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Monday, 31 July 2017

रक्त-रिश्ते

रक्त-रिश्ते


रिश्तें हैं प्राण- वाहक, हम निकले उनसे, रक्त-संपर्क से युजित

कह सकते हैं सीधे जुड़े, किसी औपचारिकता की न जरूरत॥

 

कुछ रिश्तें अति-प्रगाढ़ जैसे माँ-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना

भाई-बहन, मामा-मौसी, चाचा-बुआ, चचेरा-फुफेरा, ममेरा-मौसेरा।

रक्त से अभिभावक-कुलों से सीधे जुड़ते, शृंखला-गमन दूर तक

माना दूर तक ढूँढ़ना-निबाहना कठिन, तथापि प्रयास से संभव॥

 

कितनी गहराई तक हैं रक्त-मूलें, हम अधिक ध्यान न दे पाते

इस अल्प- जिंदगी में इतने मशगूल, भूलते कोई और भी हैं।

अति- सुलभ अन्वेषण यदि चाहें, गहन योग देह-आत्माओं में

प्रेम-भाषा बोलकर देख, सब आऐंगे बाह पसारे गले मिलने॥

 

रिश्तें हमारा उद्गम-स्थल, रक्त-वीर्य प्रवाह होता अति-दूर तक

एक-दूजे के गुण परस्पर बाँटते, शक्लें-व्यवहार जाते से मिल।

अति स्थल-दूरी से संपर्क बाधित, कुछ समय पूर्व था स्नेह-अति

विवाह-उत्सवों में मिलन-रीत, परस्पर देख होती अति-ख़ुशी॥

 

हम आपस के सुख-दुःख बाँटते, जानते अपना है हानि न करे

जैसे निज आत्मा का एक रूप, कुछ न दुराव अपने भीतर है।

ख़ुशी- नाराजगी तो वहाँ भी हैं, कह-सुनकर हल्का होता मन

सभी मनोभावों से हम गुजरते, हर परिस्थिति नहीं निज-रूप॥

 

अनुवांशिक- गुण तो अति- विस्तृत, विज्ञान से विस्तार-विवरण

माता-पिता, भाई-बहनें निकटतम, रिश्तें हैं सुदूर तक वाहक।

हममें-उनमें अभिभावक-गुण साँझे, अटूट योग है नित-सुदृढ़

अनेक ही उसमें युजित हो सकते, जितना चाहे उतने संभव॥

 

रक्त- रिश्तें अति-महत्त्वपूर्ण, माना सिमट जाते कुछ दूरी पर

जानते हैं अपने ही, संसाधन-समय अभाव से दे पाते न ध्यान।

कुनबा-अवधारणा ज्ञान, माना कि सदस्य भी आपस में लड़ते

तथापि न्यूनतम सदाश्यता, अन्य- विरुद्ध सब हैं एक-जुटते॥

 

प्रेम की चहुँ ओर जरूरत है, स्वार्थ से किंचित कृत-संकुचित

निज-कोटरों में ही दुबके, बाहर आ अन्यों को न लगाते कंठ।

स्व-दामन सिकोड़ अनावश्यक, जब अनेक जन समा सकते

मन को जब स्नेह-शून्य किया, विश्व-बंधुत्व राह खुलेगी कैसे?

 

संबंधी सब आर्थिक-सामाजिक स्थिति में, निर्धन से दूरी अग्रों में

जब समुचित जानते अपने ही, तटस्थता-भाव दिखाते स्वार्थ में।

ज्ञान का क्या लाभ यदि न व्यवहार-दर्शित है, किए दूर निज भी

संबंधियों को तज अन्यों से संपर्क बढ़ाते, धीरे दूरी बढ़ती जाती॥

 

स्व-रुचियाँ हैं महत्त्वपूर्ण, न आवश्यक रिश्तेदारों से पूर्ण-मेल

अपने-२ गुट बना लेते, समय आने पर यह या वह पक्ष है लेत।

स्पर्धा-स्पृहा अधिक परस्पर में, आगे-पीछे टाँग भी खींच देते

एक-दूजे का मज़ाक भी बनाते, जैसा उचित जँचे निभा लेते॥

 

मित्रता एक वृहद-अध्याय, इस पर विस्तार से चिंतन कभी

अभी विषय रक्त-रिश्ता, कैसे मिठास है डाली जा सकती?

उसके अतिरिक्त संबंधी भी, भले प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ते

मेल-जोल से ही निज बनते, अपनापन सा हो जाता शनै-२॥

 

जहाँ हृदय-समीप वहाँ माधुर्य, प्रेम से परस्पर वर्धन-उत्साह

सभी कुछ सहन चाहे कत्ल भी हो, प्रेम सर्वोपरि लेगा स्थान।

अभिभावक-संतानों में न है स्पर्धा, झेल लेते उच्छृंखलता भी

बंधु-भगिनियों में आदर, अति-गुणवत्ता संभव अस्वार्थ यदि॥

 

एकत्रित करें संबंधी-कुटुंबियों को, घर जाकर दिखाऐं स्नेह भी

वे भी हमारे प्रेम के भूखें, मिलने-जुलने से तो निकटता बढ़ेगी।

यदि परस्पर स्नेह-समझदारी, एकजुटता से तो शक्ति-विश्वास

एक-दूजे को सहना भी श्रेष्ठ गुण, जीवंतता से है वर्धन-सौहार्द॥

 

सबमें सब भाँति के गुण, उत्तम को अपनाऐं क्षीणता को तज

सहनशीलता निज-पालक, आगे बढ़ो, सबको लगाओ कंठ॥



पवन कुमार,
३१ जुलाई, २०१७ समय १३:५१ दोपहर 
(मेरी डायरी दि० २५ जुलाई, २०१६ समय १०:२७ प्रातः से)