एक स्वाभाविक सा प्रश्न आज मेरे मन में आया
शनै-२ आयु बढ़ रही, जीवन यूँ बीता जा रहा।
क्या जीवन मात्र है प्रातः-अपराह्न-निशा ही मध्य
हम जीते इन क्षणों में ,जैसे यही है शाश्वत सत्य।
हम जीते इन क्षणों में ,जैसे यही है शाश्वत सत्य।
कार्यालय में काम, सहकर्मियों से संवाद-विवाद
कुछ कहना, सुनना, उसको पचाने हेतु विचार।
सिमटा यह जीवन, कुछ घर-कार्यालय के मध्य
निर्वाह इसी में है और इसी को समझते सर्वस्व।
निर्वाह इसी में है और इसी को समझते सर्वस्व।
दृष्टिकोण व्यापक न निर्मित, उलझे वर्तमान में ही
न भविष्य-चिंतन, वर्तमान सुधार, भ्रमित सदा ही।
कैसा जीवन नवीनता शून्य, कुछ नव तो भी कृत्रिम
क्यों जग सारहीन भासित, नर कहते यही जीवन।
कौन पल परम-रोमांच के, कैसे सदा नवीनता पाऐं
क्या प्रक्रिया निज-संपर्क की, कैसे आत्मसात होते।
सब उलझे स्व-रचित व्यूह, मुक्ति-पथ तो अचिन्हित
एक ढ़र्रा सी निर्मित जीवन शैली, सोचते यही परम।
हमी सबसे धीमान, सर्व संशय-त्रुटि मुक्त व पुण्यी
जग ही तो दोषी, इसका निर्णय भी करते स्वयं ही।
न कोई आदर्श जीवन-संहिता, सबके अपने-२ धर्म
कुछ पूर्वाग्रहों संग जन्म, कुछ विचार कर ही वर्धन।
हर मनुज एक दार्शनिक सा, जग को सोचे बस मूढ़
हर मनुज एक दार्शनिक सा, जग को सोचे बस मूढ़
माना संग स्व-रुचि वालों से, निज-बात ही अग्र-तिष्ठ।
यह कैसा शोध, स्व कुचेष्टा-मूढ़ता व विकारों से न कष्ट
न घाव-निरीक्षण, न पथ्य-युक्ति, जीवन करते हैं अल्प।
घोर तमासीन जग, जीवन-सकारात्मकता की न समझ
विवेक-उद्भव संभावना का, ज्ञान लो किसी विज्ञ निकट।
कौन वे योगी-मर्मज्ञ, प्रत्येक संवेदना की जाँच में समर्थ
उचित स्थिति आँक, कुछ सुप्रबंधन-युक्ति सकते कर।
कौन देखते जीवन को स्व से ऊपर, निर्मल दृष्टि वाहक
चिंतन सार्वभौमिक, मनुज-दुर्बलताओं की शुद्ध समझ।
माना प्राण न परीक्षण-सामग्री, पर क्या सुपथ विकासार्थ
मानव उनको अपनाकर तो सबका हित है सकता कर।
कुछ ठोस धरातल मिले, जिसपर चलकर हम पैर जमाऐं
नहीं उड़ें ख्याली-पुलावों में, बस कुछ करके दिखलाऐं।
भौतिक विकास जरूरी, नर प्राप्त अतिरिक्त ऊर्जा-समय
नर उनके प्रयोग से तो स्व व अन्यों का हित सकता कर।
कुछ क्षणों को दृढ़ पकड़कर उनमें चिंतन सुधार हेतु करें
कुछ कार्यशैली में परिवर्तन से, स्व-जीवन को धन्य करें।
न सीमित मात्र भौतिकता में, परम गति हेतु होता प्रेरित
क्या वह समाधि-स्थिति, संपूर्ण-एकाग्रता होती समाहित।
क्या हैं इच्छा-पथ जो मानव को दुर्गम स्थलों में पहुँचाते
जिससे उसका वृहद फैलाव, पूर्णता ओर कदम बढ़ते?
चिरंतन निज-विवेचना, आदर्श सफल से तुलना करना
शिक्षा हम कैसे पश्चग, मुख्य कारण अंतः या बाह्य क्या ?
स्व-चेष्टा से ही मानव कुछ स्थायी प्रगति कर है सकता
माना पूर्वाग्रह भी तथापि कर्मठ को पथ मिला करता।
क्या आहत करता, क्यों न इस जीवन का पूर्ण उपयोग
अनेक अध्याय पड़े रहते अधूरे, बैठा यूँ देखता अबोध।
कैसे हो उनमें छेदन, मेरी चेष्टा क्यूँ न बनाए है आमिल
हर नव-अज्ञात बिंदु झझकोरता, क्यूँ समझ इसकी न ?
असंख्य विषय अनाड़ी मैं, चेष्टा अधूरी विकसित-अर्ध
कैसे पटे अनंत दूरी, अविवेक व संपूर्णता के मध्य।
कैसे सबल हो देह-मन से, प्रवृति ब्रह्म पार जाने की
क्यूँ अधखिला, जब संभावना पूर्ण पुष्प बनने की।
होने दो दुर्बलता-परिचय, दृष्टि उच्च-लक्ष्य पर इंगित
प्रत्येक दोष ठोक बजाकर, औषधि बनने को स्वस्थ।
मन-तन स्वच्छ-निर्मल, कृष्ण सम संपूर्ण हेतु प्रेरक
मिटे ज्ञात-अज्ञात की दूरी, मुक्ति इसी जीवन संभव।
मेरी मुक्ति क्या, वह मात्र स्व-अंतर्विरोधों पर विजय
न समझ स्व को निम्न, आत्मसात होऊँ स्थिति में हर।
वह स्थिति जब समस्त ब्रह्मांड को चित्त में समा पाऊँ
एक गूढ़-चिंतन व एकात्मकता, स्व को स्थित पाऊँ।
इस जग ने बनाए कोष्टक, मानव-विभाजन स्थिति के
ज्ञानी हेतु सब सम ही, भेद तो आत्म-ज्ञान होने का है।
जिसे अपने को जान-समझ लिया, वही ब्रह्मज्ञानी-श्रेष्ठ
जो निज-मूढ़ता से आगे बढ़ना चाहते, वे ही नर हैं, नर।
वर्तमान-चिंतन भविष्य मार्ग खोलता, स्वयं-सुधार लक्ष्य
संपर्क कुछ सरल-हृदय मनुजों से, जो सिखला दें कुछ।
विनती जग में होनी चाहिए, अपने में निवास सुयोग्यता
देखो कर्ण साहस, परशुराम-शिक्षालय में जा मिलता।
मूलशंकर बनें दयानंद सरस्वती, आर्य-समाज स्थापित
कैसे उनके नेत्रों ने सब रूढ़ियों पर किया कुठाराघात?
वे ही हैं सचमुच प्रणेता, कूप-मण्डूकता से निकले बाहर
मानव-सोच हो स्वार्थ से परे, जिजीविषा उत्तम की करे।
कौन वे देव एकान्त क्षणों के, क्या है वर्तमान स्व-चलित
या स्वतः निर्माण, समग्र सामग्री अग्रसरण हेतु उपलब्ध।
कैसे हो चिंतन-वर्धन, स्व-मूढ़ता व जग-चतुरता से ऊपर
अनाक्षेप क्षुद्र विषयों में, आवश्यक कदापि न स्व-सकुचन।
माना जग-चलन यथार्थ-कर्म से, मनन उस हेतु रचता पथ
ज्ञान दृष्टि ही पवित्र, सुभग वे जिनपे है वह कृपा-निधान ।
निरंतर आत्म-दर्शन लालसा, सीमाओं को आगे ले जाता
यही विश्व-विजय बनती, अश्वमेध अश्व खुला विचरने जाता।
इंगित संपूर्णता परिलक्षित, यदि कोई शुचिता से कदम
न कोई अतिश्योक्ति, पर क्रमशः जमाए उचित चरण।
स्व-प्रबोध महद प्रयास-उपलब्धि, यत्न इस हेतु करें सब
प्रफुल्ल निश्चय ही तुम, पर करो एक पवित्र वातावरण।
वय-वर्धन तो अवश्यमेव, शंका मत सर्व-वय शनै प्राप्त
लोगे स्थान अग्रजों का, अनुज अपने पथ पर अगसर।
फिर भी वर्तमान मिला, नाटक-रोल उचित निभाने को
स्तुति-चाह न मात्र भी, निष्ठा अपने वाँछित कर्तव्यों में।
कोई क्यूँ देखे, टिप्पणी करे, क्यूँ समर्थ न स्व-विवेचन
जीवन निज, दाग न लगा, सार्थकता हेतु छोड़ो चूक न।
खिवैया इस अनुपम उपहार के, विधाता द्वारा सुदान
बिना झिझके चले चलो व प्रयास करो जाने को पार।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
७ अप्रैल, २०१९ समय ००:०४ मध्य रात्रि
(मेरी डायरी १६ नवंबर, २०१४ समय ९:५२ प्रातः से)
(मेरी डायरी १६ नवंबर, २०१४ समय ९:५२ प्रातः से)
सार्थक आत्म-चिंतन करती है आपकी रचना ... सुन्दर अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteRajesh Kumar: "Vaqt kis tezī se guzrā roz-marra meñ 'munīr'
ReplyDeleteaaj kal hotā gayā aur din havā hote ga.e
Vivek Jyoti : superb Sirji
ReplyDelete