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Saturday, 1 November 2014

शून्य-ध्वनि

शून्य-ध्वनि 


शून्यता-आलम, बुद्धि-खालीपन व चेतन निष्क्रिय

बैठा विमूढ़ कागज़ पटल, निहारता लेखनी-संघर्ष॥

 

बुद्धि-गुणवत्ता बहुत मंद, न रहा इसे सूझ कुछ भी

पर बड़ा स्थिति-आनंद, शून्यता परिलक्षित क्योंकि।

सदा एक सम तो स्थिति असंभव, निज शून्यता-रस

वही प्रतिक्षण, यथा-स्थिति न्यूनता का कराती बोध॥

 

वैसे कुछ अनावश्यक ही, स्वयं सदा रखना व्यस्त

कुछ क्षण सुस्ताने के भी, व हल्के मूढ़ में मस्तिष्क।

वे देते अनुभूति हर क्षण की गरिमा, भंगिमा व वेग

निज को स्वयं-निकट लाने में, होते सहकर्मी परम॥

 

प्रथम हम भूल जाऐं स्व को, और सकल जग-कर्म

बस गहन डूब जाऐं शंकर भाँति, शांति में निमग्न।

जब कोई वजूद ही न, तो परिभाषा भी अनावश्यक

बस डूबें, हिचकोले खाते, कभी बाहर-कभी अंदर॥

 

खो गए उस गहराई में, परिभाषा विशाल जिसकी

कुछ भी बाह्य ज्ञात नहीं, कुछ नए में विस्मृत हैं ही।

एक स्वप्न से में, निज टटोलने की करते हैं कोशिश

जहाँ तो बहुत अस्पष्ट है, मन भी नहीं देता विवेक॥

 

जहाँ प्रति अंग- मनन-उपक्रम की गति है मद्धम

वहीं त्राटक अपने ध्यान-मनन हेतु, है प्रयासरत।

जिज्ञासु चक्षु मात्र कागज़-लेखनी पर ही है केंद्रित

कर्ण किंचित धोखा देते, बाह्य -शोर लेते ही सुन॥

 

यहाँ इस कलम पकड़ी उँगलियों का ही है सहाय

कुछ प्रयास करती, बेचैनी बावजूद बढ़ती है अग्र।

मन तो निष्प्रद-निष्क्रिय है, अनुत्तीर्ण व ज्ञान-शून्य

वह भी बस देखता रहता, कैसे-क्या-क्यों घटित॥

 

इन एकाकी पलों में, जिंदगी कोई न है सुविदित

जैसे सो रहा हूँ मृत्यु- शैया, कभी न होने जागृत।

एक स्थिति जो परे है, प्रपंच- व्यवधानों से समस्त

छूट गए जग-झमेलों से, हेतु मुक्ति-रसास्वादन॥

 

अकिंचन, सहज-विरल, सरल-बालपन से ये पल

योगी मस्त स्वयं में, आंतरिक साम्राज्य में निज।

बहुत दर्शित तो न, परन्तु मात्र अनुभव ही निकट

बाह्य स्थिति महज़ स्पर्धा कराती, अंतः-प्रमाद न॥

 

इसका कुछ स्वाद लें, मन-मस्तिष्क विराम प्राप्त

जानकर निष्फलता ही, उसमें कुछ रंग तो लें भर।

विभिन्न स्थितियाँ- अनुभव, यहाँ भी महसूस होता

माना कि कम ही गति है, त्यों भी जहान अपना॥

 

प्रगाढ़ चिंतन स्थिति न, क्योंकि मात्र है अस्पन्दन

अपनी निष्क्रियता-स्थिति का तो है अलग आलम।

न चाहिए चिंतन ही अनुपम, रहना चाहता में इसी

जब इतना सहज है, तो बाह्य- ज्ञान की भूख नहीं॥

 

श्वास सहज, लेटा उलटे तकिए, बालासन-मुद्रा कुछ

उदर को बाऐं से सहारा, उसके स्वास्थ्य हेतु उचित।

बैठा यहाँ निज संग आने को, नहीं गया प्रातः-भ्रमण

सोचा यह भी महत्त्वपूर्ण, कमी पूरी करेगा व्यायाम॥

 

कैसा यह परवान-नशा चढ़ा, कुछ अन्य चाहता नहीं

अपनी स्थिति में मस्त, एक छोटी सी दुनिया बना ली।

उस कबीर सी फकीरी-बादशाही, तुलसी सी कल्पना

कोई संस्कार भी न हैं, रहें पीछे, छोड़ दिया अकेला॥

 

आश्चर्य, इसमें कुछ भी न पीड़ा, न ही कोई संकुचन

न कोई बाहर की लाज़-तंज, न दृश्यों का प्रसाधन।

न यहाँ प्रलोभन ही कोई भी, न अन्यों का डाह-डर

सकल ही निर्भीक यहाँ, मीरा पहुँची अपने कृष्ण॥

 

कहाँ खो गया है सब बाह्य, जिससे था प्रगाढ़ जुड़ा

निज न कोई वज़ूद, सब फक्कड़ सा उसमें रमा।

न चाहत या बहाना है, न प्रमुदित-दुखीपन कारण

सब एक सम ही विचरें, न है निम्न-उच्च का भेद॥

 

मैं आया इस स्थिति में, या किसी ने भिजवाया फिर

देने रोमांच इन पलों का, जब मस्तिष्क निद्रा-मग्न।

फिर यह कैसे संभव, व क्या इसका अर्थ बना कोई

क्या यह विचित्रता-गमन दिशा, या यूँ भ्रम-स्थिति॥

 

फिर भी मुझे नहीं जाना, किन्हीं बाह्य आकर्षणों में

यह अति सहज लगता, क्योंकि बहुत ही मधुर है।

मेरा मन ही मेरा सुहृद है, यही तो फिर अग्र बढ़ाता

वरन तो कथित चेतन क्षणों में, मात्र प्रमाद ही भरा॥

 

हम बहुत करते छलावा, इस बाह्य जीवन-निर्वाह में

कितने कर्कश बन जाते, और बकते बिन ही समझे।

न सुनना-कहना आता, फिर भी देखो संवाद में रहते

और अपने में गर्वित होते कि वाक-युद्ध में जीत गए॥

 

अति-न्यून समझते विषय, तथापि निज ज्ञान हैं बघारते

अन्यों को किंचित श्रेष्ठ पा, स्वयं को धिक्कार सा पाते।

अति-अवमूल्यन जीवन का, इसकी खोज-खबर नहीं

फिर जैसा है आया बिताया, न बहुत ही भली स्थिति॥

 

क्या इस परम-शून्यता का अर्थ, क्या ध्यान-स्थिति यह

कैसे समझे हम अन्तर को, क्या इसमें आशा है कुछ?

माना सहज योग-समाधि सी में, तो भी परमानुभूति न

न जानता कुंडलिनी-शक्ति, मस्तिष्क बस अवचेतन॥

 

पर फिर भी डूबा रहना चाहता, माना कि यही जीवन

नहीं भ्रमित करती हैं जंजीरें, न उनका ध्यान ही कुछ।

मैं तो फिर स्वयं में खोया, और आनन्दों की चाह नहीं

अकूत-शक्ति समाहित स्व में, चिन्ता का विषय नहीं॥

 

प्रयोग रहित व परिणाम-आशा, परस्पर विरोधाभास

कुछ जीवन -यत्न सीखने को, मन में अति अभिलाष।

तथापि असंवाद, निमग्न स्थिति में रहने का ही विचार

इसी शून्यता में अधिकाधिक प्राण-खोज का प्रयास॥

 

किस से कहे स्थिति अपनी, उन हेतु शायद हो विचित्र

इसको रोगी कहे या योगी, कुछ भी तो है न चिन्हित।

बुद्धि के खेल निराले यहाँ, अपनी धुन में यह ले जाता

हम बस वस्तु हैं इस हेतु और विभिन्न रोमांच कराता॥

 

कहीं डूबें-गोता लगाऐं, कहीं तैर कर आने का प्रयास

कभी करें सार्थकता-प्रयत्न, कभी मूढ़ता में जन्म ह्रास।

कहीं है सफल संवाद, लज्जा स्व-दुर्बलताओं पर कहीं

कहाँ से चले थे कहाँ पहुँचे, केवल इसे है सुध इसकी॥

 

पानी केरा बुदबुदा, इस मानुष की जात;

देखत ही छुप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात।`

कबीर सम मनीषी भी, इसे अति क्षणिक ही पाते

सहज-सजग मनोध्वनि, इस जग को हैं बतलाते॥

 

एक-२ पल ऐसे अनुभव में बीते, यही मेरी कामना

इनको व्यर्थ गँवाने से तो, और भी घोर है निराशा।

कुछ अमूल्य पल ऐसे भी, जिनमें जाऐं पूर्णतः डूब

तब मन भी साथ देगा, रूहानी हो जाने को कुछ॥

 

उससे तो फिर परिमाण, कहाँ पहुँचे, क्या अनुभव

कितना समझा जीवन-स्पंदन, किया सार्थक कुछ?

कितना अंश समृद्ध हुआ है, आत्म-समीप जाने से

कुछ ज्ञान कण जुटा पाऐं, इस अन्वेषण अंतः के?

 

करूँ हृदय से प्रयास, हो विश्वास व समस्तता-बोध

निकले अंतः से तब सुधा, जिससे हो जीवन पुनीत।

तज प्रपंच सभी, अपनी युक्ति-संगति अंदर लगाऊँ

और ज्ञान-पथ पर बढ़, इस जीवन को धन्य बनाऊँ॥



पवन कुमार,
01 नवम्बर, 2014 समय 21:20 सांय 
(मेरी डायरी दि० 24 मई 2014, समय 9:30 प्रातः से)

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