संध्या व योग-विचार
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यह संध्या का समय है, मरीचिमाली शनै प्रतीची के क्षितिज में डूबता सा प्रतीत
उसके वृत्त गिर्द किंचित पीत-रक्तिक आभा, दिशाओं में भास भी हो रहा क्षीण।
प्रातः प्राची-उदय बाद दक्षिण मध्य से सायं प्रतीची-अस्तंगत तक एक अप्रतिम दृश्य
मध्य-दिवस में भास्कर शिरोबिंदु या चरम-ऊर्ध्व पर है, जैसे पूरे गगन के मध्य में हो।
प्रातः में उत्तर-पूर्व-दक्षिण दिशाऐं बहु प्रकाशमान, पश्चिम छूट जाता, सूर्य होता निम्न
संध्या में प्रतीची कांतिमान, पर शनै एक मेघ-पट्टी सी डूबने वाले स्थल आच्छादित।
संध्या हो रही, सूर्य पूर्ण डूब गया, वैज्ञानिक भाषा में पृथ्वी-क्षेत्र उससे ओझल हो चुका
कुछ गोधूलि-प्रकाश शेष, निकट वस्तुऐं ही दृश्यमान, किंचित अब तमस आ घेरेगा।
अभी दो दिवस पूर्व पूर्णिमा थी अतः कृष्ण-पक्ष शुरू, थोड़ी देर में चंद्र पूर्व से निकलेगा
लगभग १२ घंटे रहेगा, सुबह सूर्योदय बाद नभ में पश्चिम दिशा में धूमिल सा छिपेगा।
सूर्य विषय में ज्ञात कि दिन लघुतम व महत्तम, दिन-रात्रि की सम अवधियाँ भी होती
भूमध्य रेखा से उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव ओर अक्षांश बढ़ने से, यह अवधि शनै बदलती।
पृथ्वी निज धूरी पर २३-१/२० झुकी, वर्ष में आधा भाग सूर्य ओर अधिक होता मुखरित
उत्तरी व दक्षिणी गोलार्धों में ऋतुऐं पृथक समयों पर, ध्रुवों पर छः-२ मास रात व दिन।
चंद्रमा विषय में ऐसी जानकारी लेने का तो न यत्न, तथापि पूरे १२ घंटे की रात्रि पूर्णिमा
अमावस्या को चंद्रोदय नहीं, अतः १५ दिन में १२ घंटे का काल घटकर शून्य हो जाता।
प्रतिदिन चाँद-चमक कृष्ण पक्ष में पूर्णिमा से अमावस मध्य औसत ४८ मिनट कम होती
शुक्ल पक्ष में अमावस बाद पूर्णिमा तक भी ४८ मिनट बढ़ते चंद्र से रात्रि जगमग रहती।
अब ७:४३ बजे संध्या, चंद्र उदय/अस्त काल एक वेबसाइट Time and Date.com पर देखता
चंद्रोदय ८:१६ बजे, अस्त कल प्रातः ७ बजे, पूर्व में स्थिति १६५० (E) व पश्चिम में २६0० (E) है।
कैलेंडर से ज्ञात होता कि भिन्न दिनों में चंद्रोदयों का अंतर एक सम न, बदलतेअवधियाँ-अक्षांश
कृष्ण पक्ष में उदय भिन्न निशा-समयों पर, दिवस में भी किंतु अगोचरप्रकाश अधिकता कारण।
चंद्र तो एक पूर्ण विषय है, गहन अध्ययन की आवश्यकता, तभी कोई सार्थक टिपण्णी संभव
पर मैं तो अभी संध्या-सौंदर्य व उसके उपरांत रजनी के विषय में चर्चा का कर रहा मनन।
मैं कालिदास तो न, गहन विचार कर अनेक उपमाओं संग कर सकूँ प्रतिपल सौंदर्य-पूरित
कुमार-संभव के उमासुरत-वर्णन में संध्या व रात्रि का लालित्य अभूतपूर्व, आत्मा पुलकित।
कवि को सौंदर्य-बोध होना आवश्यक, प्रकृति की विश्व-व्यवस्था समझने की चाहिए बुद्धि
अब कालिदास ने शिव-पार्वती को मध्य रख एक अनुपम निधि दी, जो अन्यत्र दुर्लभ सी।
उन्हें यदि मैं गुरु मान लूँ तो कल्याण हो, तपस्या की थी उज्जैन की गढ़-कलिका मंदिर में
माँ वाग्देवी वरदान दे, तो शब्द अंतः से स्वतः उदय होकर सार्थक वाक्य रच डालते हैं।
प्राचीन महापुरुषों का चिंतन तो तप करते पाया, किसी देव-वरदान से जीवन में सुदिन
कुछ अतएव यत्न तो न, योग-परिभाषा से कोसों दूर, मौन-व्रत तक न कर पाता धारण।
न मिताहारी, यम-नियम का पालन भी न, देह-मन को भी कोई बड़ा कष्ट न देना चाहता
यम-नियम-आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि अवस्थाऐं प्रायः अज्ञात।
पतञ्जलिकृत योगशास्त्र में योग के अन्य प्रकटयों के अलावा अष्टांग-योग का विस्तृत विवरण
मात्र दैहिक योग-मुद्राओं का शास्त्र ही न, आत्मा-परमात्मा एकत्व के विषय भी व्याख्यायित।
पूर्ण कल्याण व शारीरिक-मानसिक व आत्मिक शुद्धि के अष्टांगों वाले योग का प्रेरित एक पथ
यदि स्फूर्ति-स्वास्थ्यकारी अष्टांग-मार्ग का अभ्यास एक साथ किया जाए तो बड़ा भला संभव।
यम का अर्थ है स्वयं पर शासन, अर्थात क्रोध-वासना व उत्तेजना में स्वयं को सयंमित रखना
अहिंसा-सत्य-अस्तेय, ब्रह्मचर्य या इंद्रिय-सुखों में संयम, अपरिग्रह व दूजों की चीजों में अनिच्छा।
नियम अर्थ पवित्रता जो द्वितीय चरण- आत्मशांति संग मन-कर्म-वचन की पवित्रता बनाए रखना
शुचिता-संतोष-तपस्या, स्वाध्याय या आत्म-निरीक्षण व भगवान के प्रति स्वयं को समर्पित करना।
आसन का अर्थ योगासनों द्वारा शारीरिक नियंत्रण करना - अनेक प्रकार के आसन हैं प्रचलित
चक्र, भुजंग, धनुर, गरुड़, वज्र, मयूर, उष्ट्र, उत्तानपाद, शव, ताड़, सूर्य-नमस्कार आसन आदि।
प्राणायाम के माध्यम से श्वास संबंधी विशेष तकनीकों द्वारा प्राण पर किया जाना सुनियंत्रण है
इसी प्रकार भ्रस्तिका, कपालभाति, बाह्य अनुलोम-विलोम, भ्रामरी, उद्गीथ प्राणायाम आदि हैं।
प्रत्याहार की सहायता से इन्द्रियों को अंतर्मुखी किया जाता, उन पर पाया जा सकता नियंत्रण
इस पंचम चरण हेतु यम-नियम रख एक आसन स्थित हो प्राण पर नियंत्रण-शिक्षा आवश्यक।
प्राणायाम तक योग साधना नेत्र-दर्शित, मन को इंद्रिय-नियंत्रण से मुक्त कर अंतः ओर कर्षण।
छठे चरण 'धारणा' का अर्थ है एकाग्रचित्तता, इससे पूर्व के पंच चरण माने गए साधन बाहरी
स्थिर चित्त को एक जगह रोक लेना ही धारणा, कुल मिलाकर धारणा धैर्य की ही है स्थिति।
योगी प्रत्याहार से इन्द्रियाँ चित्त में स्थिर करता, धारणा की सहायता से एक स्थल लेता बाँध
धारणा-निरंतरता ही ध्यान, अति-सूक्ष्म मन-स्थिति जहाँ जागृत एक वृत्ति-प्रवाह में है निवास
धारणा-ध्यान की एकाग्रता द्वारा चेतना-गर्व मुक्त, चेतनता का पूर्ण बोध समाधि जाती बन।
समाधि अष्टांग का है अंतिम चरण, चेतना-स्तर पर मनुज पूर्ण-मुक्ति का अनुभव करता
योगशास्त्र अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि, यह पूर्ण अनुभूति की है अवस्था।
मन द्वारा उन गूढ़ विषयों का भी ज्ञान अर्जन, जो साधारण अवस्था में बुद्धि से न गोचर
समाधि व निद्रा में एक जैसी अवस्था प्रतीत होती, दोनों में बाह्य स्वरूप हो जाता सुप्त
समाधि पूर्व का महामूर्ख व अज्ञानी, समाधि की सहायता से महाज्ञानी जागता होकर।
निश्चित कुछ ऐसा कर्त्तव्य हो जिससे क्षमताऐं वर्धित, एक सफल भाँति कार्य-निर्वाह
कैसे लेखनी द्वारा अद्वितीय-सार्थक, वर्णन या जग-हित हेतु सर्जित हों कुछ कार्य।
योग विषय में कुछ पढ़ा-लिखा है पर पथ पर चलूँ, किञ्चित बुद्धि हो जाए विकसित
बुद्धि पर अनावश्यक वजन सा रखा, मूर्धा हल्की हो तो कार्य कर सकें तंतु सुगम।
वे कौन तप मार्ग हैं, अनेक देव-दानव व सामान्य नरों द्वारा अपनाए गए पुराणों में
तपस या तप का मूल अर्थ प्रकाश अथवा प्रज्वलन, जो स्पष्ट होता सूर्य या अग्नि में।
किंतु यह शनै एक रूढ़ार्थ विकसित हो गया, और किसी उद्देश्य विशेष की प्राप्ति
या आत्मिक-शारीरिक अनुशासन हेतु भोगे दैहिक कष्टों को तप कहा जाने लगा।
भगवद्गीता में तो तप व सन्यास के दार्शनिक पक्ष का दिखाई देता सर्वोत्तम स्वरूप
उसमें शारीरिक-वाचिक-मानसिक व सात्विक, राजसी व बताए गए तामसी रूप।
दैहिक तप देव-द्विज-गुरु व अहिंसा में चिन्हित,
वाचिक तप अनुद्वेगकर वापी-सत्य-प्रियभाषण व स्वाध्याय में
मानसिक तप मन की प्रसन्नता-सौम्यता-आत्मनिग्रह व भाव संशुद्धि से होता सिद्ध।
उत्तम तप तो है सात्विक, किया जाता श्रद्धापूर्वक फल-इच्छा से होकर विरक्त
इसके विपरीत सत्कार-मान व पूजा हेतु दंभपूर्वक किया जाने वाला राजस तप
मूढ़तावश स्व को कष्ट दे या दूजों को कष्ट देने हेतु भी जो भी तप, वह आदर्श न।
अद्य चिंतन का सफल या न यह तो अज्ञात, पर परिष्कार की है अति आवश्यकता
अब जो भी अभ्यास इस देह-मन से बन पा रहा, और यत्न-वृद्धि की तुरंत हो चेष्टा।
अंतःगव्हर स्पष्ट होने दो, स्थित मणि चमकने दो, आलोक-साम्राज्य होने दो स्थापित
फिर महाकवि भाँति किञ्चित लेखनी साथ देगी, तो निज पूर्णता पर कुछ होगा गर्व।
पवन कुमार,
२६ जुलाई, २०२१ सोमवार समय ८:१५ बजे प्रातः
(मेरी दिल्ली डायरी दि० ९ अप्रैल, २०२० वीरवार समय ६:३३ सायं से)
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