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Monday, 24 November 2014

आत्म -मन्थन

आत्म -मन्थन 
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कितनी अच्छी बात होती अगर तुम भी अच्छे होते और मुझे साथ लेकर सारे ब्रह्माण्ड की सैर कराते।  मुझे दिखाते कि देख ले तू भी, इतना विस्तार है इस सारी सृष्टि का, कल्पनातीत। अगर देखते-2 जीवन भी बीत जाए तो कोई हानि न होगी। मैं तो वैसे भी बिलकुल आम ज्ञान वालों की श्रेणी में हूँ, कोई खिवैया ऐसा मिले  जो कि मेरी भी नाव उस पार लगा दे तो बहुत अहसान हो जाएगा। कोई गुरु ऐसा मिल जाए की रास्ता बतला दे और हिम्मत भर दे तो जीवन की कुँजी समझ में आ जाए। बिलकुल बोझिल, थका देने वालों थोथे और बेकार विचारों से बाहर ले जाकर, जहाँ जीवन्तता का साम्राज्य है उसकी ओर प्रस्थान करवा दे, तो जीवन का मज़ा ही आ जाए।  पर उस सिरजनहार को कोई मुझसे मिलवा तो दे। मैं आनंद बन जाऊँ और बुध जैसा गुरु मिल जाए। मैं मीरा बन जाऊँ और कोई रैदास उस गोपाल से मेरा सम्पर्क करा दे। मैं कबीर बन जाऊँ और  प्रभु को सब ओर देखने की प्रवृत्ति ही बना डालूं। मैं नानक बन जाऊँ ओरे हर प्राणी में हरि-दर्शन करने लगूँ।  मैं शंकर बन जाऊँ और अद्वैत का भाव मेरे में घर कर जाए। मैं न्यूटन बन जाऊँ और संसार के समस्त नियमों की गुत्थी एक-2 करके सुलझती चली जाए।  मैं एडीसन बन जाऊँ, जो इतना धैर्य रखता हो कि कम से कम इन हज़ार प्रयोगों द्वारा तो प्रकाश का बल्ब नहीं बन सकता। ऐसा कैसे होगा कि तुम मुझे इस महात्माओं के चरण-धूलि से मिलवा दो और मेरा कल्याण हो जाए।

जीवन की गुत्थी, जो बुरी तरह से उलझी पड़ी है, समझने की इच्छा मेरे अंदर घनी हो जाए और सफलता सामना हो। क्या मैं अपने जीवन को एक आदर्श मानकर इसे जीने की कोशिश नहीं कर सकता। तू मेरे साथी, तू मेर्री बात तो सुन, तू मुझसे बात क्यों नहीं करता ? मेरे  अंदर ऐसी कौन सी कमी है जिसे मुझसे साँझा नहीं कर सकता। मेरी दुर्बलताओं से तुझे इतनी सहानुभूति क्यों है, क्यों नहीं तू मुझे उनसे आत्मसात करा देता ? क्यों नहीं तू मुझे मेरे ही सामने नंगा कर देता और मेरा दर्पण मुझे दिखा देता और भले ही अहसास करा देता कि मैं कितना वीभत्स हूँ। तुम तो अपने को मेरा दोस्त कहते हो न। फिर कैसे दोस्त हो तुम, क्या अपने इस मित्र पर तुम्हें बिलकुल दया नहीं आती ? इसकी यह हालत देखकर क्या तुम्हारा कलेजा फट नहीं जाता ? तुम तो मुझको मेरे से ज्यादा जानते हो, मेरे निष्क्रिय दिमाग की एक-2 तह का तुम्हें भली-भाँति पता है। मेरे अंदर जिस जीवनी शक्ति का अभाव है तुम उससे भली-भाँति परिचित हो तो मुझे मेरा दर्शन करा दो, ऐ मेरे मित्र। अगर तुम्हे लगता है कि मैं सचमुच बीमार हूँ तो मेरा इलाज़ करा दे।

मुझे शायद इस संसार में ज्यादा अच्छी तरह जीना नहीं आता क्योंकि मैं अभी तक बहुत अधिक संसारी नहीं बन पाया हूँ। पर यह सब मेरे लिए इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कीं मैं स्वयं। मुझे तो तुमसे हँसने, मुस्कुराने की कला सीखनी है, मुझे तो तुमसे रोना भी सीखना है। मुझे तो तुमसे संवेदनाओं को कैसे अनुभूत किया जाता है, यह भी सीखना है। मुझे तो यह भी नहीं पता कि संसार में कितने रस हैं और उनका कैसा स्वाद है ? मैं हर प्राणी में गुरु ढूंढने की प्रवृत्ति कैसे डालूँ , यह मुझे बता। मैं अपने ही अनुभवों को क्या अपना गुरु बना सकता हूँ,  इसका मुझे ध्यान दे। इस संसार में मेरी कोई जगह होगी, वह क्या है, इसमें मेरी क्या भूमिका है, मुझे बतला दे। मुझको तो आज मेरे से मिलवा दे, तेरा बड़ा भारी अहसान होगा मुझ पर। मैं आज अपना सामना करने के मूढ़ में हूँ चाहे इसमें मेरी हार ही क्यों न हो। मुझे तो यह समझना ही है कि जीवन ऐसे व्यापन होने वाला ही नहीं है जब तक की उसमें जीवंतता का स्पंदन नहीं होगा। फिर अगर चाहे जितनी विताड़नाओं, मुसीबतों का सामना करना पड़े, मुझे इसकी चिंता नहीं है। पर मुझे अपना वज़ूद समझाना ही है और अब की बार मैं हार नहीं मानने वाला हूँ। 

मेरे भाई, तुम यह समझ लो कि तुम इस दुनिया में अकेले नहीं हो। तुम्हारे जैसे करीब छः सौ करोड़ तो मनुज ही हैं इस जग में और तमाम थल, नभ और जल  प्राणी अलग से हैं। इनको जीव कहा जाता है क्योंकि इनमें जीवन है, ये लोग चल-फिर सकते हैं, अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर सकते हैं और जीवन को जीते हैं। ये अपनी खाने-पाने  व्यवस्था अपने आसपास के वातावरण से कर लेते हैं और विभिन्न परिस्थितियों में अपने को संतुलित करने की कोशिश करते हैं। तुमने देखा होगा कि इनमे कुछ प्राणी ऐसे हैं जिनकी क्रियाओं में ज्यादातर समानता रहती है। हालाँकि कुछ पुस्तकों या फिर 'डिस्कवरी चैनल' की कुछ फिल्मों में तुमने उनके जीवन को जीते हुए देखा होगा, फिर भी तुम उसे पूरा नहीं तो नहीं समझ सकते। इन सबसे अलग मानव हैं जिसने अपने जीवन में कहीं तरक्की कर ली, जीवन में सफलताओं की गगन-चुम्बी शिखरों को आलिंगन किया है। पर इस सारे प्रोसेस में उसका जीवन बहुत जटिल बन गया है, वह अपने ही बने हुए किले में बंद है। वह अपने चारों ओर सुरक्षा का कवच खड़ा करता है और उसी में फँस कर जाता है।

अतः यह मानव के साथ शायद त्रासदी ही है कि वह कुछ सोचता ज्यादा है, इसी प्रक्रिया में चारों ओर तमाम बड़े-2 दैत्य और उपकरण आ खड़े हुए हैं। इसी प्रक्रिया में उसने अनेक नियमों, कायदों, सभ्यताओं और धर्म इत्यादि को चारों ओर खड़ा कर लिया है। अपने क्षेत्र की रक्षा की प्रवृत्ति सब प्राणियों में देखी जाती है, इसी लिए उसने बड़े-2 आयुध बना लिए हैं, सेनाऐं खड़ी की है। लोगों को बहला-फुसला, डरा-धमका, लालच इत्यादि देकर आतंकवाद जैसे भयंकर अजगर को मानव के सामने खड़ा कर दिया है। हम दूसरों से अच्छे हैं और अन्य निकृष्ट हैं अथवा और हमारे से श्रेष्ठ क्यों हैं? इस तरह के प्रश्न अपने आपसे करने बजाय, इसको केवल तुलनात्मक दृष्टि से लेते। जब कि यह घृणा, द्वेष तथा बदले की भावना में लिया जा रहा है, मेरे साथ भी तो होगा यह हम भूल गए है। हाँ जब भी मेरे साथ कोई अन्याय होता है तो मैं विचल उठता हूँ और फिर समस्त संसार को अपना शत्रु समझने लगता हूँ। फिर जब मैं ऐसा स्वयं ऐसा करता हूँ तो कोई बात नहीं। फिर सब मनुज तो एक जैसे नहीं हैं, सबमें किसी बात पर प्रतिक्रिया आवश्यक नहीं है कि एक जैसी ही हो। कुछ जबकि ऐसे विषयों को केवल मज़ा लेने के लिए करते हैं, अन्य उसे बड़े ही सहज भाव से लेते है तथा अन्य हो सकता है कि इस तरह की घटनाओं के प्रति संवेदनशील हों और एक समझदारी पूर्वक व्यव्हार करते हैं।

अतः हम सब सब एक होकर भी एक नहीं है। हाँ, हमारा सबसे ऊपर और नीचे का व्यव्हार एक जैसा है जबकि बीच की स्थितियाँ बदली हैं पर फिर भी इतना निराशा का भाव नहीं होना चाहिए। हर एक रात के बाद सवेरा हो ही जाता है। वे मनुज हैं, जिन्हें अपने कर्त्तव्यों का अहसास तो है। वे मनुज भी अच्छे हैं जो अन्यों को देखकर भी अपनी जिम्मेवारियों के प्रति संवेदनशील हैं। अतः महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनी कोशिशों में रहें, दूसरे की भावनाओं की कुछ कद्र करें, केवल अपनी ही बात नहीं बल्कि उनकी भी परिस्थितियों को ध्यान में रखें। अपनी प्रतिक्रिया करे लेकिन उससे कभी किसी के प्रति अनादर का भाव न हो। सबको अपना जीवन अपने ढंग से जीने का अधिकार है और वे कैसा सोचते हैं, तुम्हें ज्यादा सरोकार नहीं होना चाहिए जब तक कि वह तुम्हारे लिए कोई बहुत कठिनाई पैदा न करे। 

तुम्हारे लिए महत्त्वपूर्ण मुख्यतया तुम स्वयं होने चाहिए। तुम्हे अपने जीवन की चिंता अधिक होनी चाहिए।  तुमने स्वयं को सुधार लिया तो मान लो कि तुम इस संसार का बहुत भला कर सकते हो। क्योंकि यदि तुम बिगड़े हुए हो तो ज्यादा नुकसान कर कर सकते हो। फिर तुम दूसरों के लिए भी उदहारण बन सकते हो और अपने जीवन को सफल बन सकते हो। पर प्रश्न है कि सुधारना क्या है - पातंजल योगदर्शन में आता है कि यम, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान, ये क्रिया-योग हैं। अतपस्वी को योग सिद्ध नहीं होता। तपस्या का अर्थ है-विषय-सुख का त्याग अर्थात कष्ट सहन के साथ जिन कर्मों से आपात सुख होता है उन कर्मों के निरोध की चेष्टा तप है। तपस्या है प्राणायाम, ईश्वर को कर्म फल का अर्पण आदि। पर्णवादि पवित्र मन्त्रों का जप अथवा मोक्ष-शास्त्र का अध्ययन स्वाध्याय है। ईश्वर प्रणिधान है- परम गुरु ईश्वर को समस्त कर्मों का तर्पण अथवा कर्मफलांकांशा का त्याग।  

असली बात है कि तुम स्वयं अपना अध्ययन करो, इसके लिए जो भी मानव को समझने के लिए जो भी सामग्री उपलब्ध होती है, उसे प्राप्त करो। महापुरुषों के कथन को ध्यान देकर देखो, जानने की कोशिश करो कि उनका क्या अर्थ है और उनका क्या प्रयोजन है और फिर यदि वह तुम्हारे को जँचता है तो अपने जीवन में प्रयोग करो। पर याद रखो कि जीवन इतना भी बड़ा नहीं है कि तुम मूर्खों की भांति समय गँवाते रहो। जीवन में बड़ा करने के लिए बड़ा बनना पड़ेगा। जीवन की पूरी तरह से जीने की कोशिश करो। अपनी शारीरिक और मानसिक शक्ति का विकास करो। अपनी वाणी को मधुर बनाओ और न किसी को कभी भी हानि पहुँचाने की कोशिश करो। अपने जीवन की कुछ योजना करो- कल का तुम्हारा जीवन कैसा होगा और तुम कैसा चाहते हो। क्या तुम आज से उसमें सुधार चाहते हो तो उपाय कौन से सुझाते हो। संतुलित होकर तुम यदि ऐसा व्यवहार करोगे तो कोई वजह नहीं कि कहीं हार का सामना करना पड़े। आंशिक सफलता या विफलता पर बस बहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। अपने प्रति ईमानदारी बरतो फिर परवाह नहीं करो कि कोई कैसा सोचता है। क्योंकि समझ लो कि यह तुम ही हो जो स्वयं पर कुछ अंकुश लगा सकते हो। हाँ प्रकृति का नियम है - ठीक की ठीक ही परिणीति होती है हालाँकि थोड़ा सावधान होने की आवश्यकता है। किसी से दुर्व्यवहार मत करो लेकिन जब दूसरे सीमा से आगे बढे तो सख्ती से उसे बोल देना चाहिए।  डरना किससे है- वह परमात्मा सबका ध्यान रखना वाला है। 

पवन कुमार,
24 नवम्बर, 2014 समय म ० रा ०  00:39
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 08 अगस्त, 2001 समय 17:47 अपराह्न से )    

Saturday, 8 November 2014

कुछ प्रकृतिमय

कुछ प्रकृतिमय  


इस प्रकृति में रमना चाहता, सब चराचर अपना बनाना चाहता मैं

इन चिड़ियों की चीं-चीं, गिलहरियों की गिटगिट, भोर-सौंदर्य में॥

 

मैं निकलता प्रातः भ्रमण को, तो खग-वृन्द की किलकारियाँ होती

कभी फुदकती, कभी उड़ती, मीठे गीत सुनाती और हैं इठलाती।

पूँछ हिलाती, एक डाल से दूजी पर उड़ती, कभी आपस में लड़ती

कभी भूमि, शाखा पर पत्तों में छुपी, या सूखे ठूँठ पर हैं बैठ जाती॥

 

कभी दाना चुगती हैं, गर्दन घुमा बाऐं-दाऐं देखती चौकन्नी से बड़ी

कभी सुस्त प्रतीत, सत्य में विपरीत, दर्शन से ही प्राण सा हैं भरती।

मोर- कोतरी, तोते- मैना, सोनचिरैया, चिड़ियाँ हैं काली-भूरी- हरी

कभी बाज दर्शित, उल्लू- नीलकंठ, एक काला बड़ा भी है पक्षी॥

 

कोयल-कठफोड़वे-कबूतर आदि, औरों को न जानूँ -पहचानता

पर क्षेत्र समृद्ध खग-विचित्रता में, व पक्षी-प्रेमी के लिए है अच्छा।

खेतों में सफ़ेद बगुले गर्दन उच्च किए, चलते शहनशाह की भाँति

कई टिटहरियाँ भूमि पर बैठी कुछ चुगती, और फिर उड़ जाती॥

 

इन पक्षी-मित्रों से कुछ हिल-मिल सा गया, रोज नया रोमांच होता

उनसे बात करने की कोशिश करता, शायद निकले कुछ कविता।

क्रोंच-पक्षी क्रंदन ने, अनपढ़ वाल्मीकि को बना दिया जगत-कवि

और अद्भुत रचित उनकी कलम से, धरोहर है संपूर्ण जगत की॥

 

कभी घास चरता नीलगाय-झुंड दिखता, अभी तक छः-सात देखी

बड़े-नयनों से देखती, खतरे पर बड़ी छलाँग लगा दूरी तय करती।

बड़े आनंद से हैं चरती, जुगाली करती, आदमी देख चौकन्नी होती

अनेक वृक्ष यहाँ ऊँचे-नीचे धरातल में, विशाल क्षेत्र में वे विचरती॥

 

बहु खरगोश-गिलहरियाँ हैं विचरते, यह प्राकृतिक निवास उनका

विश्व-विद्यालय भूमि-क्षेत्र लगभग ५५० एकड़ है, प्रायः ऊसर सा।

यहाँ अधिकतर बालू-रेत के टिब्बे हैं, और कुछ जगह समतल भी

देसी-काबुली कीकर, जांटी-जाल पेड़, झाड़ी-बेर विस्तारित भी॥

 

कुछ मरूस्थल-वनस्पति सी यहाँ, और अधिकतर काँटेदार गाछ

यह भूमि पंचायत द्वारा दान है, तीन गाँव पाली, धौली और जांट।

तीन महाद्वार हरियाणा विश्व-विद्यालय ने बनाए, इन ग्राम-नाम से

सीमा-प्राचीर खींची चार वर्ष पहले, पर कुछ क्षेत्र विवाद-ग्रस्त है॥

 

कृषि-शून्य भूमि थी यह पूर्व, उत्तम शिक्षा उद्देश्य हेतु दी गई अतः

कुछ विचित्र विश्वविद्यालय बनेगा यहाँ, और क्षेत्र होगा विकसित।

शिक्षा-क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण, यहाँ अति विकास है अपेक्षित

लोग कृषि-पशुपालन पर ही निर्भर, अन्य व्यवसाय हैं आवश्यक॥

 

मैं प्रातः अकेला घूमता हूँ, प्रकृति में खो जाता, सोचती रहती बुद्धि

सुबह की धूप, खुला-आकाश, दूर तक हरितिमा में जाती है दृष्टि।

अति-स्वच्छ वायु, प्रदूषण-मुक्त परिवेश है, दूर नगर-कोलाहल से

 अब विश्व-विद्यालय के क्षेत्रपाल-कर्मी दिखते, व प्रेमी भोर-सैर के॥

 

रात्रि-निशा में प्रकृति से पूर्ण संपर्क, चंद्रमा अनुपम छटा बिखेरता

तारें मोटे-अति स्पष्ट, माना कृत्रिम प्रकाश से कुछ अवरोध होता।

क्षेत्र बहुत विशाल-समृद्ध, अतः सौभाग्यशाली कि हूँ प्रकृति-गोद

फिर निज समय, अध्ययन-लेखन के लिए काफी समय उपलब्ध॥

 

मैं गाना चाहता प्रकृति के संग, रग-रग में संगीत स्फुटित करना

एक-२ पल इसमें आह्लादित होकर, जीवन को महकाना चाहता।

चाहूँ अति संगीत-तानों से इस कलम द्वारा, कुछ रुचिकर हो जाए

समय का संपूर्ण उपयोग, जीवन सार्थक बनाने में सफल हो जाए


 

पवन कुमार,
08 नवम्बर, 2104 समय 17:07 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 10 अक्टूबर, 2014 समय 09:18 प्रातः से )
  


Saturday, 1 November 2014

शून्य-ध्वनि

शून्य-ध्वनि 


शून्यता-आलम, बुद्धि-खालीपन व चेतन निष्क्रिय

बैठा विमूढ़ कागज़ पटल, निहारता लेखनी-संघर्ष॥

 

बुद्धि-गुणवत्ता बहुत मंद, न रहा इसे सूझ कुछ भी

पर बड़ा स्थिति-आनंद, शून्यता परिलक्षित क्योंकि।

सदा एक सम तो स्थिति असंभव, निज शून्यता-रस

वही प्रतिक्षण, यथा-स्थिति न्यूनता का कराती बोध॥

 

वैसे कुछ अनावश्यक ही, स्वयं सदा रखना व्यस्त

कुछ क्षण सुस्ताने के भी, व हल्के मूढ़ में मस्तिष्क।

वे देते अनुभूति हर क्षण की गरिमा, भंगिमा व वेग

निज को स्वयं-निकट लाने में, होते सहकर्मी परम॥

 

प्रथम हम भूल जाऐं स्व को, और सकल जग-कर्म

बस गहन डूब जाऐं शंकर भाँति, शांति में निमग्न।

जब कोई वजूद ही न, तो परिभाषा भी अनावश्यक

बस डूबें, हिचकोले खाते, कभी बाहर-कभी अंदर॥

 

खो गए उस गहराई में, परिभाषा विशाल जिसकी

कुछ भी बाह्य ज्ञात नहीं, कुछ नए में विस्मृत हैं ही।

एक स्वप्न से में, निज टटोलने की करते हैं कोशिश

जहाँ तो बहुत अस्पष्ट है, मन भी नहीं देता विवेक॥

 

जहाँ प्रति अंग- मनन-उपक्रम की गति है मद्धम

वहीं त्राटक अपने ध्यान-मनन हेतु, है प्रयासरत।

जिज्ञासु चक्षु मात्र कागज़-लेखनी पर ही है केंद्रित

कर्ण किंचित धोखा देते, बाह्य -शोर लेते ही सुन॥

 

यहाँ इस कलम पकड़ी उँगलियों का ही है सहाय

कुछ प्रयास करती, बेचैनी बावजूद बढ़ती है अग्र।

मन तो निष्प्रद-निष्क्रिय है, अनुत्तीर्ण व ज्ञान-शून्य

वह भी बस देखता रहता, कैसे-क्या-क्यों घटित॥

 

इन एकाकी पलों में, जिंदगी कोई न है सुविदित

जैसे सो रहा हूँ मृत्यु- शैया, कभी न होने जागृत।

एक स्थिति जो परे है, प्रपंच- व्यवधानों से समस्त

छूट गए जग-झमेलों से, हेतु मुक्ति-रसास्वादन॥

 

अकिंचन, सहज-विरल, सरल-बालपन से ये पल

योगी मस्त स्वयं में, आंतरिक साम्राज्य में निज।

बहुत दर्शित तो न, परन्तु मात्र अनुभव ही निकट

बाह्य स्थिति महज़ स्पर्धा कराती, अंतः-प्रमाद न॥

 

इसका कुछ स्वाद लें, मन-मस्तिष्क विराम प्राप्त

जानकर निष्फलता ही, उसमें कुछ रंग तो लें भर।

विभिन्न स्थितियाँ- अनुभव, यहाँ भी महसूस होता

माना कि कम ही गति है, त्यों भी जहान अपना॥

 

प्रगाढ़ चिंतन स्थिति न, क्योंकि मात्र है अस्पन्दन

अपनी निष्क्रियता-स्थिति का तो है अलग आलम।

न चाहिए चिंतन ही अनुपम, रहना चाहता में इसी

जब इतना सहज है, तो बाह्य- ज्ञान की भूख नहीं॥

 

श्वास सहज, लेटा उलटे तकिए, बालासन-मुद्रा कुछ

उदर को बाऐं से सहारा, उसके स्वास्थ्य हेतु उचित।

बैठा यहाँ निज संग आने को, नहीं गया प्रातः-भ्रमण

सोचा यह भी महत्त्वपूर्ण, कमी पूरी करेगा व्यायाम॥

 

कैसा यह परवान-नशा चढ़ा, कुछ अन्य चाहता नहीं

अपनी स्थिति में मस्त, एक छोटी सी दुनिया बना ली।

उस कबीर सी फकीरी-बादशाही, तुलसी सी कल्पना

कोई संस्कार भी न हैं, रहें पीछे, छोड़ दिया अकेला॥

 

आश्चर्य, इसमें कुछ भी न पीड़ा, न ही कोई संकुचन

न कोई बाहर की लाज़-तंज, न दृश्यों का प्रसाधन।

न यहाँ प्रलोभन ही कोई भी, न अन्यों का डाह-डर

सकल ही निर्भीक यहाँ, मीरा पहुँची अपने कृष्ण॥

 

कहाँ खो गया है सब बाह्य, जिससे था प्रगाढ़ जुड़ा

निज न कोई वज़ूद, सब फक्कड़ सा उसमें रमा।

न चाहत या बहाना है, न प्रमुदित-दुखीपन कारण

सब एक सम ही विचरें, न है निम्न-उच्च का भेद॥

 

मैं आया इस स्थिति में, या किसी ने भिजवाया फिर

देने रोमांच इन पलों का, जब मस्तिष्क निद्रा-मग्न।

फिर यह कैसे संभव, व क्या इसका अर्थ बना कोई

क्या यह विचित्रता-गमन दिशा, या यूँ भ्रम-स्थिति॥

 

फिर भी मुझे नहीं जाना, किन्हीं बाह्य आकर्षणों में

यह अति सहज लगता, क्योंकि बहुत ही मधुर है।

मेरा मन ही मेरा सुहृद है, यही तो फिर अग्र बढ़ाता

वरन तो कथित चेतन क्षणों में, मात्र प्रमाद ही भरा॥

 

हम बहुत करते छलावा, इस बाह्य जीवन-निर्वाह में

कितने कर्कश बन जाते, और बकते बिन ही समझे।

न सुनना-कहना आता, फिर भी देखो संवाद में रहते

और अपने में गर्वित होते कि वाक-युद्ध में जीत गए॥

 

अति-न्यून समझते विषय, तथापि निज ज्ञान हैं बघारते

अन्यों को किंचित श्रेष्ठ पा, स्वयं को धिक्कार सा पाते।

अति-अवमूल्यन जीवन का, इसकी खोज-खबर नहीं

फिर जैसा है आया बिताया, न बहुत ही भली स्थिति॥

 

क्या इस परम-शून्यता का अर्थ, क्या ध्यान-स्थिति यह

कैसे समझे हम अन्तर को, क्या इसमें आशा है कुछ?

माना सहज योग-समाधि सी में, तो भी परमानुभूति न

न जानता कुंडलिनी-शक्ति, मस्तिष्क बस अवचेतन॥

 

पर फिर भी डूबा रहना चाहता, माना कि यही जीवन

नहीं भ्रमित करती हैं जंजीरें, न उनका ध्यान ही कुछ।

मैं तो फिर स्वयं में खोया, और आनन्दों की चाह नहीं

अकूत-शक्ति समाहित स्व में, चिन्ता का विषय नहीं॥

 

प्रयोग रहित व परिणाम-आशा, परस्पर विरोधाभास

कुछ जीवन -यत्न सीखने को, मन में अति अभिलाष।

तथापि असंवाद, निमग्न स्थिति में रहने का ही विचार

इसी शून्यता में अधिकाधिक प्राण-खोज का प्रयास॥

 

किस से कहे स्थिति अपनी, उन हेतु शायद हो विचित्र

इसको रोगी कहे या योगी, कुछ भी तो है न चिन्हित।

बुद्धि के खेल निराले यहाँ, अपनी धुन में यह ले जाता

हम बस वस्तु हैं इस हेतु और विभिन्न रोमांच कराता॥

 

कहीं डूबें-गोता लगाऐं, कहीं तैर कर आने का प्रयास

कभी करें सार्थकता-प्रयत्न, कभी मूढ़ता में जन्म ह्रास।

कहीं है सफल संवाद, लज्जा स्व-दुर्बलताओं पर कहीं

कहाँ से चले थे कहाँ पहुँचे, केवल इसे है सुध इसकी॥

 

पानी केरा बुदबुदा, इस मानुष की जात;

देखत ही छुप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।`

कबीर सम मनीषी भी, इसे अति क्षणिक ही पाते

सहज-सजग मनोध्वनि, इस जग को हैं बतलाते॥

 

एक-२ पल ऐसे अनुभव में बीते, यही मेरी कामना

इनको व्यर्थ गँवाने से तो, और भी घोर है निराशा।

कुछ अमूल्य पल ऐसे भी, जिनमें जाऐं पूर्णतः डूब

तब मन भी साथ देगा, रूहानी हो जाने को कुछ॥

 

उससे तो फिर परिमाण, कहाँ पहुँचे, क्या अनुभव

कितना समझा जीवन-स्पंदन, किया सार्थक कुछ?

कितना अंश समृद्ध हुआ है, आत्म-समीप जाने से

कुछ ज्ञान कण जुटा पाऐं, इस अन्वेषण अंतः के?

 

करूँ हृदय से प्रयास, हो विश्वास व समस्तता-बोध

निकले अंतः से तब सुधा, जिससे हो जीवन पुनीत।

तज प्रपंच सभी, अपनी युक्ति-संगति अंदर लगाऊँ

और ज्ञान-पथ पर बढ़, इस जीवन को धन्य बनाऊँ॥



पवन कुमार,
01 नवम्बर, 2014 समय 21:20 सांय 
(मेरी डायरी दि० 24 मई 2014, समय 9:30 प्रातः से)