मन बिसरत, काल बहत है जात,
बन्दे के कुछ न निज हाथ
विस्मित यूँ वह देखता रहता
है, कैसे क्या हो रहा नहीं ज्ञात॥
हर क्षण घटनाऐं घटित, अनेक
तो हमारे प्रत्यक्ष साक्षात्कार
पर यह इतनी सहज घटित है,
मानो हमारा न हो सरोकार।
हम निज एक अल्प- स्व में
व्यस्त हैं, व जीवन यूँ जाता बीत
निर्मित-नीड़, संगिनी-बच्चें,
कुछ सहचर, यही जिंदगी बस॥
लघु-कोटर में है अंडा-फूटन,
माता सेती, कराया दाना-चुग्गा
अबल से सक्षम बनाकर,
डाँट-फटकार घर से बाहर किया।
फिर पंखों को मिली कुछ
शक्ति, संगियों ने उड़ना सिखाया
इस डाल से उस वृत्त बनाया,
उसे ही पूर्ण-जग समझ लिया॥
अभिभावक- स्नेह, बंधु-सुहृद
सान्निध्य, पड़ोसियों से मेल कुछ
बहुदा बाह्य-मिलन, आपसी
जरुरत, पखेरू अब सामाजिक।
दाना-दुनका इर्द-गिर्द
चुगता, जरूरत पर दूर भी जाते कभी
और विश्व-दर्शन मौका मिलता,
पर वह भी होता अत्यल्प ही॥
कितना समझते हैं
विश्व-दृश्यों को, सब भिन्न पहलू ज्ञात तो न
प्रायः तो न सीधा सरोकार,
फिर क्यों नज़र दौड़ती उस ओर?
माना मन में अति
विवेक-संभावना, तथापि उसको रखते कैद
बाँध लिया छोटे से कुप्पे
में, मुर्गे ने उसको नियति ली समझ॥
सभी शरीरियों के अपने घेरे,
उसी में जमाते अपना अधिकार
अन्य विदेशियों को न
प्रवेश-स्वतंत्रता, धृष्टता पर हो प्रतिकार।
राज्य हमारा तू क्यों आया,
समूह मरने- मारने को तैयार सब
अजनबियों से मेल असहज, आँखों
सदा में किरकिरी- शक॥
माना बहु-स्थान परिवर्तन
विश्व में, अनेक जीव इधर से उधर
सबने ग्राम-नगर बसा लिए,
पड़ोस समकक्षों से किए संबंध।
अपना कुटुंब, जाति-समाज,
संस्कृति-शैली व प्रक्रिया-जीवन
उनमें ही सदा व्यस्त,
आनंदित, जीना-मरना, अतः समर्पित॥
माना जीवन-स्रोत एक सबका, पर
अपने-२ घटक बना लिए
निज को दूजों से पृथक माने,
अकारण प्रतिद्वंद्वी समझ लेते।
अन्यों से बहु मेल न होने
से, उनकी कारवाईयाँ होती अज्ञात
इधर-उधर से खबर भी हो तो,
सम्बंध न होने से न है ध्यान॥
विशाल जग, हम लघु-कोटर में,
बहुत दूर द्रष्टुम न हैं सक्षम
कैसे विस्तृत हो यह मस्तिष्क
ही, संभावनाओं का प्रयोग न।
स्वयं को कोई न कष्ट देना
चाहता, मानो ह्रास होगी सर्व-ऊर्जा
ज्ञानी कहते अभ्यास से सब
वर्धित, क्यूँ न बढ़ाऐं अपनी चेष्टा॥
भोर हुई पर द्वार-बंद,
भानु-प्रकाश न पहुँचता हम सुप्तों तक
इतने ढ़ीठ हैं आराम को ले,
किंचित खलबली न करते सहन।
कुछ जानते भला कहाँ, फिर भी
अनाड़ी रहते हैं जान-बूझकर
कितना कोई समझाऐ मूढ़ों को,
निज-चेष्टा ही उत्तम शिक्षक॥
कितना ज्ञान-अनुभव शख़्स कर
सकता, जीवन-प्रवाह में इस
क्या काष्टा संभव शिक्षा की,
कितना प्रयोग हो सकता लाभार्थ?
पर आज सीखा कल भुला दिया,
जीवन किसे हुआ याद सकल
बस मोटे पाठ याद रह जाते,
वर्तमान में तो प्रतीत वही जीवन॥
पल-क्षण-घड़ी, घंटे-प्रहर,
अह्न-रात्रि, सप्ताह-माह, यूँ बीतते वर्ष
जिसे जितनी घड़ियाँ दी
प्रकृति ने, कमोबेश बिताते वही समय।
बिताना जीवन सामर्थ्यानुसार
ही, उसका वृतांत इतिहास बनता
हा दैव! कुछ अधिक न किया,
निम्न-श्रेणी में ही खुद को पाया॥
कौन से वे उत्प्रेरक
घटना-अनुभव, अग्र-गमन प्रोत्साहन करें जो
कौन वह सक्षम गुरु है, सर्व-
क्षुद्रता ललकारता, फटकारता यों?
कौन से वे संपर्क-विमर्श,
वर्तमान व अल्प -उपयोग पाते हैं जान
भविष्य-गर्त लुप्त
संभावनाऐं, जो स्व-प्रयास बिन नहीं दृष्टिगोचर॥
माना देखा-समझा, पढ़ा,
बोला-सुना अति, पर कितना है स्मरण
पता न चला कब स्मृति ही चली
गई, अनाड़ी के अनाड़ी रहें हम।
‘इसे पकड़ा, वह छूटा,
आगे दौड़-पीछे छोड़''
का बचपना है खेल
पूर्ववत को ठीक समझा ही न,
वर्तमान में भी न सुधार, वही हाल॥
माना श्लाघ्य तव चेष्टाऐं
बृहत् हेतु, पर प्रत्येक को दो कुछ समय
वरन दीन-दुनिया को स्व-राह
से, आपकी आवश्यकता न बहुत।
तुम्हारी सार्थकता भी कुछ
जीवन में, या बस खा-पीकर दिए चल
जब आने-जाने का न हुआ है
लाभ, क्या आवश्यक था लेना जन्म?
माना कुछ मेहनत-मजदूरी कर,
खाने-कमाने का लिया प्रबंध कर
पर क्या जीवन के यही भिन्न
रंग थे, अनुपम चित्र बना सकते तुम?
निज-संभावनाओं को न समय
दिया, बस सुस्त-मंद रहें, गया बीत
एक दिन बुलावा अवश्यंभावी तो
जितना बचा, कर लो सदुपयोग॥
नहीं राहें सीखी प्रयत्न से,
बस काम-चलाऊ कर लिया कुछ जुगाड़
अनेक विद्याऐं-तकनीक, विशेष
ज्ञान निकट, पर संपर्क नहीं प्रयास।
बेबस बना दिया स्वयं को,
अन्यों के रहमो-करम पर रहने का यन्त्र
जग प्रगतिरत, मैं
अबूझ-भ्रमित, कभी आत्म-मुग्ध पर अविकसित॥
यह लघु-विश्व अपने सों से
व्यवहार, तुम भी अनाड़ी हम भी गँवार
बस जूता- पैजारी, बहु जानते
-समृद्ध, शीर्ष-तिष्ठ मूर्ख अभिमान।
ज्ञानी से ज्ञानी मिले तो
सुज्ञान-वार्ता, मूर्ख से मूर्ख तो व्यर्थ- विवाद
जब चेष्टा निम्न, कैसे
मनभावन-सुखद फलक हो सबको उपलब्ध॥
मात्र जग-निर्वाह से
अग्रवर्धन, स्व का भिन्नों से भी होने दो संपर्क
बना आदान- प्रदान का
सिलसिला, संज्ञान आत्मानुभूति का कुछ।
दृष्टि प्रखर बना, दुनिया
बड़ी विशाल, गतिविधियों की रखो खबर
बृहद दृष्टिकोण निकल
कूप-मंडूकता से, संपूर्णता जीव-समर्पित॥
निज स्मृति-सीमाऐं, अतः याद
करो उत्तम अध्याय संभव जब भी
कर्म-गति रहे सदा, आत्मिक
विकास जीवन की हो परमानुभूति।
सकल जग लगे निज ही स्वरूप,
करें सहयोग परस्पर-विकास में
जितना संभव है विस्तृत करो
स्व को, सब लघुता पाटो विवेक से॥
और निर्मल चिंतन करो। जीवन
अमूल्य है॥