कितनी अच्छी बात होती अगर तुम भी अच्छे होते और मुझे साथ लेकर सारे ब्रह्माण्ड की सैर कराते। मुझे दिखाते कि देख ले तू भी, इतना विस्तार है इस सारी सृष्टि का, कल्पनातीत। अगर देखते-2 जीवन भी बीत जाए तो कोई हानि न होगी। मैं तो वैसे भी बिलकुल आम ज्ञान वालों की श्रेणी में हूँ, कोई खिवैया ऐसा मिले जो कि मेरी भी नाव उस पार लगा दे तो बहुत अहसान हो जाएगा। कोई गुरु ऐसा मिल जाए की रास्ता बतला दे और हिम्मत भर दे तो जीवन की कुँजी समझ में आ जाए। बिलकुल बोझिल, थका देने वालों थोथे और बेकार विचारों से बाहर ले जाकर, जहाँ जीवन्तता का साम्राज्य है उसकी ओर प्रस्थान करवा दे, तो जीवन का मज़ा ही आ जाए। पर उस सिरजनहार को कोई मुझसे मिलवा तो दे। मैं आनंद बन जाऊँ और बुध जैसा गुरु मिल जाए। मैं मीरा बन जाऊँ और कोई रैदास उस गोपाल से मेरा सम्पर्क करा दे। मैं कबीर बन जाऊँ और प्रभु को सब ओर देखने की प्रवृत्ति ही बना डालूं। मैं नानक बन जाऊँ ओरे हर प्राणी में हरि-दर्शन करने लगूँ। मैं शंकर बन जाऊँ और अद्वैत का भाव मेरे में घर कर जाए। मैं न्यूटन बन जाऊँ और संसार के समस्त नियमों की गुत्थी एक-2 करके सुलझती चली जाए। मैं एडीसन बन जाऊँ, जो इतना धैर्य रखता हो कि कम से कम इन हज़ार प्रयोगों द्वारा तो प्रकाश का बल्ब नहीं बन सकता। ऐसा कैसे होगा कि तुम मुझे इस महात्माओं के चरण-धूलि से मिलवा दो और मेरा कल्याण हो जाए।
जीवन की गुत्थी, जो बुरी तरह से उलझी पड़ी है, समझने की इच्छा मेरे अंदर घनी हो जाए और सफलता सामना हो। क्या मैं अपने जीवन को एक आदर्श मानकर इसे जीने की कोशिश नहीं कर सकता। तू मेरे साथी, तू मेर्री बात तो सुन, तू मुझसे बात क्यों नहीं करता ? मेरे अंदर ऐसी कौन सी कमी है जिसे मुझसे साँझा नहीं कर सकता। मेरी दुर्बलताओं से तुझे इतनी सहानुभूति क्यों है, क्यों नहीं तू मुझे उनसे आत्मसात करा देता ? क्यों नहीं तू मुझे मेरे ही सामने नंगा कर देता और मेरा दर्पण मुझे दिखा देता और भले ही अहसास करा देता कि मैं कितना वीभत्स हूँ। तुम तो अपने को मेरा दोस्त कहते हो न। फिर कैसे दोस्त हो तुम, क्या अपने इस मित्र पर तुम्हें बिलकुल दया नहीं आती ? इसकी यह हालत देखकर क्या तुम्हारा कलेजा फट नहीं जाता ? तुम तो मुझको मेरे से ज्यादा जानते हो, मेरे निष्क्रिय दिमाग की एक-2 तह का तुम्हें भली-भाँति पता है। मेरे अंदर जिस जीवनी शक्ति का अभाव है तुम उससे भली-भाँति परिचित हो तो मुझे मेरा दर्शन करा दो, ऐ मेरे मित्र। अगर तुम्हे लगता है कि मैं सचमुच बीमार हूँ तो मेरा इलाज़ करा दे।
मुझे शायद इस संसार में ज्यादा अच्छी तरह जीना नहीं आता क्योंकि मैं अभी तक बहुत अधिक संसारी नहीं बन पाया हूँ। पर यह सब मेरे लिए इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कीं मैं स्वयं। मुझे तो तुमसे हँसने, मुस्कुराने की कला सीखनी है, मुझे तो तुमसे रोना भी सीखना है। मुझे तो तुमसे संवेदनाओं को कैसे अनुभूत किया जाता है, यह भी सीखना है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि संसार में कितने रस हैं और उनका कैसा स्वाद है ? मैं हर प्राणी में गुरु ढूंढने की प्रवृत्ति कैसे डालूँ , यह मुझे बता। मैं अपने ही अनुभवों को क्या अपना गुरु बना सकता हूँ, इसका मुझे ध्यान दे। इस संसार में मेरी कोई जगह होगी, वह क्या है, इसमें मेरी क्या भूमिका है, मुझे बतला दे। मुझको तो आज मेरे से मिलवा दे, तेरा बड़ा भारी अहसान होगा मुझ पर। मैं आज अपना सामना करने के मूढ़ में हूँ चाहे इसमें मेरी हार ही क्यों न हो। मुझे तो यह समझना ही है कि जीवन ऐसे व्यापन होने वाला ही नहीं है जब तक की उसमें जीवंतता का स्पंदन नहीं होगा। फिर अगर चाहे जितनी विताड़नाओं, मुसीबतों का सामना करना पड़े, मुझे इसकी चिंता नहीं है। पर मुझे अपना वज़ूद समझाना ही है और अब की बार मैं हार नहीं मानने वाला हूँ।
अतः यह मानव के साथ शायद त्रासदी ही है कि वह कुछ सोचता ज्यादा है, इसी प्रक्रिया में चारों ओर तमाम बड़े-2 दैत्य और उपकरण आ खड़े हुए हैं। इसी प्रक्रिया में उसने अनेक नियमों, कायदों, सभ्यताओं और धर्म इत्यादि को चारों ओर खड़ा कर लिया है। अपने क्षेत्र की रक्षा की प्रवृत्ति सब प्राणियों में देखी जाती है, इसी लिए उसने बड़े-2 आयुध बना लिए हैं, सेनाऐं खड़ी की है। लोगों को बहला-फुसला, डरा-धमका, लालच इत्यादि देकर आतंकवाद जैसे भयंकर अजगर को मानव के सामने खड़ा कर दिया है। हम दूसरों से अच्छे हैं और अन्य निकृष्ट हैं अथवा और हमारे से श्रेष्ठ क्यों हैं? इस तरह के प्रश्न अपने आपसे करने बजाय, इसको केवल तुलनात्मक दृष्टि से लेते। जब कि यह घृणा, द्वेष तथा बदले की भावना में लिया जा रहा है, मेरे साथ भी तो होगा यह हम भूल गए है। हाँ जब भी मेरे साथ कोई अन्याय होता है तो मैं विचल उठता हूँ और फिर समस्त संसार को अपना शत्रु समझने लगता हूँ। फिर जब मैं ऐसा स्वयं ऐसा करता हूँ तो कोई बात नहीं। फिर सब मनुज तो एक जैसे नहीं हैं, सबमें किसी बात पर प्रतिक्रिया आवश्यक नहीं है कि एक जैसी ही हो। कुछ जबकि ऐसे विषयों को केवल मज़ा लेने के लिए करते हैं, अन्य उसे बड़े ही सहज भाव से लेते है तथा अन्य हो सकता है कि इस तरह की घटनाओं के प्रति संवेदनशील हों और एक समझदारी पूर्वक व्यव्हार करते हैं।
अतः हम सब सब एक होकर भी एक नहीं है। हाँ, हमारा सबसे ऊपर और नीचे का व्यव्हार एक जैसा है जबकि बीच की स्थितियाँ बदली हैं पर फिर भी इतना निराशा का भाव नहीं होना चाहिए। हर एक रात के बाद सवेरा हो ही जाता है। वे मनुज हैं, जिन्हें अपने कर्त्तव्यों का अहसास तो है। वे मनुज भी अच्छे हैं जो अन्यों को देखकर भी अपनी जिम्मेवारियों के प्रति संवेदनशील हैं। अतः महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनी कोशिशों में रहें, दूसरे की भावनाओं की कुछ कद्र करें, केवल अपनी ही बात नहीं बल्कि उनकी भी परिस्थितियों को ध्यान में रखें। अपनी प्रतिक्रिया करे लेकिन उससे कभी किसी के प्रति अनादर का भाव न हो। सबको अपना जीवन अपने ढंग से जीने का अधिकार है और वे कैसा सोचते हैं, तुम्हें ज्यादा सरोकार नहीं होना चाहिए जब तक कि वह तुम्हारे लिए कोई बहुत कठिनाई पैदा न करे।
असली बात है कि तुम स्वयं अपना अध्ययन करो, इसके लिए जो भी मानव को समझने के लिए जो भी सामग्री उपलब्ध होती है, उसे प्राप्त करो। महापुरुषों के कथन को ध्यान देकर देखो, जानने की कोशिश करो कि उनका क्या अर्थ है और उनका क्या प्रयोजन है और फिर यदि वह तुम्हारे को जँचता है तो अपने जीवन में प्रयोग करो। पर याद रखो कि जीवन इतना भी बड़ा नहीं है कि तुम मूर्खों की भांति समय गँवाते रहो। जीवन में बड़ा करने के लिए बड़ा बनना पड़ेगा। जीवन की पूरी तरह से जीने की कोशिश करो। अपनी शारीरिक और मानसिक शक्ति का विकास करो। अपनी वाणी को मधुर बनाओ और न किसी को कभी भी हानि पहुँचाने की कोशिश करो। अपने जीवन की कुछ योजना करो- कल का तुम्हारा जीवन कैसा होगा और तुम कैसा चाहते हो। क्या तुम आज से उसमें सुधार चाहते हो तो उपाय कौन से सुझाते हो। संतुलित होकर तुम यदि ऐसा व्यवहार करोगे तो कोई वजह नहीं कि कहीं हार का सामना करना पड़े। आंशिक सफलता या विफलता पर बस बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अपने प्रति ईमानदारी बरतो फिर परवाह नहीं करो कि कोई कैसा सोचता है। क्योंकि समझ लो कि यह तुम ही हो जो स्वयं पर कुछ अंकुश लगा सकते हो। हाँ प्रकृति का नियम है - ठीक की ठीक ही परिणीति होती है हालाँकि थोड़ा सावधान होने की आवश्यकता है। किसी से दुर्व्यवहार मत करो लेकिन जब दूसरे सीमा से आगे बढे तो सख्ती से उसे बोल देना चाहिए। डरना किससे है- वह परमात्मा सबका ध्यान रखना वाला है।