कुछ वास्तविक धरातल का अनुभव
हो, मात्र न आत्म-मुग्ध
स्वयं में तुम बहुत अल्प हो,
साथ में ले लो, एकता है शक्त॥
जग आया, भ्रांतियों में रहा,
जैसे बता दिया वैसा ही स्वीकृत
बचपन से कथा सुनता आया, कुछ
रोचक-अद्भुत-विचित्र।
उसने यह बताया, अन्य ने कुछ,
न पता किसका हो प्रभाव
मैं विस्मित-भ्रमित हूँ
जाता, एक विचार तो न जिसे लूँ मान॥
'अपनी ढ़फ़ली अपना राग', सभी अलाप रहे हैं अपने-२
सुर
कुछ तो परम-सत्य मान लेते,
सब अपने सत्य लेकर भटक।
स्व-श्रेष्ठता भाव भी लेकर,
चूर हो रहे सब दबंग निज मद में
यह हमने या पूर्वजों ने रचा,
नितांत सत्य- अन्य क्यूँ न माने॥
मैं ज्ञानी हूँ, वह अज्ञानी,
निपट निर्बुद्धि है मेरी नहीं ही सुनता
क्यों न मेरे नियम मानता,
शत्रु है सख़्ती से पड़ेगा समझाना।
मेरा यह ईष्ट सर्वश्रेष्ठ-
व्यापक है, आओ तो इसको अपना लो
छोड़ो सब मिथ्या, ग्रहण करो
यह सत्य, हम्हीं हैं जगत-गुरु॥
क्या यह अतिश्योक्ति, जानबूझ
या मंथन निकसित कुछ तत्व
या है मात्र भ्रामक कथन
स्वार्थ-सिद्धि, करने को पूर्ति-उदर।
निज-सम सहायता करते हैं,
उचित-अनुचित को आगे बढ़ाते
संगठन-व्याख्या, नियम-यम,
चहुँ-विस्तार हेतु हैं यत्न करते॥
अब एक अंधा दूसरे को समझाए,
मैंने तो वह पा लिया है ऐसा
दूजा भी तब घोर तर्क करे-
तुम मिथ्या हो, मैंने तो ऐसा देखा।
यदि सहज है तो मान भी लेता,
जैसे बचपन में न उपाय अन्य
फिर व्यक्ति व परिवेश समक्ष,
भिन्नता-आदर हैं बहुत कारण॥
छोटेलाल भारणेय का काव्य 'Dilemma' पढ़ा था, बड़ा
भ्रमित
स्व को भिन्न-स्थितियों में
रख परख-यत्न करे, जाँचे विश्वास हर।
या तो निपट अज्ञानी, कोई
विषय-बोध न, चर्चा-मंथन में अक्षम
या मात्र दंभी-अविवेकी हैं,
जैसी स्थिति हो करते वैसा निर्वहन॥
शिवराम कारंथ के उपन्यास
'मुकज्जी' में इस पर कुछ है चिंतन
देवी-देवता एक नर-कल्पना,
शैशव से बताई जाती-लेते हैं मान।
विश्वास है, प्रश्न का
साहस-समय न, उसी मार्ग में हो जाते अडिग
निज को अल्प-सीमा में रखते,
न जानते- अन्य भी करते हैं प्रश्न॥
हम बहुत गलतियों पर हैं
होते, बहुदा सत्य के तो नहीं निकटता
बस यूँ ही जीवन व्यतीत करते,
न स्व-जाँचन, सम्पर्क अभावता।
कभी-२ विस्फोट भी होता, अन्य
विरोधियों से होता दुर्धर्ष संघर्ष
पुराने संस्कार सहज न छूटते,
सत्य मिल जाए तो भी अविश्वास॥
'Being Wrong- Adventures in the
Margin of Error'
कैथरीन शुल्ज़ की यह श्रेष्ठ
मनोवैज्ञानिक पोथी आजकल रहा पढ़
सब तरह के प्रश्न लेखिका है
उठाती, कैसे नर होता गलत-भ्रमित।
कैसे हमारा व्यवहार
एक-दिशात्मक ही, त्रुटि हैं कदाचित जानते
सत्य-अनुसंधानक कुछ विशेष पथ
निज, जग में प्रकाश ला पाते॥
प्रचलित विश्वास कुछ को न
जँचते, वे विस्तृत खोज में चलते पड़
माना गलत भी, पर पूर्ववर्ती
भी कितने जानते ही हैं कि समुचित।
आवश्यक नहीं जो
वर्तमान-उपलब्ध हैं, वही हो नितांत सत्य-वचन
तभी नर ने अनेक विसंगतियाँ
हैं पाई, किया विकास-पथ चिन्हित॥
मैं भी इस जगत में आया,
परिचय हुआ है कुछ उचित-अनुचित से
आयु -वृद्धि एक
सतत-प्रक्रिया, समस्त अनुभव भी संग-२ हैं चले।
यहाँ जितना देखूँ, उतना
उलझूँ, क्या सत्य है प्रायः जाँच नहीं पाऊँ
एक अंधक सम सब पथ एक जैसे
लगते, किसे अपनाऊँ या छोड़ूँ?
पर अबतक कुछ भी न चिपका है,
चिकने प्रस्तर सम सब फिसला
हाँ कुछ इतर-तितर विचार कर
लिया, अपनी भाँति उन्हें अपनाया।
एक स्वयं-सिद्धा या गुरु तो
न कह सकता, सब कुछ तो यहीं का है
हाँ एक अच्छा सा यदि एक छाज
बन जाऊँ, उसे ही लूँ जो ग्राह्य है॥
कबीर सम दृष्टि चिंतक-
व्यापक हो, सार को अपनाने का पूर्ण-यत्न
जाँचन-सामर्थ्य एक विशेष गुण
प्रक्रिया, वही तो हमें बनाए समर्थ।
जितनी भ्रान्ति-उतनी ही
व्याकुलता है, हाथ-पैर मार किनारा पा लो
यदि निकल सको व्यर्थ-बंधनों
से शीघ्र, मुक्ति निकट है -समझ लो॥
मेरे पूज्य पिताजी की तृतीय
पुण्य - तिथि पर समर्पित॥
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