कैसे यूँ कुछ मनुज बढ़ जाते,
जब वे भी हैं हाड़-माँस के
कैसे स्थापित प्रयत्नों में,
बहुत अधिक दूरी तय कर जाते॥
मनस्वी-मन तहों तक जा, क्षीण
आचरण-ईंट ठीक करते
बनते सतत प्रहरी स्वयं के,
निज बेहतर की आशा करते।
प्राण उच्च-शिखर ओर इंगित
हो, नहीं कुछ छोड़े कसर
जगाकर निज क्षीण पक्ष, सतत अभ्यास से करते
सशक्त॥
नहीं है आसान इतना भी, जब
दुर्बलता अविश्वास जगाए
कौन छेड़े अनछुए पहलू, और
क्यों मीठी नींद को खोए।
मानव के अंदर छुपे हुए हैं
शत्रु, और उसे वे घायल करते
सतत युद्ध यूँ चलता है, कभी
यह जीता कभी वह हर्षाए॥
स्व-पक्ष मज़बूत करना,
मन-मस्तिष्क को करना दुरस्त
निकाल बाहर सब नकारात्मकता,
आचार करना सुदृढ़।
जीवन की एक सु-शैली बना, जो
भरी हो आत्म-विश्वास
फिर अपना ही तो न, बल्कि संगियों को भी लेना
साथ॥
यह जग स्वार्थ-मस्त है, केवल
वर्तमान की परवाह करता
कभी भूत से भी प्रभावित है,
तथापि अब की चिंता करता।
बहुदा परेशान सा रहता, निज
क्षीणताऐं महसूस है करता
मन तो बदला न है,
अन्य-दुर्बलताऐं भी निजी मान लेता॥
क्यों यह भ्रामक स्थिति ही,
और सु-गंतव्य पर न है नज़र
मन के मीत को जगा, उसको बना
ही मृदुल एवं स्नेहिल।
कैसे आगे बढ़ने के हों मार्ग,
जिनका हैं अनुसरण करना
समस्त ज्ञान निकटता पर भी,
इस समय अबोध हूँ पाता॥
बड़ी दूर पर एक तारा, मारूँ
छलाँग और उसे लाऊँ तोड़
पर चाहिए महद प्रयास अनवरत,
साहस ही कुँजी वाँछित।
इन जग-प्राथमिकताओं में तो,
भरी हुई हैं बहुत अवाँछित
तुम निज समझो, और अर्जुन की
भाँति करो मीन-लक्षित॥
अनेक अविष्कार, वृहद गाथा,
जगत समझा स्वस्थ मन से
नहीं रहे पर-छिद्रान्वेषी,
पर स्वयं को बहुत ही सुधारते हैं।
कैसे बनें अतिरिक्त भी योग्य,
इसमें सब आहूति हैं डालते
जितना बन पाए उतना देते,
नहीं अटकते या भ्रांत रहते॥
पर क्या उनका द्वंद्व न
स्वयं से, और कैसे वे विजयी होते
और अपने से उठकर विश्व में,
कुछ सार्थक रचना करते।
कैसे बनें आत्म-विजयी, और
कौन प्रेरणा कराती अद्भुत
नहीं मम में ही खोए रहते
हैं, अपितु ठोस कर जाते कुछ॥
मनन लाओ स्व से बाहर, बाह्य
सौंदर्य भी कुछ अहसास हो
पर यह अनुपम जीवन-चिंतन,
कैसे बाहर भी अनुभूत हो।
पकड़ लो कूची-कैनवास, ले
रंग-रोगन उकेरें कुछ ललित
सौम्य रचना हो स्व के संग,
अन्यों को भी कर दे रोमांचित॥
उपलब्ध जीवन के प्रत्येक पल
से, यथासंभव बेहतर करना
वे चित्रण तो करते स्वयं का
ही, बाहर तो केवल दिखावा।
कुछ हममें से देख लेते हैं,
अन्यथा निज से किसे ही फुर्सत
जब उपभोग में ही व्यस्त तो,
फिर सोचते उपयोगी हैं हम॥
किंतु मुझे यह कलम, कुछ अंदर
से बाहर चाहिए मोड़ना
कब तक यूँ ही व्यथित रहोगे,
जब बाहर भी आवश्यकता।
निकालो- उठाओ उपकरण प्रगति
के ही, दो झोंक सर्वस्व
तब संभावना भी, कुछ सक्षमों
की श्रेणी में आने की अन्य।
धन्यवाद॥
Puran Mehra : Your poems are literary pieces. One has to read more than once to understand its meaning. These are mostly related to environment we live in.
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