वय-वृद्धि क्रम
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कालक्रम में जीव भोला न रहता, बाल्य के शौख-अंदाज उम्र संग लुप्त
मुस्काता, खिलता-हँसता मुख, आयु की वीभत्स युद्ध-छाया में जाता छुप।
'भूल गए तानमान भूल गए जकड़ी, याद रह गई नून-तेल-लकड़ी' तीन
प्रातः-जाग बाद दिवस संघर्ष में धकेले हैं, सर्व-दिन सुलझाने में लीन।
उसकी त्रुटि कभी निजी, स्व पे क्रोध कभी उसपे, दर्शित कुछ तो कमी
कभी विलंब, अनुचित-निर्वाह, उपेक्षा, अवहेलना-असावधानी कभी।
कभी दूजा सुस्त, पूर्ण न रूचि, डॉँट-फटकार, मनुहार का न लाभ भी
बहु-विषय समक्ष फिर भी निश्चिंत, बस निज काम की बात में ही रुचि।
विभाग का पूर्ण-दायित्व तो न व्यवहार-लक्षित, बस सुनो और रहो चुप
नर अति-चतुर, संबंध भी अनुज्ञा, क्या अपेक्षा करें - मूल्य पहचान न।
वय-वृद्धि संग मानव सठिया जाता, प्रचंड अग्नि अदर्शित नव-यौवन की
बस जैसे चल रहा चलने दो, संसार हमसे भी पहले था, रहेगा आगे भी।
आज कहीं पढ़ा कि 'बचपन की ख्वाहिशें आज भी मुझे खत हैं लिखती
शायद बेखबर इस बात से कि वो जिंदगी अब इस पते पर नहीं रहती।'
बहुतों को बेफ़िकरा सा भी देखता, जो कुछ सामने आ जाएगा कर लेंगे
कुछ तो जिंदगी की भागदौड़ न समझते, बस समय कट जाए जैसे तैसे।
जितने प्राणी उतने चरित्र, सब अपनी भाँति विचित्र सा कर रहे आचरण
कब वे भला तेरे ढाँचे में समाऐंगे, समन्वय न तो विरोध होगा आभासित।
लोग प्रातः ही गुजर हेतु बहिर्गमन, चाहे संजीदा भी पृथक भाव से देखते
लोग भूखे मर रहें, अपढ़-सुविधाहीन, पर धनियों को मतलब मुनाफे से।
कार्य में एक उत्तम कर रहा, सभी तो उसकी प्रतिभा न पहचानते पर
सबने निज उपनेत्र* पहने, तेरी प्राथमिकताओं से उनको न कोई अर्थ।
उपनेत्र* - चश्मा
उपनेत्र* - चश्मा
जीवन तो निश्चित ही संघर्षमय, इहलोक को समझाना इतना भी न सरल
सब विषय-तत्व सबकी प्रज्ञा में न आता, न ही किसी की चाहत समझ।
तेरे सरोकार तुम तक सीमित, हम करेंगे जितने से आजीविका अबाधित
अधिक दबाओगे तो विद्रोह भी संभावी, इतने न दुर्बल हैं करें सब सहन।
एक छद्म-युद्ध प्राणियों मध्य सदा निरत, चाहे बाह्य मुस्कान, जी-हुजूरी
कौन सुनना चाहता प्रगीत पीड़ितों का, दर्द से बिलबिलाते रहते हैं ही।
किसी ने काम बोला तो है शत्रु लगता, चाहे स्व-कर्तव्य का ही हो अंग
कुछ नर ही दायित्व सहर्ष लेते मन में क्या सोचते देखना अति-कठिन।
स्व-दायित्व में कुछ करते भी दिखे, पर सच में उपस्थिति का अप्रभाव
त्रुटि सदा रहती, इधर-उधर देखते रहो, जैसे सीधा मुझसे न सरोकार।
क्या तुम भाषण सुनने हेतु ही आते, बंधु निज-व्यक्तित्व की छोड़ो छाप
कोई बलात न किसी से कर्म करा सकता, कहे-सुने से ही लो संकेत।
वरिष्ठ-अवर सहयोगियों की समीक्षा, कुल मिला तव व्यक्तित्व-कसौटी
संसार भी निज नेत्रों से देख रहा, सभी अरि न कुछ निर्मल-निष्पक्ष भी।
आदर-प्राप्ति तो निज कर्म-काज से ही, सुलभ न मेहनत करनी पड़ेगी
सफल जीवन-निर्वाह भी एक कला, यथा-शीघ्र सीखो उतना भला ही।
प्रतिदिन-संघर्ष थकाता पर सुदृढ़ीकरण, यहीं कुछ हँसी भी सीखनी
मूल स्वरूप को न भुला देना, सहज रहने से ही गुणवत्ता बनी रहेगी।
एक स्मित वदन पर बनाए रखनी, आत्म व दूजों का भी करो सम्मान
कर्कशता त्यागो संघर्ष एक सहज-नियम, मृदु भाव संजोए रखो अंतः।
पवन कुमार,
१४ जुलाई, २०१८ समय २२:१० बजे रात्रि
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २५ अप्रैल, २०१८ समय ९:५९ प्रातः से )