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Sunday, 29 May 2016

देश-समाज

देश-समाज 


गाँव- देश- समाज, जगत के कूचे, पृथक ढ़ंग से हैं विकसित

सबके निश्चित स्वरूप हैं, एक विशेष रवैया उनसे निकसित॥

 

सब छोटे-बड़े टोलों के स्वामी, निज भाँति धमकाते-गुर्राते हैं

सब निज-वश ही करना चाहे, विरोध-स्वर न सहन करते हैं।

हमारा परिवेश सबसे उत्तम है, सब इसको हृदय से स्वीकारें

यदि विसंगति तो भी सर्व हेतु सहो, सर्वोपरि समाज-सेवा है॥

 

माना संपर्क यदा-कदा बाह्य से भी, कहे अपने तो ये रिवाज़

हमारे विषयों में हस्तक्षेप न करो, तुम क्या करते, न मतलब।

निज विचार-विश्वास-रूढ़ि, कानून स्वीकृत हैं, हम स्व-मस्त

चाहे दंभी-निर्दयी-असहिष्णु, पर निज-आलोचना न स्वीकृत॥

 

जनों ने बनाया एक सोच का ढ़र्रा, कितना दोषपूर्ण न है विचार

विद्रोही चुपके से स्वर उठाते, प्रबल तंत्र उन्हें न देता परवान।

यदि ईष्ट-देव, श्रेष्ठ-पुरुष, श्रुति-पर्व, रिवाज़ दबंगों को स्वीकार

सम्मान प्रदत्त, अन्यथा सर्व विवेक-कर्म कर दिए जाते नकार॥

 

छोटे गाँव के बगड़-मोहल्ले, उनमें विभिन्न जातियाँ, गौत्र, कुल

निज संबंधी-घर-कुटुंब वहीं हैं, सदस्यों की सोच-विचार पृथक।

छोटे कस्बों से जुड़ें गाँव, बाह्य-दृष्टि से सबके तौर-तरीके भिन्न

गाँव विशेष से कुछ निर्धारित, नाम सुनते ही समक्ष एक चरित्र॥

 

एक गाँव-वासी को दूसरे में जाकर, न है सहन स्व-कमी कथन

निज-प्रतिष्ठा सबसे प्रिय, कोई अन्य अनर्गल बोले, नहीं सहन।

सबमें कुछ तो बदलाव होता, एक सम न है लोगों का व्यवहार

स्थल-काल, नर का विशेष परिवेश, सबको कमोबेश स्वीकार॥

 

निज जलवायु-वनस्पति-पर्वत, रेगिस्तान-फसल-पशु व आराध्य

कौन जन यहाँ सफल बनें, कितना प्रभाव है एक अवसर प्रदान।

कितना ज्ञान-सम्मान यहाँ पर, या केवल बाहुबल को ही महत्त्व

बहु-कारक समन्वय है विचित्र, जितने टोले उतने विविध रूप॥

 

अनेक हैं गाथाऐं- संस्मरण- शैली, इतिहास एवं जागरूकता निज

त्रुटियाँ, बेवकूफियाँ, नादानियाँ, कुरीतियाँ, कुकर्म एवं हैं सुकर्म।

जानवर, विशेष वृक्ष, उनसे जुड़ी भ्रान्तियाँ, निज ही देवी-आत्माऐं

अपने चौराहें-मोड़ हैं, आँगन, कच्चे-पक्के पथ व खलिहान-गोरे॥

 

निज वयवृद्ध हैं, उनकी फटकार-कथाऐं, दूर-दृष्टि, हिताकांक्षा सर्व

मूँछों पर ताँव, गंभीर-विषय पांडित्य, निकट किंतु कितना प्रभाव।

कितना आपसी-आदर, क्या सब सोलह-कलाओं का लाभ उठाते

किंतु परस्पर बाँटते सुख-दुःख, सब गुण-दोष सुभाँति हैं समझते॥

 

सामूहिक-लोभ, परस्पर चूना लगाना, धोखाधड़ी, ईर्ष्या व अपवाद

निपुणता-चिंतन अनुरूप आचार-शैली, फिर अवसर देख बदलाव।

जब निज टोलों में ही कई भिन्न रूप, फिर अन्य तो हैं अति-पृथक

तथापि संपर्क तो अवश्य उनसे भी, वरन एक जगह न सकते रह॥

 

पुरुष- गाथा, जीव- विविधता, नर आचार-व्यवहार में हैं बहु-बदलाव

जन्म-शिशु-बाल-किशोर-युवा-अधेड़-वृद्ध व परम-सत्य मृत्यु-प्रस्थान।

फिर सब निज गति- क्रिया से चलते हैं, कुछ शनै तो या शीघ्र किंचित

प्रारब्ध-गंतव्य तो सबका एक ही, मध्य कैसा बीता, है जीवन-वृतांत॥

 

पर यह व्यक्ति तक सीमित न है, कैसे बड़े स्वरूपों में समाज-लक्षित

वे भी दूर से मुहल्ले ही लगते, कुछ एक सम विशेष चरित्र है दर्शित।

पर जैसे ही इकाई से ऊपर गए, समानता मिले, विरोधाभास भी होते

अनेक धर्म-शैली-बर्ताव-रंग-रूप-बोली, रीति-रिवाज़, क्षेत्र-लगाव में॥

 

जब देखें एक राज्य को ध्यान से, भिन्न क्षेत्र-जिलों में प्रारूपता विशेष

उनकी बोली-समृद्धि, साक्षरता-स्वास्थ्य, प्रगति-स्तर और लोक-प्रेम।

पर विविधता होते भी भिन्न अंगों में, राज्य इकाई मान लिया है जाता

अंचल से स्तर उत्तर-पूर्व-पश्चिम-दक्षिण आदि पर भी बहु-समानता॥

 

बड़ा लघु से ही निर्मित, स्थूलतया भाषा- साहित्य-देव-मंदिर एकरूप

जन भूल जाते अंतर्विरोध को, समूहों में आकर खो देते निज पहचान।

अंतः-ज्ञान कि हम मात्र उस वृहद का ही अवयव, न कोई विषमता है

बड़े पर्व, पीर-पैगंबर, मेले-उर्स में आकर, सब समाधिस्थ होना चाहें॥

 

देश-स्तर पर सूक्ष्मता से देखें तो समस्त संस्कृति एक सम ही दिखती

भूमि-लोग, जलवायु-संस्कृति, साहित्य-कला, प्रगति सबमें हैं सजती।

निवासी समृद्धि-सम्पन्नता पर ही गौरवान्वित, अपना राष्ट्र ही सर्वोत्तम

अन्य तो असभ्य, जन-विरोधी, विधर्मी, आतंकी-समर्थक व विवादित॥

 

निज पर्वत-शिखर, समुद्र, हवाऐं, वर्षा, विविध जीव, फसल-वृक्ष-फल

कष्ट-सुख, विजय- हार सब मिल बाँटें, तीज-त्यौहार मनाऐं एक संग।

सुवीर-नायक, रक्षक, खिलाड़ी, कवि-साहित्यकार, और विद्वान अपूर्व

वास्तु-भवन, विज्ञान, आचार-शैली, स्वास्थ्य, अतः गर्वानुभूति नैसर्गिक॥

 

पर सब राष्ट्र न देते हैं सम्मान, जनसंख्या अनेक स्थल अल्प-विकसित

सबको न सुपरिवेश तो सर्वोत्तम कैसे, पर देखो अन्यों ने विस्तार कृत।

नहीं विरोधाभास विश्वासों-पहनावे से, इतिहास का भी हो सम्मान कुछ

परंतु सार्वजनिक हित-विकास कैसे हो सम्भव, गहन मंथन है वाँछित॥

 

आवश्यकता है योग्य, विशाल-उर नायकों की, मानवता ही निज-अंग

माना कुछ स्थल दूषित-संकुचित हैं; दमित वातावरण, प्रजा अवदलित।

प्रबंधन न्यूनतम मानवीय स्तर संभव, जब सब करें ही सुरक्षित अनुभव

जीवन का इतना भी न अल्पमूल्य, कुछ स्वार्थ त्यागो उचित ही है सब॥

 

कौन ले तब दायित्व प्रबंधन का, अनेकों ने स्व-क्षेत्रों में तीर तान रखे हैं

अनेक स्वयंभू बन बैठे निज क्षेत्रों में, उनकी इच्छा का सिक्का चलता है।

कितने धर्म-नाम पर दबाना चाहते हैं, हम ही राज्य, नियम-कानून, विज्ञ

बड़े समृद्धों का जन-संसाधन पर अतिक्रमण, निर्धन मात्र दया-अधीन॥

 

क्यों है मानसिक-भौतिक-आर्थिक असमता, कैसे नर हो विकासोन्मुख

शिक्षा-स्वास्थ्य, भोजन-जल, बौद्धिक-विकास से हो सबका ही परिचय।

जब जीवंतता- पाठ पढ़ोगे तो, परिवेश संभव है हिताय-सुखाय सर्वजन

तब अधिक दायित्व-समर्थ, 'वसुधैव-कुटुंबकम' प्राचीन उद्गीत अंततः॥



पवन कुमार,
29 मई, 2016 समय 23:39 म० रा० 
(मेरी डायरी 28 जून, 2015 समय 10:48 प्रातः से)     

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