शाश्वत प्रवाह
-----------------
कौन शाश्वतता-मनन में सक्षम है, हृदय समस्त ब्रह्मांड हेतु खुल सकता
जीवन सनातन एक तक ही न संकुचित है, निरंतरता पिरोए रख सकता।
एक सभ्यता अबाधित पूर्ण जीवन देखती, शरीर नश्वर पर सतत आत्मा-प्रवाह
बस चोला बदल, पुराने वस्त्र नकार नव-काया प्रवेश फिर एक निश्चित काल।
जीवों की निरंतरता से जीवन सतत स्पंदित, हाँ देह के सुख-दुःख भोगने पड़ते
मानसिक क्षोभ-प्रसन्नता-लोभ-मत्सर-काम-क्रोध गुजरना है सब स्थितियों से।
यहाँ विज्ञान चर्चा न, जो मन-क्रिया व
धार्मिक 'आत्मा' में ज्यादा न भेद करती
विचार मस्तिष्क-मन-सोच देह-अवधि तक ही, इसके साथ ही विनिष्ट यह भी।
हिन्दू धर्म में मृत्यु बाद भूत कह देते, या मुक्ति पर परमात्मा संग मिल जाना
सभ्यताओं की निज मान्यताऐं, पर इतना अवश्य जीव दुनिया से बिछुड़ता।
हम सब पञ्चभूतों से निर्मित, सदा अवयव क्षयित-नवनिर्माण होता रहता
हाँ कुछ भी हो जन्म-मरण मध्य अवधि ही होती महत्त्वपूर्ण व
कार्मिक।
सच तो अधिक ज्ञात भी न बस कयास लगा लेते, दिया एक शब्द लिख
भारतीय दर्शन की आलोचना न विषय, पर कहना चाहता जिज्ञासु मन।
मैं सत्य की अपेक्षा इस दर्शन की उपयोगिता देखने का करता प्रयत्न
हम कर्मों अनुसार प्राणी-जन्म व पश्चात काल को मानते जीवन यापन।
कहते कि हम इस मन को साधकर, अपने कर्मों को उत्तम बना सकते
सुभीते भविष्य की आकांक्षा चाहे कष्टक ही, वर्तमान से गुजर सकते।
एक मनीषी ने देखा अधिकांश बहुदा कष्ट में, कुछ को सुविधाऐं भी प्राप्त
लोगों की समृद्धों से घृणा-कुत्सा, डाह-विद्वेष, कैसे मनोदशा सुधारी जाय?
वस्तुतः कर्म-सिद्धांत ने जन्म आधार पर ही मनुज को श्रेष्ठ-निम्न लिया मान
और कि वर्तमान पुराने कर्मों का परिणाम, अतः शांत रह ही करो निर्वाह।
विषाद विषय, भारतवर्ष में आकर निवासित अनेक जाति-समूहों में गए बँट
बाहर से वे पृथक ही आऐं, परिवेश ने बलबूता देख उपाधि दी जाति एक।
कुछ अपनों से संपर्क बना लिए, रक्त-रिश्ता बना, गुजारा सहयोग से ही
कुछ युद्ध-बंधक निम्न कार्यों में धकेले, शनै वे भूल गए पूर्व बेहतर स्थिति।
जब जीवनों में घोर असमानता, भूखे-कंगाल-वंचित-उपेक्षितों के प्राण दूभर
वे विश्व प्रति नकारात्मक भाव ले विचरते, अवसर मिले तो हानि में भी समर्थ।
अन्यों से अपनी हीन दशा तो असहनीय, निज-व्यथा यदा-कदा रोष प्रकट भी
एक बड़ी गुत्थी जब तक स्वार्थ न
सिद्धि, तो अन्यों की करते रहते वंचना ही।
यह जाति-विभेद क्या, कुछ सक्षम अवस्था में, साधन-बुद्धि ज्ञान या ताकत के बूते
अपनी अर्जित संपदा-सम्मान या उच्च स्थिति न बाँटना चाहते, सब बँटोर रख लें।
यदि अन्यों की भिन्न प्रवृत्ति तो एक विशेष मनोदशा बनी, स्वीकृति-अस्वीकृति की
अर्थ कि नर में निचले स्तर पर कई वहम पले पड़े, अंदर से सब सुलगती अग्नि।
दुनिया में भिन्न स्थानों पर अनेक कबीले, छोटे-बड़े समूहों में ही रेलते -धकेलते
पड़ोसी से संघर्ष चलता रहता, किसी सामूहिक विपत्ति पर संगठित भी हो लेते।
आदिवासी जन वन-पर्वतों में रोटी-बेटी का संबंध, प्रायः जोड़ते निज जैसों से ही
ये कबीले भिन्न समयों पर भारत भूमि प्रवेशित, एक पहचान संग निज अदनी।
जब अन्य विलग तो कुछ सकपकाना स्वतः, निज उच्चता में अनधिकृत प्रवेश न
बल-व्यवहार अनुरूप ही आदर, शुरू में दूरी का यत्न, क्यों मिलाऐं अनावश्यक।
संबंध वस्तुतः स्व-लोलुपता अनुरूप ही, हाँ बल वृद्धि हेतु अपने जैसों को मिला लो
शनै एक पृथक पहचान एक बड़े संघ में लुप्त, पर उस भाँति स्वीकार्य न सभी तो।
मेरा मानना ये जाति-समूह पहले के पृथक कबीले, जो पहचान सी रखते हैं निज
जैसे सभ्यता विकसित परस्पर बहु सहयोग अपेक्षित, विभेद न्यूनीकरण का यत्न।
निम्न स्तर पर प्रजा तो बहुतायत में थी, साधन-संपन्न -मंत्री -राजा -सैनिक कम ही
सब में कुछ बुद्धि, वर्तमान स्थिति में न खुश, संपन्नों को उसके लिए मानते दोषी।
अब बड़ों में कुछ अति विद्वान युक्ति-कर्ता, सामाजिक आयामों पर भी दृष्टि विशेष
पेचीदिगियों के हल ढूँढ़ने की कोशिश, जो अन्यथा समस्याऐं कर सकता उत्पन्न।
धार्मिक व्याख्याऐं भी ऐसी, आमजन को समझा-बुझाकर शांत करने का प्रयास
नर सहता रहे पर आशा भी रखे, आत्मा-परमात्मा के कर्म-सिद्धांत का समाधान।
अतिरिक्त अपने के गुजरने पर परिजन अति क्षोभित, सहन-शक्ति से बाहर भी
एक जटिल त्रासदी पालनहार चला गया, यादों में बसा शाश्वत मानना उपयोगी।
एक सिद्धांत सब यहीं है, अन्य रूप में आऐंगे अतः प्राणी मात्र हेतु न करो दुःख
फिर दूजों के कष्टों प्रति सहानुभूति रख लो, सबको उसी स्थिति में जाना कल।
कोई भी प्रतिपादित सिद्धांत एक काल की धारणा, कुछ को विश्वास या अमत
भारत में भिन्न समूहों की निज या अन्यों की स्थिति संबंध में मनोविचार हैं स्व।
वही स्वीकार्य जो है उचित लगता, बाहरी दुनिया की बहु व्याख्याऐं सुहाती न
टिप्पणियाँ स्वार्थानुसार, अधिक धार्मिक न, रूढ़िवादिता अपरिपक्वता-चिन्ह।
मनीषी अन्यों को देखते हुए, कुछ सिद्धांत प्रतिपादित करने का यत्न करते
मैं मानता कि कोई भी वाद पूर्ण न, बस कयास-तर्कों सहारे हम उसे पोसते।
चाहते कि अन्य सब स्वीकार लें पर यदि कोई न
माने, तो भी न क्षोभ अधिक
तभी एक ही स्थल अनेक मान्यताऐं प्रचलित, जो अच्छा लगता स्वीकार वही।
महात्मा गाँधी कहते जग में जितने मानव उतने ही धर्म, अतः विभिन्नता स्वीकृत
लोग स्वयं में पूर्ण, एक कुल-परिवेश में जन्में-पनपे भी, मनोविचार रखते पृथक।
'एक बेल पर बारह कचरी कोई मीठी कोई खारी', सबके पृथक गुण, इकट्ठे भी
अतः पूर्ण होते भी भिन्न पर व्यवहार में अनेकों टकराव, करते हैं सहयोग भी।
पर समुचित मानवता के एकसूत्रीकरण हेतु, अति साहस की है आवश्यकता
मनीषी विवेक से पृथकता समेकित कर, कमोबेश स्वीकृत सिद्धांत बताता।
ब्रह्म-स्वरूप भी ऐसी ही कल्पना कि सब जीव-चराचर इसी विशाल का अंश
भू-सामग्री से निर्मित खाया-पीया, क्षयित, यहीं अवस्था-परिवर्तित किसी अन्य।
यह विपुल विश्व हमारा घर, 'अव्वल
अल्लाह
नूर
उपाया
कुदरत
के
सब
बंदे',
दुनिया में व्यर्थ के ही विरोध, 'एक नूर से सब जग उपजा कौण भले कौण मंदे'।
सबका बड़ा पिता वही ईश्वर, विभिन्न धर्म पृथक नाम देते, सब उसी की संतान
ये बाह्य विभेद बहु मात्रा में प्रचलित हैं , पर ज्यादा आवश्यकता न देने की ध्यान
हमें सशक्त अंतः पहचान बनानी, जब स्व-स्वीकृत तो अन्य भी करेंगे सम्मान।
सभ्यता-संस्कृति का दैनंदिन लोक -चरित्र, हमें एक विशेष स्तर करता प्रदान
फिर आगे बढ़ निर्मल सिद्धांत अपनाने चाहिए, जो सामूहिकता की करें बात।
सभी के अंदर निम्न-उच्च बिंदु, जो इतने महत्त्वपूर्ण हैं पर जुड़ने की करें बात
जग में अनेक महामानव सदैव उदित, वे धन्य जो संपूर्णता का करते संवाद।
पवन कुमार,
१९ दिसंबर, २०२० शनिवार, समय १८:१८ बजे सायं
(मेरी डायरी दि० १९ सितंबर, २०२०, शनिवार, समय १०:५१ बजे प्रातः)