रिश्तें हैं प्राण- वाहक, हम
निकले उनसे, रक्त-संपर्क से युजित
कह सकते हैं सीधे जुड़े, किसी
औपचारिकता की न जरूरत॥
कुछ रिश्तें अति-प्रगाढ़ जैसे
माँ-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना
भाई-बहन,
मामा-मौसी, चाचा-बुआ, चचेरा-फुफेरा, ममेरा-मौसेरा।
रक्त से अभिभावक-कुलों से
सीधे जुड़ते, शृंखला-गमन दूर तक
माना दूर तक ढूँढ़ना-निबाहना
कठिन, तथापि प्रयास से संभव॥
कितनी गहराई तक हैं
रक्त-मूलें, हम अधिक ध्यान न दे पाते
इस अल्प- जिंदगी में इतने
मशगूल, भूलते कोई और भी हैं।
अति- सुलभ अन्वेषण यदि
चाहें, गहन योग देह-आत्माओं में
प्रेम-भाषा बोलकर देख, सब
आऐंगे बाह पसारे गले मिलने॥
रिश्तें हमारा उद्गम-स्थल,
रक्त-वीर्य प्रवाह होता अति-दूर तक
एक-दूजे के गुण परस्पर
बाँटते, शक्लें-व्यवहार जाते से मिल।
अति स्थल-दूरी से संपर्क
बाधित, कुछ समय पूर्व था स्नेह-अति
विवाह-उत्सवों में मिलन-रीत,
परस्पर देख होती अति-ख़ुशी॥
हम आपस के सुख-दुःख बाँटते,
जानते अपना है हानि न करे
जैसे निज आत्मा का एक रूप,
कुछ न दुराव अपने भीतर है।
ख़ुशी- नाराजगी तो वहाँ भी
हैं, कह-सुनकर हल्का होता मन
सभी मनोभावों से हम गुजरते,
हर परिस्थिति नहीं निज-रूप॥
अनुवांशिक- गुण तो अति-
विस्तृत, विज्ञान से विस्तार-विवरण
माता-पिता, भाई-बहनें
निकटतम, रिश्तें हैं सुदूर तक वाहक।
हममें-उनमें अभिभावक-गुण
साँझे, अटूट योग है नित-सुदृढ़
अनेक ही उसमें युजित हो
सकते, जितना चाहे उतने संभव॥
रक्त- रिश्तें
अति-महत्त्वपूर्ण, माना सिमट जाते कुछ दूरी पर
जानते हैं अपने ही,
संसाधन-समय अभाव से दे पाते न ध्यान।
कुनबा-अवधारणा ज्ञान, माना
कि सदस्य भी आपस में लड़ते
तथापि न्यूनतम सदाश्यता,
अन्य- विरुद्ध सब हैं एक-जुटते॥
प्रेम की चहुँ ओर जरूरत है,
स्वार्थ से किंचित कृत-संकुचित
निज-कोटरों में ही दुबके,
बाहर आ अन्यों को न लगाते कंठ।
स्व-दामन सिकोड़ अनावश्यक, जब
अनेक जन समा सकते
मन को जब स्नेह-शून्य किया,
विश्व-बंधुत्व राह खुलेगी कैसे?
संबंधी सब आर्थिक-सामाजिक
स्थिति में, निर्धन से दूरी अग्रों में
जब समुचित जानते अपने ही,
तटस्थता-भाव दिखाते स्वार्थ में।
ज्ञान का क्या लाभ यदि न
व्यवहार-दर्शित है, किए दूर निज भी
संबंधियों को तज अन्यों से
संपर्क बढ़ाते, धीरे दूरी बढ़ती जाती॥
स्व-रुचियाँ हैं
महत्त्वपूर्ण, न आवश्यक रिश्तेदारों से पूर्ण-मेल
अपने-२ गुट बना लेते, समय
आने पर यह या वह पक्ष है लेत।
स्पर्धा-स्पृहा अधिक परस्पर
में, आगे-पीछे टाँग भी खींच देते
एक-दूजे का मज़ाक भी बनाते,
जैसा उचित जँचे निभा लेते॥
मित्रता एक वृहद-अध्याय, इस
पर विस्तार से चिंतन कभी
अभी विषय रक्त-रिश्ता, कैसे
मिठास है डाली जा सकती?
उसके अतिरिक्त संबंधी भी,
भले प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ते
मेल-जोल से ही निज बनते,
अपनापन सा हो जाता शनै-२॥
जहाँ हृदय-समीप वहाँ
माधुर्य, प्रेम से परस्पर वर्धन-उत्साह
सभी कुछ सहन चाहे कत्ल भी
हो, प्रेम सर्वोपरि लेगा स्थान।
अभिभावक-संतानों में न है
स्पर्धा, झेल लेते उच्छृंखलता भी
बंधु-भगिनियों में आदर,
अति-गुणवत्ता संभव अस्वार्थ यदि॥
एकत्रित करें
संबंधी-कुटुंबियों को, घर जाकर दिखाऐं स्नेह भी
वे भी हमारे प्रेम के भूखें,
मिलने-जुलने से तो निकटता बढ़ेगी।
यदि परस्पर स्नेह-समझदारी,
एकजुटता से तो शक्ति-विश्वास
एक-दूजे को सहना भी श्रेष्ठ
गुण, जीवंतता से है वर्धन-सौहार्द॥
सबमें सब भाँति के गुण,
उत्तम को अपनाऐं क्षीणता को तज
सहनशीलता निज-पालक, आगे बढ़ो,
सबको लगाओ कंठ॥