हर दिवस यहाँ एक नवीन उद्भव,
कुछ प्रगति कुछ अवसाद
प्रतिपल एक परीक्षा लेता,
चोर-सिपाही का खेल है अबाध॥
जीवन-चक्र है अति विचित्र,
खूब खेल खिलाए, डाँटे-फटकारे
क्षीणता, अल्पज्ञता,
त्रुटियाँ ला समक्ष, यथार्थ पृष्ठ पर है पटके।
प्रहर्ष अधिक नहीं पनपने
देता, विशाल-चक्र में घिर जाते सदा
यह न तुम्हारा गृह एवं
स्व-संगी, अजनबियों से पाला है पड़ा॥
क्यों अन्य तेरी ही मानें,
कुछ न किया है अभी अधिक श्लाघ्य
माना आम कार्य भाँति
निष्पादित, अपेक्षाऐं कहीं अधिक पर।
दुनिया यूँ न संतुष्ट होती,
निज स्वार्थ अधिक प्रिय हैं तुमसे कहीं
सब डूबें विद्वेष-माया-मोह
लोभ में, उनको तुम्हारी कहाँ पड़ी॥
पूर्व में बलि-प्रथा प्रचलित
थी, अब भी कई स्थलों पर है चलन
निर्दोष-हत्या अपने
प्राण-त्राण हेतु, कहाँ का है न्याय- विवेक?
मनुज न देखे अपना कुचरित्र,
प्रकृति बना ली पर- दोषारोपण
निज जितना हो अधम, अन्यों से
तो अपेक्षित आदर्श-अत्युत्तम॥
जब तक निज-अंतः नहीं
झाँकोगे, अन्यों में देखते रहोगे त्रुटियाँ
परंतु तुम्हारा कल्याण न
होगा, क्योंकि चेष्टा में न है स्व-सुचिता।
डूब जाओगे तुम घोर तम, बड़ी
ठोकर लगेगी एवं होओगे घायल
संभल जाओ और मान करना सीखो,
सिखा देंगे बहु हैं विशेषज्ञ॥
कैसे कई वहम ही पाल रखे हैं
तुमने, अपने व अन्यों के विषय में
अपने विश्वास तो प्रिय लगते
हैं, जो हाँ में हाँ मिलाए वह उत्तम है।
'एक तो करेला है ऊपर
से नीम चढ़ा' स्थिति
से न संभव है उन्नति
यावत न आओगे तुम वृहद-संपर्क
में, कैसे ज्ञात होगा क्या गति?
एक चेष्टा है जग-शोर से
दूरी, किसी गुफा में बैठकर लगाए चित्त
विश्व व्यर्थ एक
ढ़कोसला-फटाटोप, निर्मल-चित्त होते हैं व्यथित।
सूफी-निर्गुण,
साधु-बाऊल-भिक्षु, नागा फक्कड़-जगत सुधामयी
इसको लेते एक अनावश्यक वजन,
त्यागने में अधिक हित ही॥
क्यों परम-ज्ञानी निर्मोही
बन, अस्वार्थी हों वृहद कल्याण हैं सोचते
हित भी वह जो भौतिकता से परे
हो, और संपूर्णता चित्त में भर दे।
दीन-दुनिया अपने दुखों में
गुमी है, वह किसका भला सोच पाएगी
यावत मानव निज से ऊपर ही न
होगा, कैसे सर्वहित होगी प्रवृत्ति?
एक सागर-ऊर्मि है जो कभी
निम्न-उच्च, पवन वेग बढ़ाए आवृत्ति
सर्व-अणुओं को अपने संग
झुलाती, अनेक थपेड़े-अनुभव हैं देती।
अंतः-बाह्य परिवेश के हैं कई
दबाव, ज्वार-भाटे बैठने देते न शांत
वरन तो रुकती है प्रक्रिया,
सड़ता जल, कैसे पनपता बहु-जीवन?
जीवन भवंडर-खेल, पर कुछ
पुरुष एक सहज-शैली में हैं मुस्कुराते
क्या यह स्वभाव एक समरस बनना
ही, प्राण है तो नित फँसे रहेंगे।
क्या एक क्लेश हेतु ही जन्म
लिया या काम-चलाऊ स्थिति बना ली
बस अस्तित्व बचा रखो, जितना
हो सके टालो, न बने तो चल पड़ो॥
क्यों तजते ही हैं प्रदत्त
कर्त्तव्य, विपदा-निवारण तैयारी भी तो की न
दोषारोपण भाग्य-परिस्थितियों
पर, क्या किया है स्व-कर्म आकलन?
मात्र नितांत जरूरी ही
कर्म-निर्वाह है, जिनका न बहु-स्थगन संभव
कभी सोचा न कर्मयोगी बनना,
विश्व को दो शाप, निज करो शांत॥
नहीं अवलोकन किया स्व-कर्मों
का, कहाँ निष्ठ हो गुणवत्ता-स्तर पर
कैसे बने एक सम्मानजनक
स्थिति, क्या वाँछित सामग्री है हेतु उस?
जग परिश्रमी-प्रगतिवादी होना
माँगता, यूँ सस्ते में गुजर न होने देता
अति
प्रतिस्पर्धा-महत्त्वाकांक्षा चहुँ ओर, मात्र हानि ही निट्ठला बैठना॥
क्या शैली रचनात्मक है, व प्रतिपल
के महत्त्व का मोल चुका सकते?
या महज पलायनवादी संस्कृति,
अपना क्या अल्प में गुजर कर लेंगे।
क्या तव कर्म मनुज-जीवन में
सम्मान ही भरते, सार्थकता की प्रेरणा
निज अधिकार-क्षेत्र को जगाना
कर्त्तव्य, अकर्मण्यता-पाठ न पढ़ा॥
बंधु हम तो डूबेंगे पर तुमको
भी न छोड़ेंगे, ऐसी प्रवृत्ति अति-मारक
क्यों आयुध बनाते हो विनाश
के, मानसिक स्तर पर संवाद हैं निरत।
तुम न चेते कोई अन्य ही
चेतेगा, दौड़ में सदा समर्थ ही अग्रिम होंगे
समर्थ-रेखा वहीं से शुरू
जहाँ खड़े हो, तुम रोना लेकर रहना बैठे॥
संगठन-शक्ति तो बनाओ अवश्य
ही, क्योंकि `कलौयुगे संघ है शक्ति'
बुद्ध संवाद को अति-महत्त्व
देते हो, व्यग्रता से ही तो ज्ञान-क्षुधा बढ़ेगी।
न देखते कि औरों की कितनी
प्रगति है, स्वयं भी कुछ न ईजाद किया
न बनो मात्र सुविधा-भोगी ही,
अविष्कारों का मूल्य तो न सकते चुका॥
यह हाट का शोर-गुल,
नगाड़े-घंटी बज रहें, विक्रेता लगा रहे हैं हाँक
भूल-भलैया, अंध-गली,
स्व-नेत्र अर्ध-बंद, श्रवण-मनन शक्ति है अल्प।
सर्व-ज्ञानेन्द्रि काम न कर
रही हैं, भूखा हूँ पर जेब खाली, खरीदूँ कहाँ
कोई उधार न देता, पूर्व-लेखा
न चुकता, किधर जाऊँ यही विडंबना?
जगत का यह दीदार भी विचित्र,
सभी व्यग्र-संतापित, पर बात न करें
केंकड़े सम एक-दूजे की टाँग
खींचते, दोनों मरेंगे पर चढ़ सकते थे।
मेंढ़क संग प्रयोग शीतल
जलपात्र में, शनै ऊष्मा दी, उबाला जा रहा
प्रथम-स्थिति सक्षम था
बहिर्लांघन, पर नेत्र खोले करता मृत्यु-प्रतीक्षा॥
क्यों है यह
उदासीन-असंवेदनशील व संवाद-विहीन रहने की प्रवृत्ति
क्या दूजे इतने
त्याज्य-निम्न हैं, तुम बात करने में अनादर समझते ही?
क्या अथिति-सत्कार तव न
कर्त्तव्य, जग-रीत तो निभाओ कमसकम
न्यूनतम अपेक्षाऐं तो असभ्य
से भी हैं, स्व को कहते हो शिक्षित तुम॥
यदि खेलना तो समुचित खेलो,
और करो पालन कुछ यम-नियमों का
या निज को पूर्ण-सबल बना लो,
कि नहीं हो कोई अन्य-आवश्यकता।
पर मनुज तो एक सामाजिक
प्राणी, परस्पर सहकार से ही कार्य चलेगा
नहीं रहो मूढ़ सा आत्म-मुग्ध,
जागो-उठो-चेतो-देखो कुछ हित होगा॥