विशाल विश्व नर अकेला, बाह्य-शरण भी अल्प-अवधि तक
तन्हाईयों में खुद ही डूबना, बहुदा प्रश्न कैसे काटें समय।
कदाचित बोरियत-सीमा तक यह नितांत एकाकी पाता स्वयं
किसके पास जाकर व्यथा बाँटें, अपने में संसार जी रहें सब।
अंतः-स्थिति सबकी एक सी, कुछ कह लेते पर पड़ता सहना
एक क्षीणता सी अंतः-गृह, तन-बली होकर भी नर दुर्बल सा।
बहुदा दर्शन नरमुख सड़क पर चलते, कार्यालय में अकेले बैठे
खेती-मजदूरी करते, बूढ़े प्रतीक्षा में, बेरोजगार खाली भटकते।
सब कुछ ढूँढ़ते से, बस कह न पाते, मस्तिष्क तो सदा कार्यरत
बहुदा व्याज बनाता, मात्र कयास जबकि पता सिद्धि न निकट।
यह क्या छुपा जो सदा-आविष्कृत, शायद निज कष्टों का उद्धरण
या ग्रन्थित प्रहेलिकाओं का हल-ढूँढ़न प्रयत्न, चाहे हस्त में या न।
या ग्रन्थित प्रहेलिकाओं का हल-ढूँढ़न प्रयत्न, चाहे हस्त में या न।
बस भ्रांत-दशा कभी यत्र-तत्र है अटके, जीवन शांति से न निर्वाह
बस कुछ सुनो-कहो किसी से, नजरिया भी सदा बदलता रहता।
मानव एक विवेकी जीव, सदैव मनन में चाहे अन्यों को न हो रास
निज-शैलियाँ में एक गुमशुदा सा, अंदर से सुबकता-उबलता सा।
कभी प्रतिक्रिया, ध्यानाकर्षण हेतु शोर भी, पर ज्ञान अंतः-अबल
कभी दंबंग-स्थिति भी बनाता, पर प्रायः अपने से ही नहीं फुरसत।
नर-समूहों में सहयोग भी दिखता, एकजुटता सी पंक्तियों में चलते
पर जमघट हटते ही फिर अकेले, लोकोक्ति कि अकेले आए - गए।
जीवन में कुछ मेल-जोल रहता बात कर लेते, मन कुछ बहल जाता
अंततः स्व में ही लौटना, बहु-नर चहुँ ओर तथापि तन्हा से ही रहता।
एकाकीपन-उबरन हेतु परस्पर संवाद की अनेक विधियाँ मानव-कृत
सामान्यतया एक लौकिक, अतः जब भी अकेला बेचैनी सी अद्भुत।
कला-संगीत, प्रदर्शनी-गोष्ठियाँ, कार्यस्थल-प्रगल्भ, कलह-युद्ध, प्रवचन
मित्र-सौहार्द, आदर-रक्षा, मान-मनुहार, हाट शोर-गुल व विभिन्न ग्रंथ।
लेखन भी अंतरंगता हेतु, एकाकी छटपटाहट, तब उपायान्वेषण
कोई बने मूर्ति-चित्रकार, रंगकर्मी, कोई दार्शनिक या वैज्ञानिक।
सब अंतः से एक तरंगता चाहते, रिक्त क्षणों में जीवन कैसे पूरित
'दिमाग खाली तो शैतानी घर', बल-समन्वय से मूर्त-निर्माण कुछ।
मेरे मन की भी एक दुःख-सहन सीमा, अधिकता पर छटपटाहट
ढूँढने लगता पठन-सामग्री, कुछ देर होता मस्तिष्क और व्यस्त।
ज्वलंत समस्या यदि मन में तो उपाय भी, किसी-२ को भी छेड़ता
सदा निज व अन्यों को चुनौती, परस्पर संवाद से ही जग चलता।
क्या हम जो बहिर्प्रतीत वैसे ही, या अंतः का भी कोई अस्तित्व
कौन सदा सुलगाता-ललकारता, करता भी उदास-व्यग्र-उग्र।
कौन यंत्र पूर्ण-विवह्लित है कर जाता, नितांत निराश्रय से हम
छटपटाते औरों को हैं कष्ट देते, कर्म- संनिरीक्षा, स्व पर प्रश्न।
प्राणी एक महासमुद्र सम पर थाह अज्ञात, किसी कोण दुबका
भला यावत अन्यों से एकजुटता, पश्चात विशाल-लुप्त निर्बल सा।
किञ्चित अज्ञात वृहद-स्वप्न से, बुद्ध-महावीर से खोज हेतु प्रस्थान
प्रश्नों के उत्तर यहीं पर गोता लगा रत्न चिन्ह व उठाने का साहस।
सब मानवेतर जीवों में भी एक मस्तिष्क, आत्मसम कोई मनन
चाहे हमें पूर्ण समझ नहीं , कुछ तो सदा उनमें भी घटित पर।
अंतर्युद्ध का मात्र किञ्चित ही मुखरित, गह्वर विपुल सागर सम
सर्व चिंतन-चुनौती आत्मसातार्थ, सिद्धि कितना उत्तम संभव।
जीव एकाकी जन्म से आमरण, स्वयं ही झेलने सब कष्ट-व्याधि
यश-तर्जना, स्वीकृति-मूढ़ता, दृष्टिमान सब प्रयत्न-अभिव्यक्ति।
'आत्म निखरण-परिष्कार' उत्तम शब्द, उलझनों से जाना पार
संयुक्त-प्रयास व जग-साधनों से एकाकीपन का कुछ उपाय।
अतः न क्षोभ-स्थिति, सर्व स्ववत, मिल-बैठ बना मधुर-परिवेश
जब रिक्त-ऋतु एकांत सताऐ, कुछ कलाप्रेमी सा संवारो निज।
पवन कुमार,
२१ जुलाई, २०१९ समय ८:३२ संध्या
(मेरी डायरी १४ फरवरी २०१९ समय १०:२३ बजे प्रातः से)