कर्म-सिद्धांत मनन
सुयश प्राप्ति भाग्य-अनुकंपा या आशीर्वचन
है, मनुज को बस सहज होना माँगता
अपनी ओर से
तो कसर न
छोड़े, फिर कुछ मिलेगा ही, जैसे बोवोगे वैसा
मिलेगा।
कर्म-सिद्धांत अति-सरल दर्शन, शीघ्र समझ आता, तथापि प्रक्रिया-पेचीदिगियाँ कई
सर्वस्व बड़े मेले में धकेला, सब
निज झुनझुने बजा रहें, किसी को न सुन रहा कोई।
कह सकते एक बड़ी प्रतिद्वंद्विता
सी, लोग स्व प्रवृत्तियों अनुसार इधर-उधर दौड़ रहें
स्वार्थ उत्तम उस हेतु बुरा, पक्षपात-असत्य
आचार, सब छल-प्रपंच जटिलता बढ़ाए।
चलो कर्म-सिद्धांत पर चर्चा-यत्न करते,
मनुज को मान्यताऐं संभालने की है जरूरत
अपनी निकट-परिस्थितियों में ही प्रायः उलझा, पूर्ण-परिप्रेक्ष्य शायद ही कभी दर्शन।
जो तुम हेतु अच्छा अन्य उससे विपरीत प्रभावित हो रहा, यहाँ हानि तो वहाँ है लाभ
कौन सर्वोत्तम कर्म सर्वहित में कि समस्त कायनात का भला हो, मुश्किल पहचान।
वस्तुतः हम अल्प-बुद्धि प्राणी
हैं,
घोर स्वार्थों में घिरें, मात्र अपने ही लाभ की सोचते
व्यापार बढ़ाना चाहते जो किञ्चित उचित भी, पर अन्य के लाभ-द्वार रुद्ध
ही होते।
कार्यालय-फैक्ट्री-खेत-गाँव बनने शुरू हुए तो वन-क्षेत्र हानि, अनेक प्राणी विलुप्त
समुद्र-दोहन तो अनेक मत्स्य-कच्छप-सरीसृप-व्हेल-सील आदि पर विलोम असर।
हर चीज की एक कीमत जो चुकाना माँगती है, उसमें तुम्हारा क्या रोल बात अलग
वर्षा है तो किसान
प्रसन्न
भूमि में जल रिसेगा, फसलें उठ खड़ी हो जाऐंगी एकदम।
उधर मृत्ति-कुंभकार, भट्टे वाले परेशान
हैं
सब मिट्टी हो गया, पानी हो गया सारा श्रम
अमीर वातानुकूलित घरों में आराम करते, गरीब अति गरमी-सरदी से मरते बेहाल।
एक प्रक्रिया
से लाभ में, दूजा हानि में, यहाँ बड़े संस्थान
तो वहाँ मूलनिवासी उजड़े
एक
जीव दूजे का भक्षण है, हम अनेक जीवों को नित्य
निर्दयता से मारकर खाते।
नरभक्षी या जंगली-खूँखार
से हम कतई भी न
कम, परोक्ष-अपरोक्ष हिंसा ही करते
फिर धर्म-गुण आवरण
का मुखौटा पहनते, जबकि सब भाँति के अवगुणों में फँसे।
यहाँ शक्ति-प्रदर्शन, निर्बल
लोगों पर सब अस्त्र चलते, अबलाओं की लुटती अस्मत
सब प्रपंच
सर्वत्र, निरीहों को ही घेरते, बली प्रायः सामना करता या छेड़ते ही न हम।
पेड़ कटते, भवन बनते, अनेक
जंतु-पंछी-कीटों का डेरा स्थायी रूप से जाता उजड़
जनवृद्धि से
विलोम प्रभाव,
CO2 स्तर बढ़ा, गर्मी से समुद्र-तल उठा,
किनारे रहें डूब।
प्रायः कर्म एक अमुक द्वारा कृत ही मानते, पर सामूहिक तौर पर भी घोर अन्याय रत
या तो असमझ या मात्र स्वार्थ ही, अन्य की न परवाह या वह क्या करे हमें न मतलब।
यहाँ सर्वस्व विषयाश्रित, लघु उद्देश्यों तक सीमित, भविष्य या प्रतिक्रिया-परवाह न भी
हमारी दुनिया कुछ चंद स्वार्थ-जमावड़ा
है, सब परस्पर होड़ में, आगे निकलें कैसे ही?
मान सकते कि हम दो स्तरों पर काम करते, एक व्यक्तिगत व दूसरा सामूहिक स्तर
निज विद्या-प्रशिक्षण, परम-परांगत गुण आदि अनुरूप ठीक-गलत करते विश्लेषण।
पूर्णतः तो नितांत न जानते व न कोशिश करते, जैसा समझ आया व्यवहार लिया कर
प्रायः हम चीजों संग बह जाते कोई अडिग मूल्य नहीं
रखते, वर्चस्व हेतु करते सर्वस्व।
जग
में उम्र-अनुभव संग संयत का यत्न
है, कमी बावजूद थोड़ा शुभचरण-यत्न करते
कुछ मन में मान लेते ठीक ही करते
हैं, स्वयं को उचित करने का हर उपाय ढूँढ़ते।
बाह्य दुनिया
तो हमें अपनी वक्र दृष्टि से आँकती, उसे मानो सब
प्रपंच समझ आ रहें
किंतु
वह प्रायः सकुचाती, क्योंकि अतएव सकल भाँति के
गुण-दोषों में फँसी पड़ी है।
कुछ दार्शनिक सब व्यवहारों पर
चिंतन करते हैं, कुछ समानता ढूँढ़ने की कोशिश
उनको
यह
विश्व-शैली स्पष्ट दिखती, घटनाओं पर प्रतिक्रिया को उससे जोड़ते फिर।
मनुज
यदि सरल तो घोर क्लिष्टता में न पाशित, तो अधिकांशतः जीवन भला गुजरता
प्रपंचकारी
तो
अनेक मन-वितृष्णाओं में फँसा रहता, कहीं न कहीं अटक ही जाता।
प्रकृति की भी कुछ दया, डर या समझकर
हम उत्तम सर्वहित व्यवहार करने लगते
वस्तुतः अंतःज्ञान है कि हम निर्बल,
एक नियमाधीन, व अस्तित्व-रक्षा का यत्न करते।
किंचित
सद्नीयत देखकर ही प्रकृति हमारी मदद करती
है, उसे सौभाग्य सकते कह
वास्तव
में
तो व्यवहार उत्तम ही होना चाहिए, सद्कर्मों को यश मिलना स्वाभाविक।
कुछ
विवेक-प्रखरता चाहिए, महद
स्तर पर दृष्टि-प्रयास, तो बड़ा हित-स्थापन संभव
इस विराट यज्ञ में अपनी
भूमिका
बनाओ, अंतः में सुभीता करने का होगा अनुभव।
यथासंभव विसंगतियों से बचो, प्रकृति संग खड़ी होगी, बड़ा हित
ही होगा हस्त-सिद्ध
यश तो
सुकर्म से ही प्राप्त है, कुछ करते रहो, अपनी और यथासंभव बनोगे उत्तम।
पवन कुमार,
२० फरवरी, रविवार समय २२:३२ बजे रात्रि
(मेरी डायरी १० जुलाई, २०२१ शनिवार, समय ६:४९ बजे प्रातः से)