सुमति - दान
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सुमति दीन्हों, विवेक अग्रसर, सयंमित साहसी अदमित
नीर - क्षीर विवेचन कौशल, वक -हंस पहचान विदित।
अंतरतम दृश्य सक्षम, मेरे गुह्य रिपुओं को करो समक्ष
सामना हो स्व-दुर्बलताओं से, विजित हों सर्व-विधर्म।
सत्य-आत्मसात, निर्मल बुद्धि का परम-स्तर अनुभव
पैमाना अनुसंधान यावत, सब-सत्व का सार संग्रह।
मनुज दीर्घ काल से उच्च-स्वर्ग गमन कामना में लीन
वहाँ कल्पित ऐश्वर्य-सुख, युवा, क्षुधा-वृद्धि सदा नवीन।
जग जीवन में व्यस्त, समस्त रोग-भोग अंग-अंग लिप्त
मुक्ति कामना भी सीमा, प्रलाक्षन आवागमन -रिक्त।
ऊर्ध्व दीप-शिखा, विरल तेज बल, ऊर्जा-उष्मा विकिरित
स्व-बल ही स्थिति-परिवर्तन सक्षम, सुगति सामर्थ्य-कृत।
कौन उत्थित ब्रह्माण्ड स्पर्श को, विपुल दूरी पाटन प्रयास
दिव्य-तेज़ अनुभव तन-मन, विश्राम न किञ्चित विधान।
सुख-साधन, सुविधाऐं अल्प-हितैषी, मनस्वी-ध्येय अत्युच्च
दीन-विश्व स्व-कृत विघ्न-चिंतित, लिप्त आडंबर-आसक्त।
सब विवरण, प्रयुक्त भाषा ज्ञात सर्वत्र, तथापि चरित्र मद्धम
विकास सुधारार्थ संभव, जब मनुज विचारता अति-समृद्ध।
क्या कल्पना का उच्च-स्तर, पग-पग श्रेष्ठ हेतु मनन गति
समाधि-अवस्था तक कितने गम्य, या वह भी मति-कृति।
किसका चरित्र इतना उज्ज्वल, श्रेष्ठतम मानव-रूप स्पर्श
दिगंत विचरण, निष्कर्ष मर्म, जीव हितार्थ कृत सब कर्म।
पातञ्जल-योगदर्शन में सूत्र समाधि हेतु यम, नियम, आसन,
प्राणायाम-धृति, प्रत्याहार-धारणा, ध्यान चरण अति-दुष्कर।
प्राणायाम-धृति, प्रत्याहार-धारणा, ध्यान चरण अति-दुष्कर।
कितने तो प्रथम सोपान पर अटके, अंतिम छोर और दुर्लभ
तथापि कुछ उच्च-प्रयास से गमन-संभव बनाते कई चरण।
तथापि कुछ उच्च-प्रयास से गमन-संभव बनाते कई चरण।
हर धर्म संयम, कर्मकांड, आचरण बताता परम हेतु संभव
पर दिक्दर्शक अल्प मात्र, प्रायः नर यत्र-तत्र आडंबर-लिप्त।
मूल आचरण न बदलाव है, अतः कदापि न सत्य से परिचय
दूर लक्ष्य प्रयास अल्प, फिर भी सोचे मुझे मिले हिमालय।
मूल आचरण न बदलाव है, अतः कदापि न सत्य से परिचय
दूर लक्ष्य प्रयास अल्प, फिर भी सोचे मुझे मिले हिमालय।
लेखन के सत्य-निरूपण का क्या मार्ग, सुभीते हेतु परिष्कार
यह मात्र डायरी तक न सीमित, अपितु है सुधार का माध्यम।
मनन उत्तम पर आचरण विकृत, बहु-कल्याण न संभावना
यदि रत होगे द्वि-सामंजस्य में, परम-यश साध्य है निकटता।
वय-मन उभय पूर्ण यौवन में, वयस्क सी स्थिति है किंचित
काल बीतता द्रुत गति, कब कर से फिसले चलता पता न।
जीवन है क्षण-भंगुर व्युत्क्रम में, समस्त प्रकृति में यह खेल
आवागमन अवश्यंभावी, प्राप्त समय में ही करो कुछ मेल।
भ्रमर अपना गीत गुनगुनाता, लीन अपनी धुन में ही बस
डूबा एक परम-स्थिति में, नशा फिर मतवालों का यह।
लैला-प्रेम में मजनूँ बना एक काफिर, मारा-मारा फिरत
यदि मर्म ज्ञान अनंत प्रेम का, न दूरी बस आत्म-निकट।
मैं यहाँ, महबूब वहाँ, जबरदस्ती संग घट रही इस मनुज
मैं तड़पूँ यहाँ, वह तड़पे वहाँ और नींद मुझको आए न।
आत्मा-मिलन तो सदा ही संभव, शरीर की दूरी है बेशक
सर्व चेष्टा अंतरतम-मिलन की, मधुरता वहीं से निकसित।
कैसे आए सलीका जीवन में क्षमतार्थ, गुणवत्ता-वृद्धि सतत
आचार-संहिता बने, कर्म में ध्यान सदा, संगी हों सम्मिलित।
एक-2 पूर्ण कार्य हेतु प्रेरणा जब अपने मन से आगे बढ़े सब
क्या कोई दूजे पर प्रभाव जमाऐ, ज्ञात निज-जिम्मेवारी जब।
मन चंगा तो कठौती में गंगा, क्यों न हो पाते पाक-साफ हम
सदैव व्यस्त पर-छिद्रान्वेषण में, निज को हैं न करते स्वच्छ।
क्यों मन का बाह्य में ही पतन, निज अंतः के अनेक व्यवधान
सौरभ, सुरमय, द्रष्टा, सर्व-प्रेम अविरोध, समुचित विकास।
सब अपने को उत्तम कहते, जिम्मेवारी कोई न चाहता पर
बड़ी सहजता से दूसरों पर डाल देता, मैं तो लाचार हूँ बस।
जहाँ कथन बनता वहाँ भी न साहस, अपना क्या जो मर्जी हो
अपनी सेहत पर न आँच आनी चाहिए, जो होता वह सो हो।
कौन दायित्व ले जग चलाने की, निज-क्षेत्र स्वामी हर जन
क्यों इतना आराम-पस्त, जब अनिच्छुक है घटित समक्ष।
चेतना आवश्यक है मन-प्राण में, जीवंतता स्व-क्षेत्र की हो
क्यों अन्य तेरे ऊपर करें टिपण्णी, जब सुधार समय हो।
उच्च लक्ष्य निज-जिम्मेवारी, करो संगठित तन-मन ऊर्जा
नभ-तारक चुंबन उत्कंठा, विशालोर हो मधुर प्रेरणा सदा।
न कभी हो हीन-भावना ग्रसित, स्व अति-पवित्र रखो सहेज
यही तो सदा तुम संग जिए, मान करो इसका, करो प्रेम।
निज आत्मा-उन्नति कितनी संभव, पराकाष्टा वृद्धि ही होगी
प्रथम बनो अपने संग सहज, खोलेगी परिष्कार द्वार वही।
स्वच्छ रखना, कलुषित न हो पाए, अधिकार में बहुत कुछ
हल्का रखो उत्तम-ग्राह्य हेतु, दुनिया निज ध्यान लेगी रख।
मन-कर्ता समस्त कर्मों का, अतः मनन अत्युत्तम - पवित्र हो
हर भाव -कर्म पर एक नज़र हो, सावधानी से भ्रम से बचो।
कैसे नियंत्रण हो सहज भटकावों पर, कैसे दृष्टि हो एकाग्र
मनसा-वचसा-कर्मणा श्रेयसार्थ, किञ्चित स्वयं से न दूषण।
भाषा सयंमित, वेश शालीन, चाल-ढाल में एक सुघड़ता
जग इतना तो बुद्धिमान है, अच्छे-बुरे में अंतर समझता।
पर आचरण न मात्र बाह्य मुखौटा, अपितु आदर निर्मित
मानव-पहचान उसके चरित्र से, यत्न से करो मर्यादित।
आत्मा शरणागत, बनो सशक्त, सर्वोत्तम ग्रहण की चेष्टा
चलो सकारात्मक दिशा में, चिंतन निर्मल रहे ही सदा।
हर अवयव प्रयोग, ढंग-आयामों से हो विकास सुमधुर
गुणी-संगति शक्ति-निमित्त, उच्च दृष्टि ही बढ़ाएगी अग्र।
धन्यवाद। और कोशिश करो परम से संपर्क की।
पवन कुमार,
१८ अगस्त, २०१८ समय २३:३४ म० रात्रि
१८ अगस्त, २०१८ समय २३:३४ म० रात्रि
(मेरी डायरी दि० ०१.०८.२०१५ समय १०:३५ प्रातः से )