दौर्बल्य-निवारण
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कैसे सिखाऐं-बढ़ाऐं, अधिकार अनुभूत, सीधा खड़ा होना सीख
भाई लोग निपट मूढ़-दमित, कैसे हों दीप्त ओर पग प्रसारित।
प्राणी-रूप किस साँचे में ढ़ला, परिवेश-मिट्टी में पल-बढ़ घड़ा
जीने के तरीके, कहना-सुनना, व्यवहार करना वहीं से सीखा।
परिष्कृतों को निर्मल वातावरण, शिक्षित हों सीखे आयाम-नव
वैभव-गौरव-कुल संस्कृति भी स्वीकारती नर के उच्च मानक।
काल-पटल के बहु महाचरित्रों ने नर-लौकिकता को है ललकारा
क्यूँ रहो सदा मद्धम, जग के समस्त संसाधन अग्र चाहते बढ़ाना।
क्यों संकुचित इस लघु-कूप में, विपुल महासमुद्र बाह पसारे खड़ा
कुत्सा तजो, लघुता को गरिमा से पाटो, पहचानो प्राण-अक्षुण्णता।
नित सामाजिक ताने-बाने में पाशित, गुरुता से तो न आत्म-निरीक्षण
न निज दौर्बल्य ही ज्ञात है, कोई अन्य समझाए तो प्रतीत है दुर्जन।
न है सहनशक्ति मन में, न सतत संवाद, अन्य-स्वीकृति में भी कष्ट
क्यों किसी की सुने, स्व में पारंगत-पूर्ण, टिपण्णी भी प्रायः असहन।
पर कुछ कूप-मण्डूकता से निकल, बृहत जग-संस्कृतियों से संपर्क
दर्शन-अनुभव अपने ही श्रेष्ठ हैं, यदि वे हृदय से किए गए हैं ग्रहण।
स्व से ऊपर निम्नताऐं विपश्यन, त्याग भी उपायों से कुछ सीमा तक
मनन से कई विसंगतियाँ समक्ष, सामान्यों में कई विचक्षण संभव।
कौन ऐसे जो यथास्थिति ललकारते, सुधार की करते बात निरत
कौन ऐसे जो यथास्थिति ललकारते, सुधार की करते बात निरत
निकटस्थ-निम्नताऐं झझकोरते, मनुज हीरक प्राण निर्मित कलुष।
इसी वय में सार्थक परिवर्तन संभव, प्रगति विशेष की ही न पैतृक
जग-वहम सुगम-ध्वंस, समाज-विचार बदल, करे परिवर्तन अखिल।
जो निम्नताऐं बताए तो वही सत्य मित्र, उसी से तो अग्र-चरण संभव
झझकोरना बहुदा लाभप्रद पर नर तंद्रा में, खलल शत्रुता प्रतीत।
विपुल लक्ष्य की जीवन में पालना, ऐसी सोच से तो बड़ा हित संभव
पर निर्मल ही सार्थक कल्पना-समर्थ, श्रम से साकार भी देता कर।
ये कौन हैं महावीर-बुद्ध-यशु-मुहम्मद-सुकरात-शंकराचार्य-कबीर
लिंकन, विवेकानंद, लेनिन-मार्क्स, अंबेडकर, मंडेला, आदि गिन।
प्रजा-अंतरतम को झंकार देते, लोग गंभीर हो सुनते व पालन-यत्न
पर मान वृहद मानवीय सोच को, संकीर्णता मनुज को करे अपंग।
स्व से निकल ही वृहद हित चिंतन, संभव जन-क्षीणताऐं शनै उचित
अब कुप्रथाऐं अन्त करके भी, साधे जा सकते अनेक समाज-हित।
बहु-कुव्यसनों में प्रजा पाशित, समय-ऊर्जा वृथा व्यर्थ, तदंतर रुदन
कुल-वंश-जाति-देश पूर्ण पंगु हो जाते, रह-२ कर टीस देती कष्ट।
लोग मित्र मिलन की बात भी करते, मन पढ़ो कुछ पाओ समरसता
सुविचारों से परिचय कराओ, निर्मल पक्ष से होने दो आत्मसातता।
शाला-गुरुकुल-मदरसे-विश्वविद्यालय लक्ष्य, पाठी उत्तम-निरूपण
मानव रचनार्थ अति-त्याग चाहिए, चिपकने से तो कैसे हो संभव ?
अनेक उज्ज्वल पक्ष प्रतिदिन समक्ष, कुछ निर्मल चित्त तजते मूढ़ता
पर कुत्सित-मन का नकारात्मक प्रयास भी, भाव चाहिऐं समझना।
विश्व में अनेक स्वार्थ भी व्याप्त, लोगों में लिप्सा हेतु बहु-उत्क्रोश
सुहृद भी सदा निकट-स्थित, पहचानने-अपनाने में न फिर संकोच।
अनेक जातियाँ चिर-कुप्रथाओं कारण, दमित भाव जीती-गुजर करती
दबंग की गाली-कोड़े खाके भी निश्चिंत, निज-ग्लानि व दैव-दोष मानती।
एक भीक-चरित्र सा अपनाया, हम गरीब-दुर्बल हैं सह लेने में ही भला
पर कुछ सज्जन दिखाते भला भविष्य का स्वप्न, निस्संदेह पात्र-श्लाघा।
यहाँ लक्ष्य नर को विवेकी बनाना, जितना निज से उत्तम संभव, हो यत्न
सक्षमों को भी कर्त्तव्य-प्रबोध हो, वे भी तुम्हारे भ्राता हैं न बनो कर्कश।
क्षीणों में यह विश्वास-पूर्ति तुम भी पूर्ण-मानव, है श्रेष्ठ जीवन अधिकार
किसी से न भीत हो, न अत्याचार, मानव परस्पर हेतु महद जिम्मेवार।
मन को एक निर्मल उच्च दो, जटिल सामाजिक कुरीतियाँ समाधान
नित निर्मल सहाय-भाव-निष्ठा, संग अन्य भी विकसित सदैव स्मरण।
पवन कुमार,
१४ अप्रैल, २०१९ समय २०:०२ सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २२ मई, २०१८ समय ९: ५० प्रातः से)
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