जीवन-छोर
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क्या निज में बाकी रह जाता मृत्यु-बाद, मन-देह तो सब समाप्त हो गए
स्वयं अज्ञात, हाँ क्षणिक काल हेतु कुछ स्मृति-चिन्ह धरोहर छोड़ गए।
यह जिंदगी ही क्या-कैसी है, जब तक हम जीवित हैं विचरती हमारे संग
पर प्राण-पखेरू उड़ते ही नदारद हो जाती, जीते-जी का है खेल सब।
जब तक जीवित खूब कूद-फाँद सकते थे, मन की अच्छी-बुरी लेते कह
लड़ना-भिड़ना भी था तभी संभव, पर मौत-आगोश में जा धूमिल सब।
माँ के गर्भधारण-समय से अंतिम श्वास का मध्य-सफर, कह सकते है जीवन
स्पंदन प्रतिक्षण चाहे न अनुभव, दिल धड़कता, वहनियों में दौड़ रहा रक्त।
अब हमारा मस्तिष्क भी शून्य-अचेतन, कोई घटनाऐं रिकॉर्ड न कर सकता
उसकी कार्य-प्रणाली अद्भुत, हाँ जीवन विकसन से पूर्व ही शुरू हो जाता।
कुछ सूक्ष्म दृष्टि तो अदृश्यों की परत खुलें, अनेक तथ्यों से सदा अज्ञात हम
विज्ञान कुछ उपकरण देता, प्रयोगशाला में विशेष ज्ञान भी प्राप्त सकते कर।
चिकित्सा-विज्ञान में प्रगति, विशेष ज्ञान से मानव ने पता किए आयाम अनेक
पर कितने ही अनसुलझे रहस्य, न प्रश्न कर पा रहें, स्वयमेव तो कुछ लब्ध न।
हमारा जीवन-काल अति लघु, मानव-मस्तिष्क भी एक सीमा तक ही निपुण
फिर प्रशिक्षण भी न है अत्युत्तम, उपलब्ध उपकरण का प्रयोग न पाते कर।
देखो कलाकार निज देह-अंग के प्रयोग से, अनेक सुभीति मुद्राऐं बना लेते
अनेक जादूगर, दार्शनिक-वैज्ञानिक, वेध-वेत्ता, सुख्यात मति-प्रयोग से हैं।
कैसी दुविधा लब्ध तो सर्वस्व, पर मार्ग-अदर्शन, अमूल्य अनुपयोगी गया रह
महँगे फोन-कम्प्यूटर खरीदे पर चलाना न आता, कई फंक्शन का प्रयोग न।
धनी लोग बड़े भव्य महल -आवास बना लेते, पर रहना तो ही एक कमरे में
ढंग से उनकी साफ़-सफ़ाई भी न हो पाती, हाँ कुछ समय हेतु खुश हो लेते।
हम अनेक पुस्तकें खरीद लेते, फुरसत निकाल कभी ढंग से नाम भी न देखते
घर में कई समाचार - पत्र आते, खोलकर मुख्य पृष्ठ-सुर्खियाँ भी न पढ़ पाते।
अनावश्यक बर्तन-वस्त्र क्रय करते, पर अल्मारियों-बेड में ही सजे रहते बस
प्रथम दिवस से ही उपयोगिता एक ओर, फिर किस हेतु है ऊर्जा-धन व्यय।
दिन-रात श्रम से धन कमाते, कभी सोचा न एकत्रित का अत्युत्तम प्रयोग संभव
बैंकों में पड़ा धन रहे अनोपयोजित, किसके काम आएगा किसी को न ज्ञात।
बैंक उसी के प्रयोग से अति अमीर हो जाते, निज दशा तो पूर्व-कंगालों वाली
कभी मस्तिष्क में श्रेष्ठ न अनुभव ही करते, परहित से बाँट सकते थे खुशी।
बहुत पढ़ता-लिखता पर क्या अन्यों में भी प्रसारित, वे भी लाभान्वित हो सकें
क्या ज्ञान स्वयं तक ही सीमित हो, या बाँटकर अन्यों को भी योग्य बना सकें।
एक सोच हो वृहद मानवता हेतु, या मैं पैदा होकर दुनिया से यूँ ही चला गया
या पूर्ण ब्रह्मांड मन-आत्मसात कर लिया, निज को सबमें विस्तृत कर दिया।
कैसा वीर निर्बल-दीनों की सहायता में न उतरे, यूँ ही जुल्म होते देखता रहता
न समझाने का हुनर, न सख़्ती से लोगों को गलत रोकने का पाया साहस जुटा।
कदापि अन्य-कष्ट में शामिल होने के प्रति, स्वयं में विशेष उत्सुकता ही न दिखी
अति उदासीन जग के निर्बल पहलूओं प्रति, बहुत कुछ कर सकता था जबकि।
चहुँ ओर भिक्षुक-अपढ़-अज्ञानी-मूर्खों का रेला, मैं निज में मस्त अमीर-विद्वान
किसी अन्य की न खबर या चिंता, दुर्भाग्य कि कोई भी जिम्मेवारी समझता न।
किसी या अनेकों ने मेरे प्रति भी सुभीता सोचा था, आज सुस्थिति में हूँ तभी तो
अहसान-फरामोश से अपने प्रति भलाई तुरंत भुला देते, बहुत दूर चुकाना तो।
कैसे हो यह जीवन विस्तृत, अप्रत्यक्ष में तो है किंचित, प्रत्यक्ष में भी माँगता होना
बिना श्लाघा-आशा के प्रति रोम से कुछ लोक-भला हो सके, जीवन सुफल तो।
कितना अपना व अन्यों प्रति ईमानदार हो सकता, चरित्र की कसौटी होगी क्या
जीवन तो बस वर्तमान, यदि पुनर्जन्म जैसी कोई धारणा भी तो निज को अज्ञात।
क्यों न हो सबका मानव-एकता का प्रयास, शासन प्रति तो प्रजा को न विश्वास
क्यों न एक बड़ी समझदारी उदित हो, क्यों छीने-झपटने में ही चलता ज्ञान।
क्यों गुमराहों को बस बहला -फुसला कर, हिंसा-बेहाली पथ पर छोड़ देते
पद-दशा भी न निम्नतर, प्रभाव से कुछ सकारात्मक-परिवेश सहेज सकते।
जीवन-छोर तो पाना लोग महाकर्म कर रहे, तुम भी कोटर से आओ बाहर
ठीक कहो लोग सुनेंगे भी, जब जीवन औरों में प्रत्यारोपित तो बनोगे अमर।
पवन कुमार,
४ अक्टूबर, २०२२ बुधवार, समय १८:३१ बजे सायं
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २६ अप्रैल, २०१७ समय ७:३८ से )