उत्तम-प्रवेश
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खुली आँखों से स्वप्न देखना, किंचित बाहर आना तंद्रा से
बस यूँ नेत्र खोलें, कितनी संभावनाऐं हो सकती मन में।
शिकायतें कई तुमसे ऐ जिंदगी, न खिलती, न रूप दिखाती
कहाँ छुपी बैठी रूबरू न हो, तड़प रहा तुममें रहकर भी।
जल में रहकर भी प्यासा, यह तो कोई फलसफ़ा न है भला
ऑंखें मीचे सोता रहूँ तुझे न मतलब, कैसा निभा रही रिश्ता।
मेरा सोना क्या और जागना क्या, जब दोनों में ही न स्पंदन
प्राण तो पूर्ण जिया ही न, कुछ पेंच फँस काट दिया समय।
ऐसे कोई मज़ा आए न, सौ में से एक-दो नंबर पा लिए बस
उत्तीर्ण हेतु न्यूनतम तो पाऐं, उत्तम-उत्कृष्ट स्थिति अग्रिम।
यह जीवन क्या, कैसे जी रहा, कुछ समझ तो अभी न आया
या कि कभी कोशिश ही न की, जैसे आया वैसे बिता लिया।
जब यूँ तंद्रा मन-देह में, पूर्ण चेतना बिना तो अधूरा ही होगा
कोशिशें भी कुछ अधूरी ही, इच्छा-स्तर भी दोयम ही रहा।
कोई कुछ छंद-कुंद जोड़ देता, मैं अवाक्-विस्मित सा देखता
निज का जैसे वजूद न, किसी ने कुछ बताया उधर हो लिया।
जीवन-सलीका तो बड़ी दूर की बात, सुस्ती छूटे तो सोचूँ कुछ
मौका-ए-जिंदगी यूँ भागा जा रहा, बीता तो क्या कहूँगा फिर।
दिन-रैन आते-जाते, कभी गुनगुना देता, प्रतिक्रिया देता कर
पर क्या सत्य प्रक्रिया इस प्रवाह की, रहस्य-अर्थ तो ज्ञात न।
जग क्या-क्यूँ समझे, शख्स को खुद का ही न पूरा पता जब
कभी प्राण-स्पंदन हो जाता है, पर है पूर्ण का अत्यल्प अंश।
यदा-कदा की बेचैनियाँ कष्टकारक ही, कोई न चेतना वरन
वैद्य ने बस दर्द कम करने की सूई दी, यह कोई ईलाज न।
वैद्य रोग बताता भी न, जानता कि कोई ज्यादा लाभ न होगा
इसकी काट अति कष्टमय, शायद संग लेकर मरना होगा।
इस दुनिया में तो भेजा हूँ, मेरा भी यहाँ कुछ अधिकार होगा
जहाज में धक्का मार घुसा दिया, बे-टिकट तो मिलेगी सजा।
पास जुर्माने की दंड-राशि भी न है, न ही लेगा कोई जमानत
न कुछ गिरवी रखने को ही पास, कैसे निदान होगा पता न।
शायद देह-मन यंत्रणा सहनी होगी, जग में अधिक दया न
या योग से कोई दयालु मिले, डाँट-फटकार से ही दे छोड़।
तथापि निरीह ही, इस कष्ट से निबटा अग्रिम का होगा क्या
कुछ योग्य-सुकर्म अनुरूप न बना, कैसे होगी अग्रिम राह।
कुछ दया-डाँट, दर-बदर भटकना, मायूसी से क्या जीना यूँ
कोई सुयोग्य-कर्मठ क्यूँ न बनाता, जीवन-राह सीख जाऊँ।
जीना वही जो पूर्ण जीया, हर रोम से जीवन हो मधु सिक्त
अंतः-उत्तम तो तभी बाहर आएगा, अंतः-सुदृढ़ता से हित।
कुछ खान-पान-सोच दोषित, इतनी तंद्रा तो कदापि न वरन
विज्ञान शिक्षा प्राण-प्रक्रिया के नियम, कोशिका रचना-क्षय।
जाँचन-सामर्थ्य तो न मुझमें, सुशिक्षित भी न जो जाऊँ समझ
बाह्य विज्ञान अति जटिल, विश्व समझना भी न इतना सरल।
कौन नियम पालन ग्राह्य-स्थिति हेतु, रग-२ से टपके संचेतना
स्व-आत्मीयता, गुण-दोषों से सहजता, सदा न लड़ सकता।
आत्म-आलोचना आवश्यक, ज्ञान पश्चात ही कुछ चरण संभव
पर सोच-समझ पूर्णता पर लाओ, अपने को कर लो दुरस्त।
कैसा भवंडर निर्गम न होने दे रहा, निकलूँ तो सोचूँ सुधार की
ज्ञानमय हूँगा तो स्थिति सुधरे, पर पूर्वार्थ अभी मात्र इच्छा ही।
भोर हो तो दिखेगा चलने को, अभी रात्रि-तमस में अटका पड़ा
मन-देह प्रभा व सामर्थ्य-उत्कंठा का संगम, शायद बने बात।
यह जिंदगी मिली कुछ महद उद्देश्य हेतु, चाहे अज्ञात हो मुझे ही
प्रथम दिन शाला गया शिशु अज्ञान, कि विद्या विद्वान बना देगी।
सफलता-सोपान खुलेंगे व यश-कीर्ति अवसर प्रारंभ होंगे समक्ष
जीवन तब सुघड़ ही गुजरेगा, बहुरंग खिलेंगे, हो पुलकित मन।
यही प्रार्थना कोई उत्तम में प्रवेश करा दे, प्रशिक्षु शिक्षक का भले
डाँट-फटकार, स्नेह या अन्य युक्ति से यह मूढ़ भी कुछ योग्य बने।
अभी समझ न भावी परिणाम, शायद कालक्रम में जाऊँ समझ
यद्यपि ऐसा न दर्शित, तभी तो छटपटाहट, हूँ किंकर्त्तव्य-विमूढ़।
इस क्षुद्र मन में इतनी पीड़ा, कैसे उपचार हो बुद्धि सोच न पाती
सिमटा बस कलम-कागज पर ही, रह-२ हो जाता असहज वही।
क्या करूँ यही समक्ष पल-स्थिति, कुछ पृथक तो तथैव उकेरूँगा
पर लक्ष्य एक आत्मसातता का, वर्तमान मंथन विलग निकालेगा।
चाह न अति विद्वान या समृद्ध होने की, उचित राह पर्याप्त बस
गति पर कहीं पहुँचेंगे यदि दिशा हो, उपलब्धि बढ़ती उम्र सम।
कुछ ढंग तो आए, साहसी कदम हों, योजना-परियोजना तो बने
निस्संदेह उत्तरोत्तर सकारात्मक वृद्धि, बेचैनी दूर, मुख स्मित से।
इतना तो अवश्य श्रेष्टतम से संपर्क हो, उन सम मन-बुद्धि बढ़े
सबको पूरे विकास-अवसर, फिर क्यूँ अल्पता में ही अटके रहें।
सत्य माना सब समरूप न बढ़ते, पर अनेक भी तो आगे आए
यदि प्रयास न तो कोई अन्य आएगा, तुम न तो अनेक पंक्ति में।
सुचिंतन हो, नकारात्मकता पर विजय, हदों से कराएगी परिचय
यह गंगा सलिल-प्रवाह सागर ओर, अति-विपुल से होगा मिलन।
जब पूर्ण-पुष्पण होगा, तो सब वाँछित परिस्थितियाँ होंगी निकट
इतनी जल्द हार मानने वाला भी न, अग्र बढ़ना न कोई संशय।
क्या है इस कवायद का अर्थ, पर ऊर्जा-स्पंदन देता हेतु श्रेयस
हर प्राप्ति माँगती निज मूल्य, समृद्ध बनो तो दे सको वाँछनीय।
जीवन में प्रयास अति महत्त्वपूर्ण, दृष्टि उत्तम हेतु सततता रखो
अग्रसर सुपग ही लक्ष्य पहुँचाते, अतः सर्व-इन्द्रि सुनिर्वाह करो।
पवन कुमार,
३१ मई' २०२०, रविवार समय ५:२५ बजे अपराह्न
(मेरी डायरी दि० १८ अगस्त' २०१६, वीरवार समय ४:०५ बजे अपराह्न से)