुष को तुम्हारा मित्र
बना देती है; तुम्हारे ये गुण, इतनी
उत्तमता संग व्यक्त सभी को विश्वास देते
हैं। तुम्हारे रूप को दोष लेना
चाहिए, क्योंकि यह प्रथम दृष्टतया
ही विश्वसनीयता प्रेरित करता है, अन्यथा तुम जैसे एक गौरवमयी को
सम्बोधित शब्द बिना मिलन के प्रतीत होंगे।
क्योंकि तुमसे संवाद एक तिरस्कार होगा;
हमारा मात्र आदर ही उत्साह का
अधिकार हम पर प्रदर्शित
करेगा; हमारी परवशता तुच्छता द्योतित करेगी, हमारा स्नेह आत्म-वंचना, हमारी वाणी तुमपर दुस्साहस, हमारी सेवा अशिष्टता, हमारा पारितोषिक एक अनादर। और
भी अधिक, तुमने हमारा उर विजित कर
लिया है; हमारे पास तुम्हें देने लिए क्या बचा है? तुम हमारे जीवन-भर्ता हो; हम तुम्हें क्या
अर्पण कर सकते हैं?
तुमने अपनी उपस्थिति का महद अनुग्रह
पुर्वेव प्रदान किया है; हम क्या प्रतिलाभ
बना सकते हैं? अपनी दृष्टि से तुमने हमारा
जीवन प्राप्त-योग्य बना दिया है; हम तुम्हारे आगमन
को कैसे पारितोषिक करें? अतएव कादम्बरी ने इस बहाने
से अपनी महिमा की अपेक्षा अपना
स्नेह प्रदर्शित किया। यद्यपि उसने एक तुम जैसे
के प्रति दासता स्वीकार कर ली है,
वह कोई अनुपयुक्त कृत्य नहीं करेगी; यद्यपि उसने स्वयं को तुम्हें दे
दिया है, वह वंचित नहीं
होगी; यदि वह अपना जीवन
देती है तो वह
पश्चाताप नहीं करेगी। एक उत्तम हृदय-सदाशयता सदा करुणा पर नमित होती
है, और इच्छा से
स्नेह निरस्त नहीं करती, और दाताओं की
अपेक्षा याचक अल्प-लज्जित होते हैं। परन्तु यह सत्य है
कि कादम्बरी जानती है कि उसने
इस विषय में तुमको अप्रसन्न किया है। अब शेष नामक
यह कंठभूषण, क्योंकि सुधा-मंथन समय सब-उदित में
मात्र शेष रत्न था, उस कारण से
सागरपति द्वारा महद मूल्यवान था, और अपनी गृह-वापसी पर उसके द्वारा
वरुण को दिया गया।
अपर (वरुण) द्वारा यह गन्धर्व नृप
को दिया गया, और उसके द्वारा
कादम्बरी को। और उसने तुम्हारे
रूप को इस आभूषण
के अनुरूप विचार कर, जो इस पृथ्वी
पर नहीं है, न ही गगन
में, इंदु-निकेतन है, इसे तुम्हारे हेतु प्रेषित किया है। और यद्यपि तुम
जैसे पुरुष, जो सिवाय उत्तम
आत्मा के कोई आभूषण
नहीं पहनते हैं, मध्यम पुरुषों द्वारा सम्मानित रत्न धारण कष्टप्रद पाते हैं, तथापि तुम्हारे हेतु अतएव करना कादम्बरी का स्नेह-कारण
है। क्या विष्णु ने अपने वक्ष
पर कौस्तुभ रत्न धारण द्वारा अपना सम्मान नहीं दिखाया है, क्योंकि यह लक्ष्मी संग
उत्थित होता था; और तथापि वह
तुमसे महत्तर नहीं था; न ही मूल्य
में कौस्तुभ रत्न न्यूनतम भी शेष को
तुलना देता है; न ही वस्तुतः
अल्पतम स्तर में भी कादम्बरी के
रूप का लक्ष्मी का
आगमन अनुसरण करता है। और सत्य में,
यदि उसका प्रेम तुम द्वारा मर्दित किया जाता है, वह महाश्वेता को
एक सहस्र दोषारोपण संग दुःखित करेगी, और स्वयं को
वध कर लेगी। महाश्वेता
ने अतः तारालिका को तुम्हारे पास
इस कण्ठ-भूषण सहित भेजा है, और मुझे यह
कथनार्थ आदेश दिया है : 'कृपया कादम्बरी के प्रेम की
प्रथम स्नेह-उमंग तुम्हारे द्वारा दमित न की जाय,
मनन में भी नहीं, ओ
उत्तम युवराज।" अतएव कथन के पश्चात् उसने
कण्ठ-रत्न को उसके वक्ष
पर निर्धारित कर दिया जो
सुवर्ण-पर्वत के तीर पर
एक नक्षत्र-मण्डल सम स्थित था।
विस्मय-पूरित, चन्द्रापीड़ ने उत्तर दिया
: 'मदालेखा, इसका क्या तात्पर्य है ? तुम चतुर हो, और जानती हो
कि अपने परितोषिकों हेतु स्वीकृति कैसे विजित की जाए। मुझे
एक उत्तर का कोई अवसर
दिए बिना छोड़कर, तुमने वाक्पटु-निपुणता दिखाई है। नहीं, मूढ़ कन्या, हम तुम्हारे सम्मान
में क्या हैं, अथवा स्वीकृत करें या अस्वीकार, सत्य
ही यह वार्ता तुच्छ
है। विनम्रता में इतनी संपन्न कामिनियों से करुणा प्राप्त
करके, मुझे किसी अन्य विषय में व्यवस्थित होना चाहिए, चाहे मेरे हेतु रमणीय हो अथवा अरमणीय।
परंतु सत्यमेव ऐसा कोई पुरुष जिसको विनम्रतम वनिता कादंबरी के गुण अशिष्टता
से दास नहीं बनाते। ऐसा कहकर, कादंबरी के विषय में
कुछ वार्तालाप करके, उसने मदालेखा को विदा किया,
और जब वह दूर
जा चुकी, चित्ररथ-दुहिता ने अपनी परिचारिकाओं
को हटा दिया, दंड-छत्र और चँवर के
राज्य-चिन्ह त्याग दिए, और मात्र तमालिका
सहित क्रीड़ाशैल पर गए चन्द्रापीड़
को निहारने हेतु पुनः अपने हर्म्य की छत पर
चढ़ गई, मुक्ताओं, कौशेय अंशुक व चन्दन से
कांतिमान, जैसे कि उदय-पर्वत
पर इंदु जाता है। वहाँ, प्रत्येक लावण्य से पूरित दृष्टि
द्वारा, उसने उसका उर चुरा लिया।
और जब इतना अंधकार
हो गया कि देखा न
जा सके, वह छत से
नीचे उतर आई, और चन्द्रापीड़ शैल-तीर से।
"तब
सर्व-नयनों का प्रसन्न-कर्ता
सुधा-उद्गम (चंद्र), अपनी एकत्रित हुई किरणों संग उदित हुआ; वह निशा-मृणालों
द्वारा उपासित प्रतीत होता था, दिशा-शांत करने हेतु जिनके मुख क्रोध से जैसे कृष्ण
थे, और दिवस-उत्पल
वर्जन हेतु जैसे कि यह उनको
जगाने के भय से
हो; अपने चिन्ह छिपाने हेतु अपने हृदय पर रात्रि परिधान
उसने उदय-ज्योत्सना में लाक्ष धारण कर रखा था
जो रोहिणी के चरणों द्वारा
निराकार (त्यागने) से उसपर चिपक
गया था; अपने मालिन्य नील-पटल में एक प्रेयसी भाँति
वह गगन का अनुसरण करता
था; और अपने महान
मित्रभाव कारण सर्वत्र अपना लालित्य विस्तीर्ण करता था।
"और
जब काम के श्रेष्ठ नियम
का छत्र, उत्पल-स्वामी, गजदंत कर्ण-वन्तस जो रात्रि को
विभूषित करता है; चंद्रमा उदित हो चुका था,
और विश्व श्वेतिमा में परिवर्तित हो चुका, जैसे
रजत (चाँदी) का परिधान पहन
लिया हो, चन्द्रापीड़ एक शीतल इंदु-दीप्त, मुक्त (मोती) जैसी शुभ्र शिला पर लेट गया,
जो कादंबरी की परिचारिकाओं ने
चिन्हित की थी। इसे
नूतन चंदन द्वारा प्रलाक्षित किया गया था, और पावन सिंधुवार
कुसुमों से पुष्पित किया
गया था। इसे हर्म्य के उत्पल-सर
के तीर पर रखा गया
था, जो पूर्ण चंद्रिका
होने से निशा-उत्पलों
से निर्मित प्रतीत होता था, ऊर्मियों द्वारा धोई इष्टकों (ईंट) संग श्वेत सोपानों (सीढ़ियों) संग, जैसे कि लहरों द्वारा
समीर वात करने को प्रतिध्वनित होता
था; वहाँ हंस-युग्ल शयन करते थे, और चक्रवाक-युग्ल
विरह-क्रंदन करते थे। और युवराज ने
अभी कुछ विश्राम ही किया था,
केयूरक ने वहाँ आगमन
किया और उसे बताया
कि राजकुमारी कादंबरी वहाँ उसके दर्शनार्थ आई है। तब
चन्द्रापीड़ शीघ्रता से उठा, और
निकट आती कादंबरी को निहारा। उसकी
कुछ सखियाँ उसके संग थी; उसने सब राजन्य चिन्ह
हटा लिए थे; वह जैसे कि
एक नूतन-आत्म थी, एक मात्र कंठहार
जो उसने पहन रखा था; शुद्धतम चंदन-रस से उसकी
तनु वपु श्वेत थी; एक कर्ण-बाली
लटकती थी; उसने बालचंद्र सम तनु एक
उत्पल-पर्ण कर्ण में धारण कर रखा था;
शशि-चंद्रिका सम स्पष्ट कल्पतरु-परिधानों में वह लिपटी हुई
थी; और उस अह्न
के अनुकूल परिधान में वह चन्द्रोदय की
देवी ही प्रकट होती
थी, जैसे कि मदालेखा द्वारा
अर्पित कर पर ही
विश्राम करती थी। निकट आकर्षित हो, उसने कामदेव द्वारा प्रेरित एक शोभा दिखाई,
और भूमि पर अपना आसन
ग्रहण किया, निम्न-कुल की एक कन्या
सम जहाँ अनुचर बैठने के अभ्यस्त होते
हैं; और यद्यपि मदालेखा
द्वारा शिला-आसन पर ही बारंबार
अनुरोध किए जाने के बाद भी
चंद्रापीड़ ने मदालेखा के
निकट भूमि पर ही अपना
आसन ले लिया; और
जब कामिनियाँ बैठ गई, उसने उवाच करने का एक प्रयास
किया, कहते हुए : 'राजकन्ये, जो एक तुम्हारा
अनुचर है, और जिसको एक
दृष्टि मात्र ही प्रसन्न करती
है, तुम्हारे संग वार्तालाप के अनुग्रह की
आवश्यकता नहीं है, इस अति-शोभा
से बहुत नीचे। क्योंकि जैसे कि मैं गहन
चिंतन करता हूँ, मैं स्वयं को इस अनुग्रह
के उपयुक्त किंचित भी अनुरूप नहीं
देखता हूँ। तुम्हारी यह विनीतता अपने
गर्व को एक ओर
रखने में उच्चतम व मधुरतम है,
इस दया में जो तुम्हारे इस
नव-अनुचर पर दिखाई गई
है। संयोग से तुम मुझे
एक अशिष्ट सोचती हो जिसे पारितोषिकों
से विजित किया जा सकता है।
सत्यमेव अनुचर धन्य है जिसके ऊपर
तुम्हारा आधिपत्य है। तुम्हारे द्वारा प्रदत्त आदेशों के विचारित उपयुक्त
भृत्यों पर कितना महान
सम्मान है। परंतु वपु किसी पुरुष की सेवा पर
एक दान है, और जीवन तृण
सम तुच्छ है, अतएव तुम्हारे ऐसे आगमन के उपहार संग
अपने अभिवादन में मैं लज्जित हूँ। यहाँ मैं हूँ, यहाँ मेरी वपु, मेरा जीवन, मेरी बुद्धियाँ। क्या तुम, उनमें से किसी को
स्वीकार करके, आदर हेतु उत्थित करोगी।'
"उसकी
इस वाणी पर मदालेखा ने
मुस्कुराते हुए उत्तर दिया : 'युवराज पर्याप्त हो चुका ! मेरी
सखी कादंबरी तुम्हारे अत्यधिक संस्कार से पीड़ित है।
तुम ऐसा क्यों बोलते हो? वह तुम्हारे वचनों
को बिना किसी अतिरिक्त वार्ता के स्वीकार करती
है। और क्यों इन
अत्यधिक चटुल (चाटुकार) संभाषणों से वह द्वंद्व
में लाई जा रही है?'
और तब, एक अल्प-काल
प्रतीक्षा करके, वह पुनः आरंभ
हो गई : 'महाराज तारापीड़ कैसे हैं, कैसे महाराज्ञी विलासवती है, कैसे उत्तम शुकनास हैं? उज्जैयिनी किसकी भाँति है ,और यह कितनी
दूरस्थ है? भारत-भूमि क्या है? और क्या नश्वर-विश्व रमणीय है? अतएव उसने उससे प्रश्न किया। इस सदृश वार्ता
में कुल समय बिताकर कादंबरी उठी, और केयूरक, जो
चंद्रापीड़ के निकट ही
बैठा था, और अपनी परिचारिकाओं
को आदेश देकर, वह अपने शयन-कक्ष में चली गई। वहाँ उसने शुक्ल-कौशेय एक आस्तर से
बिछी एक शय्या को
सुशोभित किया। किंतु जब
उसके चरण केयूरक द्वारा सहलाऐ जा रहे थे,
चंद्रापीड़ ने अपनी शिला
पर रात्रि मनन में एक क्षण व्यतीत
की। विनम्रता, रमणीयता और कादंबरी के
चरित्र की गह्वरता (गहराई),
महाश्वेता की अकारण करुणा,
मदालेखा का विनय, अनुचरों
की गरिमा, गंधर्व-लोक की महद शोभा,
और किंपुरुष-भूमि का आकर्षण।
"तब
कादंबरी की दृष्टि द्वारा
जागृत रहने से क्लांत नक्षत्रपति
शशि अधोगत हुआ, जैसे अपने ताड़ व तमाल, ताली,
वट व कंडाल की
अविरल लहरों से उठती समीर
से शीतल तीर पर वन में
शयन करना चाहता हो। जैसे अपने प्रेमी की आगमन-अनुपस्थिति
हेतु शोक करती एक नारी की
ज्वरित आहों से, इंदु-ज्योत्सना मलिन हो गई। चंद्र-मृणाल पर रात्रि व्यतीत
करने पर लक्ष्मी, दिवाकर-उत्पलों पर लेट जाती
है, जैसे कि चंद्रापीड़ की
दृष्टि से उसमें प्रेम
उदित हो गया हो।
रात्रि-समाप्ति पर जब प्रासाद-दीप पीत हो गए, जैसे
कि कामना में दुर्बल होते जा रहे हों
जब वे बालाओं के
कर्णों में उत्पल-प्रहारों को स्मरण कराते
थी, लता-पुष्पों संग सुवासित भोर-समीर प्रतिध्वनित (गूँजती) थी; अपने शरों को अनवरत निपात
करने से क्लांत कामदेव
की आहों संग विनोदी उषा-काल उदित होने से, सितारे ग्रहण-ग्रस्त हो गए थे,
और अपना निकेतन ले लिया था,
जैसे कि भय में,
मन्दर-पर्वत के घन लता-मंडपों में। तब सूर्य अपने
रक्तिम-वृत्त संग उदित हो गया जैसे
कि चक्रवाक-हृदयों में आवास करने से एक शेष-ज्योति हो, चंद्रापीड़ ने शैल से
उठकर, अपना अरविंद-मुख प्रालक्षन किया, अपनी प्रभात-वन्दना कही, अपना ताम्बूल लिया, और तब केयूरक
को यह देखने को
कहा कि क्या कादंबरी
जागृत है अथवा नहीं,
और वह कहाँ थी;
और जब अपर द्वारा
अपनी वापसी पर उसे बताया
गया कि वह मंदर
हर्म्य के नीचे आंगन
के लता-कुंज में महाश्वेता के संग है,
वह गंधर्वनृप-दुहिता के दर्शनार्थ प्रारंभ
हुआ। वहाँ उसने अपनी भ्रूओं पर श्वेत-भस्म
का तिलक लगाए और शीघ्रता से
गतिमान करते जैसे कि वह अपनी
स्मरणी (माला) घुमाती थी, प्रत्यक्ष-आराधना की देवी महाश्वेता
को देखा; परिभ्रम (घुमक्कड़) तपस्विनियों द्वारा घिरी शिव-अनुचरों का व्रत धारण
किए, धातु-वर्णों से पीत रंग
के परिधान में लाल-वस्त्र पहनने को बद्ध, पके
नारिकेलों के गुलाबी क्षौम
अंशुक पहने, अथवा स्थूल शुक्ल-वस्त्र में लिपटी; शुभ्र-अंशुकों के पंखे लिए;
दण्ड, उलझी जटाऐं, मृग-चर्म व क्षौम वस्त्रों
संग; पुरुष-तापसियों के चिन्हों संग;
शिव, दुर्गा, कार्तिकेय, विश्रवास, कृष्ण, अवलोकितेश्वर, अर्हत, विरंच (ब्रहमा) की पावन-स्तुतियों
को गाती हुई। महाश्वेता स्वयं रनिवास की अग्रणी महाराज
की बंधु-स्त्रियों को नमस्कार, विनीत
वचन, उनसे मिलने हेतु उत्थित और उनके हेतु
बेंत का आसन रखने
द्वारा सम्मान दिखा रही थी। "उसने महाभारत-प्रवचन पर अपना ध्यान
देती कादंबरी को भी देखा,
जो सभी शुभ-लक्षणों से श्रेष्ठ थी,
नारद की मधुर-वाणी
वाली पुत्री द्वारा, भ्रमर-गुंजन सम मृदु बाँसुरियों
के एक संगीत साथ,
जो उसके पीछे बैठे एक किन्नर-युग्म
द्वारा बजाई गई। वह अपने समक्ष
स्थापित एक मुकुर में
अपने ओष्ट देख रही थी, पीत जैसे माक्षिकज (मधु-मोम), यद्यपि उसमें यह ताम्बूल द्वारा
कृष्ण था। एक निश्चित वृत्त
में अम्बुताल हेतु अपनी चाह में इंदु सम भ्रमण करते
एक पालतू हंस द्वारा विदाई लेते प्रदक्षिणा द्वारा, अपने शिरीष कर्ण-वंतसों हेतु उठे चौड़े नयनों संग वह सम्मानित की
जा रही थी। यहाँ युवराज ने प्रवेश किया,
और उसको प्रणाम करके, मंच पर रखे एक
आसन पर नीचे बैठ
गया। एक अल्प-विराम
उपरांत उसने एक मधु-मुस्कान
सहित महाश्वेता के आनन को
देखा जो उसके कपोलों
में गड्डे निर्माण करता था, और उसने यकायक
उसकी इच्छा को जानकर कादम्बरी
को कहा : 'प्रिय सखी, इंदु द्वारा मूंगे सम तुम्हारे गुणों
द्वारा चंद्रापीड़ मृदु हुआ है, और स्वयं हेतु
नहीं कह सकता। वह
विदा लेना चाहता है, क्योंकि सेना (दल) जो उसने पीछे
छोड़ी है, व्यग्रता (कष्ट) में है, अज्ञात कि क्या हुआ
है। इसके अतिरिक्त परस्पर भले ही पृथक हो,
तुम्हारा यह स्नेह, दिवस-उत्पल से प्रभाकर सम
है, अथवा इन्दु और निशा-अरविंदों
जैसा, प्रलय-दिवस तक चलेगा। अतः
उसे जाने दो।
"प्रिय
महाश्वेता', कादम्बरी ने उत्तर दिया,
'मैं और मेरा परिचारक-वर्ग अपनी आत्मा सम पूर्णतया युवराज
से सम्बन्ध रखते हैं। क्यों तब, यह अतिश्योक्ति है
?' अतएव कहकर, और गंधर्व-राजकुमारों
को बुलाकर, उसने उन्हें युवराज को उसके स्थान
तक मार्ग-रक्षण का आदेश दिया,
और वह, उठते हुए प्रथम महाश्वेता के समक्ष झुका,
और फिर कादम्बरी के, और उसके द्वारा
स्नेह से मृदुल हुई
नयनों व उर द्वारा
अभिवादन किया गया; और वचनों के
संग, 'देवी, मैं क्या कहूँ ? क्योंकि पुरुष शब्द-आधिक्य पर अविश्वास करते
हैं। कृपया मेरा स्मरण तुम्हारे परिचारक-गणों की वार्ता में
किया जाय', वह रनिवास से
बाहर निकल गया; और कादम्बरी को
छोड़कर, चन्द्रापीड़ के गुणों हेतु
सम्मान से खिंची हुई
सभी युवतियों ने उसके पथ
का अपनी प्रजा भाँति ही बाह्य-द्वार
तक अनुसरण किया।
"उनकी
वापसी पर, वह केयूरक द्वारा
लाए गए अश्व पर
आरोह हुआ, और गन्धर्व-पार्थिवों
द्वारा मार्ग-दर्शित होता, हेमकुण्ट को विदा हेतु
उद्यत हुआ। मार्ग पर उसके सम्पूर्ण
अन्तः-बाह्य दोनों विचार सभी वस्तुओं में कादम्बरी के विषय में
थे। उसके द्वारा पूर्णतया रंजित एक मस्तिष्क संग,
उसने उसको अपने पीछे देखा, क्रूर-विरह हेतु अपने कटु-दारुण में उसके अन्तः निवास करती; अथवा अपने समक्ष, उसको उसके पथ में रोककर;
अथवा नभ पर दृष्टि
लगाते, जैसे कि विरह द्वारा
पीड़ित अपनी उर-चाह के
बल द्वारा हो; उसने उसको नितांत अपने हृदय पर चिंतन किया,
जैसे कि उसका मस्तिष्क
उसकी हानि द्वारा विद्ध (घायल) हो। जब वह महाश्वेता
के तपोवन पर पहुँचा, उसने
वहाँ अपना शिविर देखा, जिन्होंने इंद्रायुध के मार्ग का
अनुसरण किया था।
......क्रमशः
हिंदी भाष्यांतर,
द्वारा
पवन कुमार,
(३० मार्च, २०१९ समय १७:०७ सायं)
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