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तदुपरांत
गौरी ने अपनी सखी को दिया निर्देश
एकांत
में विश्वात्मा* को इस रहस्य का देने संदेश।
कि
विवाह-हेतु मेरा दाता है गिरिराज हिमालय
अतः
वे ही माने जाए, विषय में साधक* इस।१।
विश्वात्मा*
: शिव; साधक* : प्रमाण
उस
सखी द्वारा प्रिय* को संदेश प्रेषित
व
उस पर दृढ़-विश्वास कर, हुई
निश्चिंत।
जैसे
प्रतीक्षित नव आम्र-शाखाऐं कोकिला-मुख से
गान सुनकर कि मधु निकट है, हो जाती आश्वस्त।२।
प्रिय*
: शिव
काम
पर शासन करते हुए उस शिव ने
'ऐसा
ही होगा' प्रतिज्ञा करके कष्ट* से।
किसी
तरह उमा से विदाई ली, पश्चाद
उसने ज्योतिर्पुंज सप्तर्षि* सुमिरें मन में।३।
कष्ट*
: कठिनता; सप्तर्षि* : वशिष्ठ, भारद्वाज, जमदग्नि,
गौतम,
अत्रि, विश्वामित्र एवं कश्यप
निज प्रभा-मण्डल
से
व्योम
को कान्तिमान करते।
तुरन्त प्रस्तुत
हुए तपोधनी सप्तर्षि
संग
अरुन्धती प्रभु के पुर में।४।
आकाश-गंगा
प्रवाह में गोता लगाते
जहाँ
दिग्गज-मद से गन्ध निकलती है।
तीरों
पर उगते कल्पतरु कुसुमों को,
उसकी
तरंगें धारण करती हैं।५।
मौक्तिक
यज्ञोपवीत किए धारण,
सुवर्ण
वृक्ष-छाल वस्त्रों में, व पहने माल्य।
कल्पतरु
सम प्रतीत होते, संसार तजते हुए
उन्होंने किया ग्रहण है वानप्रस्थ आश्रम।६।
ध्वज
झुकाए सहस्र-रश्मि*,
अपने
अश्वों को किए नीचे ।
और
प्रणाम करने हेतु जिनको
देखता
ऊपर की ओर है।७।
सहस्र-रश्मि*
: भास्कर
कल्पान्त*
समय महावराह-दंतों पर
जल-प्लावन
से धरे गऐं पृथ्वी संग।
वे
लता सम आसक्त* बाहुओं से
पकड़कर
करते थे निलय*।८।
कल्पान्त*
: महाप्रलय; आसक्त* : क्षीण; निलय* : आराम
विश्वयोनि-ब्रह्म
बाद सृष्टि का
शेष
निर्माण करने के कारण।
पुराविदों
द्वारा पुरातन-कर्ता
के रूप में उनका है आदर ।९।
और
जो यद्यपि पूर्व-जन्मों के अपने
विशुद्ध
तप-फलों का आनंद हुए लेते।
जो
फलीभूत हुए अभी हैं
तथापि तपोनिष्ठ ही
हैं रहते।१०।
उन ऋषियों
मध्य साध्वी अरुन्धती,
दृष्टि
पति-पादों में अर्पित किए अपनी।
अति
दीप्तिमान है, जैसे वह सिद्धि-
तप
की है साक्षात मूर्ति।११।
ईश्वर
ने उसको व मुनियों को अगौरव भाव से देखा
स्त्री
एवं पुरुष में कोई ऐसा भेद नहीं जाता देखा।
क्योंकि
साधुओं का चरित्र ही
मात्र
सम्मानीय है होता।१२।
शम्भु
में उस अरुन्धती के दर्शन द्वारा
दारा-परिग्रहण
हेतु इच्छा बहुतर हो गई।
क्रिया
में धर्म-कार्यों का निश्चय ही
मूल
कारण है सद्-पत्नी।१३।
धर्म
द्वारा ही शर्व* के
कदम
पार्वती प्रति बढ़े।
साँस
ली आशा की तब पूर्व-
अपराध से भीत काम-मन ने।१४।
शर्व*
: शिव
आनंद
से त्वचा के रोऐं खड़े हुए,
वेद-वेदांग
पारंगत उन मुनियों ने।
यूँ
कहा, जगत-गुरु का
सम्मान करते हुए।१५।
वेद
जो हम द्वारा अध्ययन किए गए हैं,
यज्ञ
जो अग्नि में किए गए विधिपूर्वक।
और
तप हमने किए हैं, होते हुए तप्त,
आज परिपक्व तुम द्वारा इन सबका फल।१६।
हे
जगतों के अधिपति ! हम
सब
तुम्हारे द्वारा निर्मित हैं।
हे
ब्रह्म को भी मन में रचने वाले !
तू बाह्य वस्तु है, हमारे मनोरथ से।१७।
वह
जिसके चित्त में तुम हो बसते,
निश्चय
ही सब भाग्यशालियों में श्रेष्ठ है।
फिर
भी क्या कहिए उसके विषय में जो
बसता
तुम ब्रह्म-योनि के मन में।१८।
सत्य
ही उच्च पद पाया है
हमने
अर्क* और सोम* से।
परन्तु
आज वह हो गया उच्चतर
तेरे स्मरण करने के अनुग्रह से।१९।
अर्क*
: सूर्य; सोम* : चन्द्र
तुम्हारे
द्वारा संभावित सम्मान से
अपने
बारे में हम सोचते महान हैं ।
प्रायः
श्रेष्ठतरों द्वारा दिए सम्मान से
स्वगुणों प्रति होता आदर उत्पन्न है।२०।
ओ
विविध-अक्षियों वाले ! विदित नहीं है कारण
क्या
सम्भव है तुम्हारे द्वारा हमें स्मरण होने से?
तुम तो प्राणी-आत्माओं में रहते हो
पूर्वेव
से।२१।
तुम
साक्षात् दृष्टिगोचर हो व तथापि हम
तुम्हें
तुम्हारी सत्य-प्रकृति में न जानते हैं।
कृपया
प्रसन्न होवों व
अपने मन की कहो
क्योंकि बुद्धि-पथ से न जाने सकते हो।२२।
तीन
में से कौन सा तुम्हारा रूप है?
क्या
जिसके द्वारा विश्व सृजन करते हो,
या
जिसके द्वारा इसका पालन करते हो,
या
तत्पश्चात, जिससे इसका संहार करके
मूल
रूप में पुनः लाते हो?।२३।
अथवा
हे देव! हमारी चाहे
महती
प्रार्थना एक ओर दो रहने।
प्रथम
जो तेरी
इच्छा से है उपस्थित,
आदेश
करो कि हम क्या करें?।२४।
तदुपरांत
परमेश्वर ने
मौलि-स्थित
इंदु की तन्वी* प्रभा।
अपने
दन्तों की शुभ्र - रश्मियों से
बढ़ाते
हुए यूँ उत्तर दिया।२५।
तन्वी*
: अल्प
तुम
सबको विदित है जैसा कि
मेरी
प्रवृत्ति स्वार्थी न है कोई भी।
मेरी
अष्ट-मूर्तियों* में निश्चय ही
मैं सूचित
हूँ भाँति इस ही।२६।
* अष्ट-मूर्ति:
क्षिति (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, यजमान, सोम एवं सूर्य
जैसे
तृष्णा आतुर चातक हेतु वृष्टि
प्रतीक्षा
करता तड़ित्वान मेघ की।
ऐसे
ही शत्रु द्वारा पीड़ित देवों द्वारा
पुत्र-उत्पादन हेतु है, याचना मेरी।२७।
इस कारण
से पुत्र-उत्पन्न हेतु मैं पार्वती की
अतः इच्छा
करता भार्या रूप में लेने की।
जैसे
एक यजमान यज्ञ-हवियों हेतु
कामना करता अरणी*
प्राप्ति
की।२८।
अरणी* : अग्निकाष्ठ
आप
मेरे इस अर्थ हेतु माँगो
पार्वती
को हिमालय से मिल।
सदुनिष्ठों*
द्वारा कल्पित कृत्य
विलोम परिणाम
न लाते सम्बन्ध।२९।
सदुनिष्ठ*
: शुभेच्छु
जानिए
कि उस हिमवान के संग
सम्बन्ध
में मैं भी नहीं हूँ भ्रमित।
वह
उन्नत, स्थितमता* व
करता है पृथ्वी-भार वहन।३०।
स्थितमता*
: धैर्यवान
उसकी
कन्या हेतु कैसे वार्ता करनी,
आपको
उपदेश की है आवश्यकता न।
क्योंकि
साधु भी आपके द्वारा नियत
करते हैं आचार-नियमों का पालन।३१।
आर्या*
अरुन्धती भी वहाँ
व्यापार*
करने में है समर्थ।
प्रायः
इस तरह के कृत्य में
गृहिणियाँ होती हैं निपुण।३२।
आर्या*
: पूज्या; व्यापार* : सहायता
तब
आप हिमवत्पुरम के औषधिपुरम
नगर
को कार्यसिद्धि हेतु पड़ो निकल।
होगा
हमारा संगम पुनः
महाकोशी नदी-प्रपात ही पर।३३।
संयमियों
में प्रमुख शिव
हो
गया परिणयोन्मुख जब।
तो
ब्रह्म-उत्पन्न अन्य तपस्वियों ने भी
भार्या
न लेने की लज्जा दी तज।३४।
उसके
बाद 'ॐ', ऐसा कहकर
मुनिमण्डल
ने प्रस्थान किया।
भगवान
भी पूर्व संकेतित
महाकोशी-प्रपात को प्राप्त हुआ।३५।
वे
परम ऋषि भी मन की गति से
और खड़ग
सम श्याम गगन में।
उड़कर
उछाल लगाते
पहुँच औषधिपुरम गए।३६।
समय
के साथ नगर, जो यहाँ था बसाया गया
जैसे
अलका-नगरी उपनिवेश ही प्रतिस्थापित हो।
जो
वैभव-सम्पदा का केंद्र हो और जैसे स्वर्ग से
अतिरिक्त विदाई कारण जन आ बसे यहाँ हों।३७।
जो
गंगा-स्रोत से परिलक्षित* हुई है,
जिसके
प्रान्तर* में औषधियाँ चमक रही।
बृहत
मणिशिलाओं से, जिसकी भित्तियाँ* बनी
और
मनोहर हैं गुप्त सुरक्षा स्थल भी।३८।
परिलक्षित*
: घिरी; प्रान्तर* : दुर्ग; भित्तियाँ* : दीवार
जहाँ
हस्ती हैं सिंह-भय विजित,
जहाँ अश्व बिल
योनि* के हैं।
यक्ष
व किंपुरुष जहाँ के नागरिक
और
वन देवी
योषिताऐं हैं।३९।
योनि*
: प्रजाति
जहाँ मेघ-सिक्त
शिखर वाले निकेतन में
मृदंग-ध्वनि प्रतीत, मेघ-गर्जना सम है।
और
केवल उनकी थापों ही द्वारा
अंतर
किया जाना संभव है।४०।
जहाँ
नागरिकों द्वारा भवनों के ऊपर
फहराने
हेतु श्री-पताका निर्माण आवश्यक न।
निज चंचल
लहराते विटप-पल्लव अंशुकों ही से
ध्वज
की सुंदरता प्रदान करते हैं कल्प-वृक्ष।४१।
स्फटिक
मणि-जड़ित महलों के
मद्यपान
हेतु कक्षों में जहाँ।
रात्रियों में नक्षत्रों
का प्रतिबिम्ब
पुष्प-उपहार सम प्रतीत होता।४२।
अभिसारिकाऐं मेघाच्छादित
निशाओं में भी
जहाँ
घोर अंधकार से हैं रहती अनभिज्ञ।
क्योंकि
उनके प्रेमियों के पास ले जाने वाले पथ
चमचमाती औषधि-प्रकाश से रहते हैं दर्शित।४३।
जहाँ
वय* केवल यौवन अंत तक बढ़ती है,
जहाँ
काम-बाण के अतिरिक्त कोई मृत्यु न।
केवल
रति - खेद* निद्रा ही
जहाँ बनाती है संज्ञा-शून्य।४४।
वय*
: आयु; रति-खेद* : काम-सुख स्खलन
जहाँ
ओष्ट कम्पित, भृकुटि चढ़ाती,
ललित
उँगली-संकेतों से कोप करती।
प्रेमी
याचना करते वनिताओं से
जब तक वे प्रसन्न न हैं होती।४५।
और
सुवासित गिरि गन्धमादन
बाह्य
स्थित हैं जिसके उपवन।
स्वर्गिक
सन्तानक* तरु-छाया
में सोते हैं यात्री विद्याधर।४६।
सन्तानक*
: चम्पक
इसके
बाद उन दिव्य मुनियों ने
हिमवत्पुरम
को देख उसे भ्रम से।
स्वर्ग-नगरी
मानते हुए अपने यज्ञादि,
पवित्र संस्कार
की सोची करने।४७।
उन्मुख
द्वारपालों को देखकर
अग्निवर्ण
की निश्छल सहित जटाभार।
वे
मुनि गिरिपुरम में आकाश से
गति
से हुए अवरोहण।४८।
वरिष्ठों
का अनुसरण करती आकाश से
उतरी
मुनि-परम्परा* सरोवर नगर के ।
भास्कर
के प्रतिबिम्बों सम वह
जो चमकती दिखती
जल में ।४९।
मुनि-परम्परा*
: श्रृंखला
सार-गुरु*
सहित पदन्यास से
वसुंधरा
दबाते गिरिराज दूर ही से।
उनकी
आवभगत एवं पूजा करने
हेतु
अर्घ्य लेकर बढ़ा आगे।५०।
सार-गुरु*
: महद देह
ताम्र-वर्णी
अधर, उन्नत देवदारु सम
वृहद
बाहु, शिला सम बली वक्ष-स्थल।
स्वभाव
से ही वह हिमवत
रूप
में था सुव्यक्त।५१।
शुद्ध
कर्मों से उस हिमवान ने
शास्त्रोक्त
विधि द्वारा सत्कार से ।
उन
मुनियों को स्वयं प्रवेश कराया
मार्ग दिखाते हुए अन्तः-पुरम में।५२।
दिव्य
विभूतियों को विराजमान
वहाँ
कराकर वेत्रासन* पर।
उस
भूधरेश्वर ने भी आसन लेते अंजलि-बद्ध
अपनी
वाणी द्वारा उवाच किया यह।५३।
वेत्रासन*
: बेंत का आसन
आप
सबका दर्शन मुझे प्रतीत होता
ऐसा
जैसे है बिन मेघ-उदय के वर्षा।
तथा
बिना कुसुम के फल और मैं
कोई कारण न सोच पा हूँ रहा।५४।
आपके
इस अनुग्रह से मुझे है लगता
जैसे
बुद्धि में प्रकाशित
हूँ गया मूढ़ से।
और
जैसे सुवर्ण-आरूढ़ हो गया लोह से
और
जैसे भूमि से देवलोक में।५५।
होकर
आज से प्रारम्भ
आऐंगे
शुद्धता हेतु प्राणी मेरे निकट।
क्योंकि
जिसे आराधना हेतु अधिष्ठित
किया
जाता, उसे कहते हैं तीर्थ।५६।
ओ
द्विजोत्तम ! अपने को मैं
दो
तथ्यों से पवित्र लगा हूँ मानने।
एक
तो मेरी मूर्धा* पर गंगा-प्रपात
और दूजे तुम्हारे धुले पाद-जल से।५७।
मूर्धा*
: शीर्ष
मैं
अपनी द्विरूप वपु* में भी
स्वयं
को विभक्त* मानता अनुग्रहित।
जंगम
तुम्हारे दास के रूप में है और
स्थावर में तुम्हारे चरण हैं अंकित।५८।
वपु*
: देह; विभक्त* : पृथक
आपके
इस अनुग्रह की संभावना से
उठकर
मेरे दिगन्त व्याप्त अंग भी।
वर्धित*
आनंद समाने में असमर्थ,
और हुए
जाते हैं मूर्छित।५९।
वर्धित*
: बढ़ते
आप
विवस्वतों* के दर्शन से न केवल
दूर
हो गया है मेरी गुहाओं का तम।
अपितु
रजस से भी परे मेरी
अन्तरात्मा का तम गया है हट।६०।
विवस्वत*
: भास्वत, तेजस्वी
मैं
तुम हेतु कोई कर्त्तव्य न देखता और यदि
कुछ
ऐसा, तो क्या असम्भव इच्छा द्वारा?
मैं
मानता हूँ आपका आगमन यहाँ
मुझे पावन करने हेतु ही है हुआ।६१।
तथापि अपनी
कोई भी आज्ञा
कृपया
मुझ किंकर* को देवें।
क्योंकि
प्रभुओं की विनियोग*
को
ही अनुग्रह मानते हैं।६२।
किंकर*
: भृत्य, सेवक; विनियोग* : आज्ञा
ये
हम अर्थात मैं, दारा मेना व यह
कुल
प्राणभूता* कन्या है प्रस्तुत।
बोलो,
आप लोगों का यहाँ कार्य शेष या है इच्छा
किसी बाह्य-वस्तु* की, किंचित न
होगा अनादर।६३।
प्राणभूता*
: जीवन; बाह्य-वस्तु* : सुवर्ण, रत्न आदि
ऐसा उवाच
हिमालय का
गुफा-मुख
से था गूँज रहा।
जैसे दो बार प्रतिध्वनित है होता।६४।
तब
ऋषियों ने कथा-प्रसंगों में प्रगल्भ
अंगिरस
को उवाच हेतु की प्रार्थना।
उसने
भूधर को यूँ उत्तर दिया।६५।
यह
सब जो कहा तुमने,
तुम्हारे
ही हेतु है लाभ अतिरिक्त।
तुम्हारा
उन्नत-मन व शिखर-उच्च
दोनों
ही हैं सदृश।६६।
निश्चय
ही स्व-स्थावर
रूप में
विष्णु
जाते हो कहे तुम।
क्योंकि
कुक्षि* सब चर-अचर
प्राणियों का आधार गया है बन।६७।
कुक्षि*
: उदर
शेष
नाग अपने मृदु मृणाल* जैसे
फणों
द्वारा पृथ्वी धारण में सक्षम कैसे?
यदि
तुम रसातल* मूल तत्व से
उसे पादों द्वारा अवलंबन न देते?।६८।
मृणाल*
: कमल; रसातल* : पाताल-पर्यन्त
तुम्हारी
कीर्ति और समुद्र ऊर्मियों से
अविच्छन्न,
अदूषित व सरिताऐं अबाधित।
निज पुण्यों
द्वारा लोकों को करती हैं पवित्र।६९।
परमेष्ठिन*
पदों ही द्वारा
जैसे गंगा
की है श्लाघा।
वैसे
ही तुम्हारे उन्नत भाल के
द्वितीय प्रभाव* से उसकी है प्रतिष्ठा।७०।
परमेष्ठिन*
: परमेश्वर; प्रभाव* : स्रोत
हरि
की महिमा वामन अवतार में
ऊर्ध्व*-
अधम* पार सर्व-व्याप्त है।
जब
वह तीन कदम भरने को तैयार,
तो
ऐसा ही तुम्हारा स्वभाव है।७१।
ऊर्ध्व*
: आकाश; अधम* : पाताल
तुमने
यज्ञ, भोजन,
भाग
का आनंद लेने
वालों
के मध्य अपना स्थान लिया है बना।
जिसके
समक्ष नगण्य है, सुमेरु
पर्वत के
उच्च
हिरण्मय* शृंगों*
की प्रधानता।७२।
हिरण्मय*
: सुर्वणमयी; शृंग*
: शिखर
सारी
कठोरता तुमने अपने
समा
रखी है स्थावर ही रूप में।
परन्तु आराधना
संग तेरी यह वपु भक्ति में
नम्र हो सभी साधु कृत्यों हेतु समर्पित है।७३।
किस
कार्य हेतु हमारा यहाँ आगमन हुआ है,
तब
सुनो, यह कदाचित तुम्हारे लिए ही है।
हम
तो यहाँ श्रेयस कार्यों में मात्र
उपदेश
देने में सहभागी हैं।७४।
वह
जो अर्धचन्द्र सहित 'ईश्वर'
शब्द
द्वारा पुकारा है जाता।
अणिमा* आदि
गुणों से सुशोभित है
और जो अन्य नरों पर लागू न होता।७५।
अणिमा* :
एक सिद्धि - योगी द्वारा
अणु के समान सूक्ष्म शरीर धारण करना
(अष्ट-सिद्धि : अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्वं एवं वशित्वं)
आत्मा
में परस्पर सामर्थ्य बढ़ाते हुए
विभिन्न
पृथ्वी आदि जिस शम्भु द्वारा।
अष्ट-मूर्तियों
द्वारा विश्व धारण किया जाता
व जैसे अश्वों द्वारा पथ पर वाहन खींचा
जाता।७६।
जिसको
योगी खोजते हैं
और
देह-अभ्यान्तर* में वास करते।
तथा
मनीषी घोषणा करते कि निवास
उसका स्वतंत्र है करता पुनर्जन्म भय
से।७७।
अभ्यान्तर*
: हृदय
विश्व-कर्मों
के साक्षी और
इच्छित
फल वरदान देने वाले।
उस
शम्भु ने तुम्हारी दुहिता को
माँगने का कार्य सौंपा है हमें।७८।
उस
शम्भु की वाणी* हेतु ही हम
तुम्हारी
सुता-योग की करते इच्छा।
निश्चय
ही कन्या को उत्तम वर को
सौंप कर पिता नहीं पछताता।७९।
वाणी*
: वचन
स्थावर-जंगम*
प्राणियों द्वारा तुम उस
उमा
को माता रूप में कल्पना दो करने।
क्योंकि
जगत-पिता ईश
निश्चय
ही शिव है।८०।
स्थावर-जंगम*
: चराचर
देवों द्वारा नीलकण्ठ को पश्चाद नमन करके;
अपने
मुकुट-मणियों की रश्मियों द्वारा इस
पार्वती-चरणों को रंजित दो तुम करने।८१।
उमा
वधू है, आप विवाह में दाता हो उसके
और
हम इसके लिए याचक हैं, शम्भु है वर।
विधि
पर्याप्त होगी निश्चित ही
कुल-उन्नयन
हेतु तेरी यह।८२।
तुम बन
जाओ निज सुता के सम्बन्ध-विधि द्वारा
विश्व-पिता
के भी तात, जो स्तुत्य है सब द्वारा।
पर
वह किसी की उपासना नहीं करता,
अपितु
सब उसकी करते हैं वंदना।८३।
जब
देवर्षि* यह बोल रहे थे,
पार्श्व*
बैठी पार्वती पिता के।
लज्जावश
लीला कमल-पत्रों को
अधोमुखी
होकर लगी गिनने।८४।
(*
ऋषियों की सात श्रेणियाँ: ऋषि, महर्षि, परमर्षि, देवर्षि,
ब्रह्मर्षि,
कंदर्शी एवं श्रुतर्षि); पार्श्व* : साथ
यद्यपि सम्पूर्ण
हो गई थी उसकी कामना,
पर्वत
ने मुख की ओर देखा मेना के।
कन्यादान
के विषय कुटुम्बी व गृहिणियों के
नेत्र-संकेतों द्वारा प्रायः निर्देशित हैं होते।८५।
मेना
ने भी पति के अति-इच्छित
सब
कार्य की कर दी स्वीकृति ।
भर्तार-अभिलाषित विषयों
में हैं रहती
पतिव्रता नारियाँ अव्यभिचारिणी।८६।
हिमवान
ने इस मुनिव्रत के हेतु उत्तर
बुद्धि
द्वारा न्याय ऐसा विचार कर।
मंगल-अलंकृत
सुता को
लिया अपने
हस्त।८७।
आओ
मेरी प्रिय वत्सा! विश्वात्मा
शिव
हेतु परिकल्पित तुम हो भिक्षा।
मुनि
इसके अर्थी हैं, प्राप्त हो गया
मुझे
यज्ञ-फल गृहस्थी का।८८।
तनया*
को ऐसा कहकर,
महीधर
ने ऋषियों को किया वचन।
यह
त्रिलोचन-वधू आप सबको
करती
है यहाँ नमन।८९।
तनया*
: पुत्री
उनकी
इच्छा आदर करने के कारण,
ऋषियों ने गिरिराज
वचनों की प्रशंसा करके।
अम्बिका
को उन्नति के आशीर्वाद दिए,
जो जल्द ही फलीभूत होने वाले थे।९०।
अरुन्धती
ने लिया ले लज्जामान उमा को अंक।
जिसके
नीचे गिर गए थे शीघ्रता से झुक कर
प्रणाम
करते समय जाम्बूनद सुवर्ण-कुण्डल।९१।
और
तब वर-गुणों का करते हुए गुणगान
जिसकी
पूर्व में कोई और वधू थी अन्य न।
उसने
उमा-माता प्रसन्न किए, जिनका मुख
दुहिता-स्नेह कारण था विकल, अश्रुपूर्ण।९२।
तत्क्षण
हिमवत द्वारा पूछने पर
वृक्ष-वल्कल*
वसन* किए हुए धारण।
हर-बन्धु
उन साधुओं ने विवाह-तिथि की पुष्टि की यह,
कि तीन
दिवस पश्चात होगा, एवं किया प्रस्थान तब।९३।
वल्कल* : छाल; वसन* : चीर
हिमालय
से विदाई लेकर वे पुनः गए शिव के स्थल
निवेदन
किया कि उनका प्रयोजन हो गया है सिद्ध।
उसके
बाद शिव द्वारा विदाई देने पर
वे आकाश-मार्ग को हुए उद्यत।९४।
अद्रिसुता
समागम-उत्सुक पशुपति ने भी,
वे
दिन बिताए कठिनता से बड़ी।
इन्द्रिय-परतंत्रक भावों
से न होगा विचलित कौन अन्य
जब
ये काम भाव स्पर्श करते हैं विभूति को भी?।९५।
इति कुमार सम्भवे
महाकाव्ये उमाप्रदानो नाम
षष्ठः सर्गः का
हिन्दी
रूपान्तर।
पवन कुमार,
२८ नवंबर, २०१५ समय
१८:३२ सायं
(अनुवाद काल २ से
१५ अक्टूबर, २०१५)