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Friday, 25 March 2016

एक गीत

एक गीत 

गीत बना, सुर में गाऊँ, संग ही साज भी बजाऊँ

सुरीली मन-तान बना, तेरा रहमत-गीत सुनाऊँ॥

 

तू तो सबको पूर्ण ही देखे, गहराई में भी है झाँके

तब मेरी भी पहचान तो दे, आकर दर्पण दिखा।

कैसे हो वह मेरे पास भी, इसी बात की है चिंता

सदा संग में रहना चाहूँ, अंतः को बाहर निकालूँ॥

 

बंद पड़ा है मेरा डब्बा, व चाबी इसकी तेरे निकट

खोल दे तो दर्शन होवें, तब जानूँ कैसा है उज्ज्वल।

नहीं आवश्यक है, कि मैं अच्छा-भला ही होऊँगा

पर तेरे संग निज-निवास की, कुछ छाप पाऊँगा॥

 

निज अंतःमन के रत्नाकर में, डुबकी कैसे लगाऊँ

डरकर बैठा हूँ बाहर, न साहस जब कर ही पाऊँ।

होगी आत्मा मेरी पुलकित जब, तब दर्शन हों प्रभु

बैठा बाहर अन्त्यज की भाँति, कैसे मैं प्रवेश पाऊँ?

 

कैसे संभव होगा तेरा सुदर्शन, इसी सोच में हूँ बैठा

मैं तो हूँ नितांत ही रीता, आकर इसको भर के जा।

अनुकंपा करो फिर तो अपनी, इसे भी बना दो श्रेष्ठ

तैरुँ मैं भी जग-वैतरणी, तेरे में ही जाऊँ पूर्ण मिल॥

 

न ज्ञान कोई है -डोलूँ यूँ ही, नहीं समय का ही मान

शरण में तेरी आया प्रभु, करना इसका भी ध्यान॥



पवन कुमार,
25 मार्च, 2016 समय 18:47 सांय 
( मेरी डायरी 5 नवंबर, 2012 समय 11:10 से )

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