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पिनाकी द्वारा करने से मनोभव* को दग्ध,
देख अपने
समक्ष विचलित सती का मनोरथ भग्न।
और
निज रूप
कोसने लगी पार्वती हृदय से क्योंकि
सौभाग्यफल सौंदर्य का प्रिय से चाहिए ही मिलन।१।
मनोभव*
: काम
रूप
अवन्ध्यता हेतु समाधि अवलम्बन ले
पार्वती
ने इच्छा किया आत्मा में तप ।
अन्यथा कैसे
वह तत्प्रकार का स्नेह व हर-सदृश
मृत्युंजय पति दोनों को प्राप्त सकती थी कर?।२।
गिरीश
प्रति स्व-सुता की आसक्ति-मन
व
तप द्वारा उद्यम करने को सुनकर।
मेना
ने उसको वक्ष से लगाकर
निवारण हेतु कहा मुनिव्रत महद।३।
हे
वत्सा ! गृहों में देवता बसते जैसा इच्छा करता है मन,
तेरे तप
व इस मृदु देह में कितना विरोधाभास है महद?
पेलव*
शिरीष-पुष्प भ्रमर के पद-भार सक्षम
परन्तु
दोबारा पतञ्चि* का न सहन।४।
पेलव*
: कोमल; पतञ्चि* : पक्षी
यद्यपि मेना
का ऐसा आग्रह, सुता-इच्छा थी ध्रुव
अतः
उसका उद्यम नियंत्रण करने में न हुई सफल।
कौन
ईश के प्रति मन में दृढ़ - निश्चय व
नीचे पतित पय* को कर सकता ऊर्ध्व?।५।
पय*
: जल
कदाचित
निज-मनोरथ हेतु इस मनस्विनी पार्वती ने
पिता
को प्रार्थना की, मुख से विश्वस्त सखी के निज।
कि
जब तक उसे फल मिल जाता नहीं
तप-समाधि हेतु, अरण्य-वास की अनुमति हो दत्त।६।
तत्पश्चात
पूजनीय गुरु* द्वारा तप करने की
अनुरूप
ग्राह्य अनुमति से गौरी प्रसन्न होकर।
चली
गई शिखण्ड* परिपूरित एक शिखर पर,
जो
बाद में जग में उसके नाम से है प्रख्यात।७।
गुरु*
: तात; शिखण्ड* : मयूर
उसने
अनिवार्य निश्चय से स्तन-मध्य लेप-चन्दन
हटाने
वाले अपने मुक्ताहार का दिया त्याग कर।
और
एक बाल अरुण पिंगल-वर्णी वल्कल*
वस्त्र पहन
उन्नत पयोधरों द्वारा निषेध, जिसका देह से
तंगबंध।८।
वल्कल* :
वृक्ष-छाल
पूर्वेव मुख
सौम्य - गुँथे केशों से प्रतीत था मधुर,
अब
जटाओं में भी दिखता है सुंदर वैसे ही।
पंकज ललित
न दर्शित मात्र षट्पद* पंक्ति से ही
अपितु प्रकाशमान
होता है शैवाल संगति में भी।९।
षट्पद*
: भ्रमर
व्रत
हेतु पहने त्रिगुणी - मौञ्जी* के तन्तु,
भार
से उसके रोम प्रतिक्षण खड़ा रखते।
उसका मेखला-स्थान
रंजित हो गया था
प्रथम बार उस अवसर पर बाँधने से।१०।
मौञ्जी*
: मूंज
अब उसके
कर अधरों पर लाली लगाने से गए रुक,
स्तनों
में सुगंधित लेप न, कंदुक-क्रीड़ा से गए हट।
कुशांकुर*
चुगने से उँगलियाँ हो गई अति-क्षत,
बस मात्र रुद्राक्ष माला ही है कर में स्थित।११।
कुशांकुर*
: पर्ण
कभी
मूल्यवान शय्या पर पीड़ित हो जाती थी,
करवट
में अपने च्युत केश-पुष्प चुभने से भी वह।
जो
बैठती और सोती है अब भूमि पर,
अपनी बाहु-लता को तकिया बनाकर।१२।
उस
व्रती* ने अर्पित कर दी दो वस्तु
निक्षेप*
में पुनः ग्रहण करने हेतु हैं।
एक
तो विलास चेष्टा नाजुक लताओं में
और दूजी विलोल* दृष्टि हिरणियों में।१३।
व्रती*
: नियमबद्ध; निक्षेप* : धरोहर; विलोल* : लहरती
अपने
कर्तव्यों में अतन्द्रित* प्रसव-संवर्धन हेतु, वह
स्वयं
ही स्तन-नुमा घटकों से तरुओं को देती जल।
उसके
मातृ-सम वात्सल्य को उसका प्रथम-जन्मा
पुत्र
गुह भी न कर पाएगा त्यक्त।१४।
अतन्द्रित*
: सावधान
और
उसके द्वारा अंजलि से अरण्य-बीज देने
व
स्नेह से मृग उसमें
इतनी श्रद्धा करने लगे।
कि
कुतूहल में सखियों समक्ष अपने नेत्रों की
लम्बाई
उन हरिण-नेत्रों से लगी मापने।१५।
अभिषेक,
यज्ञाग्नि आहूति, स्तुति-पाठ करती,
वपु
के ऊर्ध्व भाग में वल्कल* धारण करती।
उस
देवी को देखने हेतु वहाँ आते ऋषि,
धर्म-वृद्धि विचारों में समीक्षा न आयु की।१६।
वल्कल*
: वृक्ष-छाल
पूर्व-मत्सर*
त्याग दिया गो-व्याघ्र आदि विरोधी जीवों ने
वहाँ
अतिथि संतुष्ट किए जाते वृक्षों के अभीष्ट भोजन से।
संचित
यज्ञ-अग्नि जलाई जाती मध्य पर्णशाला नव,
तपोवन
पावन हो गया इस तरह से।१७।
मत्सर*
: वैर
जब
लगा तप-समाधि से इस प्रकार की
अभीष्ट
फल प्राप्त होने वाला है नहीं।
तब अपनी मृदु-सुकुमारी वपु* की उपेक्षा
करते हुए महातप प्रारम्भ किया और भी।१८।
वपु*
: देह
वह
जो कंदु - क्रीड़ा से क्लम* थी जाती
अब
तपस्विनियों सम व्यवहार करने लगी।
निश्चित ही काया सुवर्ण-पद्मों
से निर्मित थी
प्रकृति
एवं सार* में वह बहुत तनु थी।१९।
क्लम*
: थक; सार* :तत्व
शुचि-स्मिता*
व सुमध्यमा* चार ज्वलंत हवि*-मध्य
बैठकर पार्वती,
प्रतिघातिनि* प्रभा विजित करती।
ग्रीष्म
में वह अनन्य-दृष्टि सवितुर* अपलक देखती,
व
दृष्टि अन्य किसी वस्तु पर जाती नहीं।२०।
शुचि-स्मिता*
: मधु-मुस्कान; सुमध्यमा* : सुमृदु-कटि;
हवि*
: अग्नि; प्रतिघातिनि* : नेत्र चुँधियाती; सवितुर* :सूर्य
तब
सविता किरणों से भी अति-तप्त उसके
मुख
ने दिवस-कमल की श्रियम* ली ले।
परन्तु
शनै उसकी नेत्र-दीर्घा* में पहचान
निज बना ली मात्र श्याम-वर्ण ही ने।२१।
श्रियम*
: सुंदरता; दीर्घा* : कोने
मात्र अम्बु
उपस्थित था अप्रार्थित, उडुपति* की
अमृतमयी
रश्मियाँ ही, खोलती उपवास थी।
अत्यधिक
क्षुधा में अतिरिक्त साधन थे
वृक्षों
के रसीले फल ही ।२२।
(उडुपति*:
नक्षत्र-स्वामी, चन्द्र)
वह
विभिन्न वह्नियों से होती,
अत्यन्त
दग्ध जो नभचर ईंधन द्वारा है संचारित।
ग्रीष्म
पश्चात नवजल से सिक्त हुई जो भूमि पर
पड़कर, ऊर्ध्व उठता है वाष्प
बनकर।२३।
प्रथम
जल-बिंदु* एक क्षण उसकी पलकों पर ठहरते, फिर
अधरों
से टकराते, पयधर* उभार पर गिर चूर्ण हो जाते।
फिर
उसके कटि-त्वचा के तीन वलयों से स्खलित होते,
जो
चिरकाल पश्चात् ही नाभि-प्रदेश में पहुँचते।२४।
जल-बिंदु*:
बौछार; पयधर* : स्तन
रात्रियाँ
ही उसके महातप की साक्षी हैं देख उस,
शिला-शय्या सुप्ता व
अनिकेतन* निवासिनी को।
और
वृष्टि में जल-बौछारों मध्य,
तड़ित-प्रकाश में देखकर चमकती उसको।२५।
अनिकेतन*
: बाहर खुले में- बिना घर के
हिमयुक्त
अनिल वाली पौष-रात्रियों में
वह
अडिग खड़ी रहती जल में।
क्रन्दन
करते चक्रवाक-मिथुन पर करुणावती है,
जो
उसके समक्ष परस्पर बिछुड़ गए हैं।२६।
रात्रि
में वह कमलों का स्थान ले लेती,
जब
तुषार-वृष्टि से हो गए पद्म - क्षित।
उसके
मुख से कमल सी सुवास निकसित
और
पत्रों सम अधर होते कम्पित।२७।
परम
काष्ठ सम घोर तप में वृति करती
वह
द्रुमों से स्वयं - विशीर्ण* पर्णों से।
तथा
उस प्रियंवदा ने वह भी त्याग दिया
अतएव
पुराविद* कहते उसे अपर्णा है।२८।
विशीर्ण*
: च्युत; पुराविद* : पुराण आदि इतिहासकार
मृणालिका
पल्लवों सी कोमल, वह
देह को
दिन-रात
अतएव
कष्ट दे रही है व्रत-तप से।
और
उसने घोर तप कर रहे दृढ़ शरीर वाले
तपस्वियों
को भी छोड़ दिया है पीछे।२९।
तत्पश्चात
कृष्ण मृग-छाल धारे, हस्त-धारण एक दण्ड-पलाश
प्रगल्भ-वाणी
व
ब्रह्ममयी तेजस्वी, किञ्चित जटावान।
प्रथम
आश्रम अर्थात ब्रह्मचर्य में शरीर-बद्ध
एक सन्यासी ने तपोवन में
किया प्रस्थान ।३०।
पूर्ववत
पार्वती ने चलकर अति-सम्मान सहित
उस
ब्रह्मचारी के आथितेय हेतु की अर्चना।
समता
होते हुए भी स्थिर-चित्त विशिष्ट
व्यक्तियों में होती अति-गौरव चेष्टा।३१।
उस
ब्रह्मचारी ने विधि-अनुष्ठान से पूजा
स्वीकृत
करके, एक क्षण विश्राम किया।
और उमा
को सरल भाव से चक्षुओं में देखकर,
शिष्टता
न भूल यह कहना प्रारम्भ किया।३२।
क्या
होम-यज्ञ हेतु समिधा एवं कुश सुलभ हैं
और
क्या स्नान-विधि हेतु जल भी उपलब्ध है?
क्या
तुम तप स्व-शक्ति अनुसार करती हो?
यथा
यह देह धर्म-कर्त्तव्यों में साधन परम है।३३।
क्या
तेरे कर द्वारा सिंचित इन लताओं के
पल्लव उचित
रूप से वृद्धि कर रहे हैं?
जो
तेरे अधर से तुलना करते, लाल तो हैं पर
चिरकाल
से अलक्तक* जैसे रंग से विरक्त हैं।३४।
अलक्तक*
: लाख
क्या
तुम्हारा मन कर की दर्भ*
प्रेम
से लेते हरिणों से तो है प्रमुदित?
हे
उत्पलाक्षी!* उनके विलोचन*
चंचल
प्रतीत होते हैं, तुम्हारी अक्षियों
सम।३५।
दर्भ*
: पर्ण; उत्पलाक्षी* : कमलनयिनी; विलोचन* : नयन
हे
उमा ! यह कथन असत्य नहीं है कि
व्याभिचार-पाप
में न ले जाता रूप कदापि।
और
हे उदार-शीला ! तेरा दर्शन प्रेरणा-योग्य
बन
गया है, तपस्वियों हेतु भी।३६।
यह महीधर हिमवान पर्वत अपने परिवार सहित
गंगा-सलिल
द्वारा भी इतना पवित्र नहीं है हुआ।
न प्रमुदित
दिव*-च्युत सप्तर्षियों द्वारा विकीर्ण*
पुष्पों से, जितना वह तेरे पावन चरणों द्वारा।३७।
दिव*
: आकाश; विकीर्ण* : बिखेरें
ओ
भाविनी!* तेरे कृत्य से त्रिवर्ग*-सार
धर्म
ही मुझे विशेष प्रतीत होता आज।
क्योंकि
तुमने मात्र इस एक को ही, मन
से किया ग्रहण
और
अर्थ एवं काम के विषयों को किया है निर्गत।३८।
भाविनी*
: पवित्र उद्देश्यों वाली ; त्रिवर्ग* : काम, अर्थ, धर्म
तेरा मुझे
अपरिचित मानना न है उचित
अब
तुमने दिया है, जिसको सत्कार विशेष
ही।
क्योंकि मनीषियों
में मित्रता, ओ सन्नतगात्री* !
हो
जाती उनके मध्य सप्त-पद* वाणी से ही।३९।
सन्नतगात्री*
: नत-वपु; पद* : शब्द
अतः
ओ तपोधनी ! बहुक्षमा, द्विजों में सहज
जिज्ञासा भाव
से तुमसे कुछ पूछने को हूँ इच्छुक।
यदि
यह रहस्य न हो, तो कृपया देना उत्तर।४०।
तुम्हारी
प्रथम हिरण्यगर्भ कुल में उत्पत्ति है,
त्रिलोक-सौंदर्य
तुम्हारी वपु में ही उदित* है।
ऐश्वर्य-सुख
का तुम्हें न अन्वेषण, तुम्हारे पास नवयौवन है
अतः बताओ, क्या अन्य वरदान चाहिए तपोफल से?।४१।
उदित*
: अभिव्यक्त
जब
दुःसह्य बुराई द्वारा प्रवृत्त की गई हो,
ऐसा
कृत्य मनस्वियों द्वारा ही साधित है।
किंतु ओ कृशोदरी !
चित्त द्वारा मार्ग-प्रशस्त
विचार
से तेरे जैसा न देखा सकता है।४२।
ओ सुभ्रू*
! तेरी आकृति शोक-सहन असमर्थ,
जब
पिता-गृह में अवमान* कहाँ आगमन?
अपरिचितों
द्वारा भी तेरा अनादर न सम्भव,
क्या कोई सर्प-मणि से आलोक सकता हर?।४३।
सुभ्रू*
: सुंदर-भौंह वाली; अवमान* : अपमान
क्यूँ
तुमने यौवन में आभूषण त्याग वृद्धाश्रम -
शोभित
वृक्ष-छाल वल्कल* कर रखे हैं धारण?
विभावरी*
प्रारम्भ में जब चन्द्र-तारें स्फुटित हों,
कहो, क्या अरुणोदय
कल्पना है सम्भव?।४४।
वल्कल*
: वस्त्र; विभावरी* :रात्रि
यदि
तुम स्वर्ग-प्रार्थना कर रही हो, तो तेरा
श्रम
वृथा है, क्योंकि देव-भूमि है पितु-प्रदेश तव।
यदि
एक सुयोग्य वर चाहती, तो समाधि दो त्याग,
क्योंकि रत्न अन्वेषण होता,
न कि खोजता वह स्वयं।४५।
तुम्हारी
उष्मित निश्वास* से नहीं निवेदित
और
तथापि मेरे मन में संशय ही है उत्पन्न।
मैं
न देखता तेरे द्वारा एक पति ही अन्वेषण
कैसे सम्भव जब प्रार्थना करें, वह हो दुर्लभ।४६।
निश्वास*
: आह
अहो,
तेरे द्वारा इच्छित युवा निश्चित ही है कठोर-हृदय
क्योंकि
अभी तक स्थिर है देख उलझी जटाओं को वह।
जो
कमलाग्र पिङ्गल* सम चौड़े कपोलों पर रही झूल,
जिससे
कर्ण-उत्पल चिर समय से हैं शून्य-गत।४७।
पिङ्गल*
: पीली भूरी शाली-पत्र नोक
इस
मुनिव्रत से तुम इतना कृश,
आभूषण-स्थल
दिवाकर द्वारा दग्ध।
शशांक
रेखा सी बनी जा रही हो, इसे देख
किस सहृदय पुरुष का चित्त न होगा पीड़ित?
।४८।
विचारता
तेरा वल्लभ* निश्चित ही अपने को चतुर
समझता
हुआ, तुच्छ सौंदर्य-मद* से छला गया है।
जो चिरकाल
से अपना मुख तुम्हारी आत्मीय-चक्षु
और
वक्र-भोहों की ओर लक्षित न करता है।४९।
वल्लभ*
: प्रिय; मद* : गर्व
और
कितना दीर्घ अपने को दोगी कष्ट,
ओ
गौरी ! मैंने
भी पूर्वाश्रमों में संचित किया है तप।
क्या
तुम उस इच्छित वर हेतु उसका अर्ध-भाग ग्रहण-
आकांक्षा
करोगी, मैं ज्ञातुम उस वर को सम्यक?।५०।
द्विज
द्वारा मनोगत-भाव प्रवेश कर ऐसे सम्बोधन से भी
लज्जावश
न कह सकती थी मनोभाव वह पार्वती अपने।
अतः
उसके बाद उसने देखा केवल अपनी पार्श्व-
वर्तिनी*
सखी को अञ्जन-रहित अक्षियों से।५१।
पार्श्व-वर्तिनी*
: अनुचर
उसकी
सखी ने यूँ कहा ब्रह्मचारी को -
ओ
साधु ! सुनो, यदि यही है तुम्हारा कुतूहल।
कि
जैसे अम्भोज* द्वारा सूर्य-ऊष्मा निवारण करने सम इस
पार्वती ने स्व-काया को किसके हेतु तप-साधना
में है कृत।५२।
अम्भोज*
: पद्म
यह
मानिनी चतुर्दिक*-स्वामी अतिश्रय* इंद्र एवं
अन्यों
से घृणा कर इच्छा करती एक पति की उस।
पाणि*
में पिनाक* वाले हर की करती कामना जो
अविजित रूप द्वारा, यथा मदन-निग्रह से है स्पष्ट।५३।
चतुर्दिक*
: चहुँ-दिशा; अतिश्रय* :वैभवशाली; पाणि* :कर; पिनाक* : त्रिशूल
पुष्प-धन्वा*
का शर जिसका मुख पुरारि हर तक
पहुँच
में था असफल, असह्य हुंकार संग हुआ
वापस।
यद्यपि
भूत* नष्ट होने के बावजूद उस एक क्रूर-बाण ने
इस
उमा का हृदय कर दिया है घायल।५४।
पुष्प-धन्वा*
: कामदेव; भूत* : शरीर
दग्ध
प्रेम से उसके ललाट पर पतित
चंदन-रज
से श्वेत अलका* सहित।
पितृ-गृह
में हिम-शिला तल में भी
इस बाला को कभी न मिला सुख।५५।
अलका*
: लट
अनेक
बार भरे-कण्ठ गाने से सुस्पष्ट न होते हुए भी
निज किन्नर
राज-कन्या सखियों संग वन में वह पार्वती।
पिनाकी
के पराक्रम-पद रोदन-संगीत में है गाती।५६।
रात्रि
में जब तीन भाग शेष हैं, कदाचित ही एक क्षण हेतु मूँदती नेत्र,
सहसा
ही व्यथित होकर वह क्रंदन से शुरू हो जाती है, ओ नीलकण्ठ !
तुम
कहाँ चले गए हो, और एक कल्पित शिला की ओर हो लक्षित
उसे
असत्य कण्ठ मानकर, बाहु-पाश में लेती है जकड़।५७।
और
मूर्ख लड़की एकांत में स्व-हस्त द्वारा चित्रित
चन्द्रशेखर
की वह भर्त्सना करती शब्दों में ऐसे।
तुम्हें
मनीषी व्यापक जानते हैं, फिर तुम कैसे
अपनी प्रीति में ये दासी-भाव न हो जानते?।५८।
और
यद्यपि सोद्देश्य खोजती जब अंत में वह
जगत-पति
प्राप्तुम कोई अन्य उपाय न पा सकी।
तब
वह पिता की आज्ञा से हमारे संग
इस तपोवन में तप करने को आ गई।५९।
इस
सखी ने स्वयं-रोपित वृक्षों में पैदा
फलों
को देखा है, वे साक्षी उसके तप के।
और
इसके मनोरथ ने शशिमौली* के विषय में
अभिमुख होते हुए भी न देखा कोई अंकुर है।६०।
शशिमौली*
: चंद्रशेखर
मुझे
ज्ञात न, वह प्रार्थना से भी दुर्लभ कब हमारी
इस
सखी पर अनुग्रह करेगा, जो तप से है कृश।
तथा
जिसकी सुषुश्रा हम सखियों
द्वारा की जाती है अश्रु-सहित
जैसे वृष* अवग्रह*-संतप्त सीता* को पावस दे
करता अनुग्रहित।६१।
वृष*
: इंद्र; अवग्रह : अवर्षा; सीता : भूमि
उसके
हृदय-रहस्य जानती उस सखी ने अतएव
निवेदन किया,
पार्वती-सद्भाव को इंगित हेतु करने।
नैष्ठिक
सुंदर ब्रह्मचारी ने हर्ष लक्षणों को हुए छिपाते
उमा
से पूछा, क्या ऐसा है या एक परिहास है?।६२।
हिमाद्र-तनुजा
ने स्फटिक मणि-माला रख स्व-हस्त समक्ष
उँगलियों
को एक बंद-कली आकृति सम बना लिया तब।
चिर
व्यवस्थापित वाणी से किसी तरह महद -
कष्ट
से मिताक्षरों में किया यूँ कथन।६३।
वेद-वेत्ता
पूज्य ! सुनो, तुमने जो सुना, है सत्य
यह
दीन उच्च पद प्राप्ति की उत्सुक है तब।
यह
तप उसी की ग्रहणता हेतु है साधन,
मनोरथ
से कुछ भी न है असम्भव।६४।
तदुपरांत
वर्णी* ने कहा - महेश्वर सर्व-विदित है
और
तथापि उसकी कामना हो करती।
ज्ञात
हुए कि वह अमांगलिक वस्तुओं से प्रेम करता,
तेरी
इच्छा-निवृत्ति पूर्ण करने में, न हूँ उत्साही।६५।
वर्णी*
: ब्रह्मचारी
अरे,
तुमने एक तुच्छ वस्तु में मन लगा रखा
कैसे,
यह कर जिसमें कौतुक* बाँधा है जाना?
कैसे
सर्पों के वलय वाले शम्भु के हस्त के
प्रथम
परिचय* को सह है सकता?६६।
कौतुक*
: विवाह-सूत्र; परिचय* : जकड़न
क्या
तुम स्वयमेव करती हो पूर्णतया विचार
कि क्या
ये दो तथ्य परस्पर योग हैं सक्षम?
कहाँ
वधू-दुकूल* पर कल-हंस चित्रित लक्षण
और कहाँ शोणित* बिंदु गज-त्वचा से
उद्धत?।६७।
दुकूल*
: वस्त्र; शोणित* : रक्त
कौन
एक शत्रु भी चतुष्क* पर बिछे अनेक
पुष्प-कालीन
पर दिव्य भवन के आँगन में;
तेरे
अलक्तक-रंजित चरणों की देखकर गति,
भू-पतित बिखरे केशों में मृत देखना ही
चाहे?।६८।
चतुष्क*
: चौराहा
कहो,
क्या यह न है अति-हास्यास्पद?
कि
त्रिनेत्र शिव के वक्ष पर सुलभ भस्म अतः;
तेरे
वक्ष को भी चिता-भस्मित कर देगी, जो
द्विस्तन
हरिचंदन
लेप लगाने के लिए है उपयुक्त स्थल।६९।
और
यह अन्य महत् विडंबना होगी
जिसको
देखकर मुस्कराऐंगे महाजन।
राजसी
गज-सवारी करने योग्य तुम
विवाह पश्चात चलोगी वृद्ध वृषभ संग।७०।
पिनाकी
शिव की समागम-प्रार्थना से दो वस्तु
शोचनीय
हो गई हैं, एक तो अति-पूर्व से ही;
चन्द्र
की सोलह कलाऐं और दूजे तुम,
जो कौमुदी* हो लोक के नेत्रों की।७१।
पिनाकी*
: शिव; कौमुदी* : चाँदनी
वपु
विरूप-नेत्रों से विद्रूप, उसका है अज्ञात कुल-जन्म,
ऐश्वर्य
दिगम्बर-निवेदित, हे नयनिनी बाल-हरिणी सम।
क्या
वरों में ढूँढनीय ऐसा भी है कुछ,
यदि एक को भी लें, तो क्या त्रिलोचन में है स्थित?।७२।
अपने
मन को इस प्रतिकूल इच्छा से निवृत कर लो,
कितना
अंतर है एक वह और एक तुम पुण्य-लक्षणा।
साधु-जनों
द्वारा श्मशान की शूली से
वैदिक बलि-स्तम्भ की न जाती है अपेक्षा।७३।
इसके
बाद प्रतिकूल वाद करते थिरकते
अधरों
से उसका देखा जा सकता है कोप।
उसने
तिरछी नजरों से भ्रूलता* पर
अति-क्रोध से दृष्टि डाली द्विज पर।७४।
भ्रूलता*
: लता सम भौंह
और
फिर उसने कहा - तुम निश्चय ही हो अनजान
हर-परमार्थ
से, तभी तो मुझसे ऐसी बातें रहे हो कर।
मंद-बुद्धि
द्वेष से महात्माओं के ढूँढ़ा करते
चरित्र-दोष,
जो
लौकिक प्राणियों में असामान्य, उनका चिंतन दुष्कर।७५।
अनर्थ-प्रतिकार
हेतु जो ऐश्वर्य-कामना या
मंगल
निषेध
करता, जगत-शरण व है निराभिलाषी।
क्या
उनके लिए आत्मा दूषित करने वाली
तुच्छ
आशा-तृष्णा वृत्तियाँ होंगी?।७६।
स्वयं
अकिंचन, वह सम्पदा-कारण,
श्मशान
में रहते भी त्रिलोकीनाथ है।
भीम*
रूप होते हुए भी कल्याणकारी शिव
कोई भी न ज्ञात कि वास्तव में
पिनाकी क्या है?।७७।
भीम*
: भयंकर
उस
विश्वमूर्ति* वपु की अवधारणा न सक्षम
आभूषणों
से उद्भाषित या कण्ठ सर्पों से सजा।
और चाहे
गज-चर्म ओढ़े या महीन दुकूल करे धारण,
चाहे कपाल-पात्र लिए या शिखर इंदु स्थित किया।७८।
विश्वमूर्ति*
: अष्टमूर्ति
उसकी
देह-संसर्ग की कल्पना से ही
निश्चय
ही चिता-भस्म भी हो जाती पवित्र।
और
ताण्डव नृत्य अभिनय क्रिया में च्युत
राख
को देव लगाया करते हैं मस्तक।७९।
पूर्व
दिशा के मत्त दिग्गज प्रभिन्न मद्रस्रावी
ऐरावत-स्वामी
इंद्र, चरणों को चूमता मस्तक से।
उस निर्धन
शिव के, जो वृषभ आरूढ़ होकर चलता व
जिसके पाद मन्दर वृक्ष पुष्प-रज* कणों से रक्त हैं।८०।
पुष्प-रज*
: पराग
ओ
च्युत आत्मा! यद्यपि ईश-दोष बताने की ही इच्छा
करते
हो, तुमने उनके प्रति एक बात कही उचित है।
जिनको
स्वयं ब्रह्म का भी कारण माना जाता है,
कैसे
अपना लक्ष्य-प्रभाव* सकता जान है?।८१।
लक्ष्य-प्रभाव*
: जन्म, कुल
बहुत
विवाद हो चुका, जैसा तुमने
उनके बारे
में सुना है, उन्हें रहने दो ऐसे ही।
परन्तु
मेरा हृदय अब प्रेम-भाव से उनमें स्थित है, जो
किसी को ऐसे चाहता तो आलोचना देखता नहीं।८२।
ऐ
सखी! इस लड़के को हटाओ, जिसको स्फुरित
उर्ध्व-अधर
से पुनः-२ कुछ कहने की इच्छा है होती।
न
केवल जो महात्माओं की बुराई करता है,
अपितु वह भी जो सुनता, है पातक-भागी।८३।
अन्यथा
अब मैं चली जाऊँगी, ऐसा कह जैसे ही वह बाला,
जिसके
वक्ष से वृक्ष-छाल वस्त्र सरक गए थे, चलने को हुई उद्यत।
और
वृषभराज* ने निज स्वरूप धारण करके, मुस्काते हुए
उसको चकित
करते हुए, अपने नियंत्रण में कृत।८४।
वृषभराज*
: वृष-ध्वज, शिव
उसको
देख काँपती हुई व स्वेद से तर हुए अंगों सहित,
शैलाधिराज
सुता ने स्वयं को एक पद चलने को किया उद्धत।
सिंधु
नदी पथ में पर्वत की बाधा होने सी वह
अनिश्चित थी कि ठहरा जाए या करें गमन।८५।
ओ
अवनतांगी उमा ! आज से मैं तेरे तप द्वारा
क्रीत
दास हुआ, जैसे ही चंद्रमौलि ने ये बोले शब्द।
तुरंत
वह दुष्कर-नियम पालन से हुए कष्टों को गई भूल,
इच्छित फल प्राप्ति पर, कष्ट पुनः उत्साह
देता है भर।८६।
इति
श्री कालिदासकृत
कुमारसम्भवे महाकाव्ये तपः फलोदयो नाम
पंचम
सर्गः हिन्दी रूपान्तर।
wow
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