गाँव- देश- समाज, जगत के
कूचे, पृथक ढ़ंग से हैं विकसित
सबके निश्चित स्वरूप हैं, एक
विशेष रवैया उनसे निकसित॥
सब छोटे-बड़े टोलों के
स्वामी, निज भाँति धमकाते-गुर्राते हैं
सब निज-वश ही करना चाहे,
विरोध-स्वर न सहन करते हैं।
हमारा परिवेश सबसे उत्तम है,
सब इसको हृदय से स्वीकारें
यदि विसंगति तो भी सर्व हेतु
सहो, सर्वोपरि समाज-सेवा है॥
माना संपर्क यदा-कदा बाह्य
से भी, कहे अपने तो ये रिवाज़
हमारे विषयों में हस्तक्षेप
न करो, तुम क्या करते, न मतलब।
निज विचार-विश्वास-रूढ़ि,
कानून स्वीकृत हैं, हम स्व-मस्त
चाहे दंभी-निर्दयी-असहिष्णु,
पर निज-आलोचना न स्वीकृत॥
जनों ने बनाया एक सोच का
ढ़र्रा, कितना दोषपूर्ण न है विचार
विद्रोही चुपके से स्वर
उठाते, प्रबल तंत्र उन्हें न देता परवान।
यदि ईष्ट-देव,
श्रेष्ठ-पुरुष, श्रुति-पर्व, रिवाज़ दबंगों को स्वीकार
सम्मान प्रदत्त, अन्यथा सर्व
विवेक-कर्म कर दिए जाते नकार॥
छोटे गाँव के बगड़-मोहल्ले,
उनमें विभिन्न जातियाँ, गौत्र, कुल
निज संबंधी-घर-कुटुंब वहीं
हैं, सदस्यों की सोच-विचार पृथक।
छोटे कस्बों से जुड़ें गाँव,
बाह्य-दृष्टि से सबके तौर-तरीके भिन्न
गाँव विशेष से कुछ
निर्धारित, नाम सुनते ही समक्ष एक चरित्र॥
एक गाँव-वासी को दूसरे में
जाकर, न है सहन स्व-कमी कथन
निज-प्रतिष्ठा सबसे प्रिय,
कोई अन्य अनर्गल बोले, नहीं सहन।
सबमें कुछ तो बदलाव होता, एक
सम न है लोगों का व्यवहार
स्थल-काल, नर का विशेष परिवेश,
सबको कमोबेश स्वीकार॥
निज जलवायु-वनस्पति-पर्वत,
रेगिस्तान-फसल-पशु व आराध्य
कौन जन यहाँ सफल बनें, कितना
प्रभाव है एक अवसर प्रदान।
कितना ज्ञान-सम्मान यहाँ पर,
या केवल बाहुबल को ही महत्त्व
बहु-कारक समन्वय है विचित्र,
जितने टोले उतने विविध रूप॥
अनेक हैं गाथाऐं- संस्मरण-
शैली, इतिहास एवं जागरूकता निज
त्रुटियाँ, बेवकूफियाँ,
नादानियाँ, कुरीतियाँ, कुकर्म एवं हैं सुकर्म।
जानवर, विशेष वृक्ष, उनसे
जुड़ी भ्रान्तियाँ, निज ही देवी-आत्माऐं
अपने चौराहें-मोड़ हैं, आँगन,
कच्चे-पक्के पथ व खलिहान-गोरे॥
निज वयवृद्ध हैं, उनकी
फटकार-कथाऐं, दूर-दृष्टि, हिताकांक्षा सर्व
मूँछों पर ताँव, गंभीर-विषय
पांडित्य, निकट किंतु कितना प्रभाव।
कितना आपसी-आदर, क्या सब
सोलह-कलाओं का लाभ उठाते
किंतु परस्पर बाँटते
सुख-दुःख, सब गुण-दोष सुभाँति हैं समझते॥
सामूहिक-लोभ, परस्पर चूना
लगाना, धोखाधड़ी, ईर्ष्या व अपवाद
निपुणता-चिंतन अनुरूप
आचार-शैली, फिर अवसर देख बदलाव।
जब निज टोलों में ही कई
भिन्न रूप, फिर अन्य तो हैं अति-पृथक
तथापि संपर्क तो अवश्य उनसे
भी, वरन एक जगह न सकते रह॥
पुरुष- गाथा, जीव- विविधता,
नर आचार-व्यवहार में हैं बहु-बदलाव
जन्म-शिशु-बाल-किशोर-युवा-अधेड़-वृद्ध
व परम-सत्य मृत्यु-प्रस्थान।
फिर सब निज गति- क्रिया से
चलते हैं, कुछ शनै तो या शीघ्र किंचित
प्रारब्ध-गंतव्य तो सबका एक
ही, मध्य कैसा बीता, है जीवन-वृतांत॥
पर यह व्यक्ति तक सीमित न
है, कैसे बड़े स्वरूपों में समाज-लक्षित
वे भी दूर से मुहल्ले ही
लगते, कुछ एक सम विशेष चरित्र है दर्शित।
पर जैसे ही इकाई से ऊपर गए,
समानता मिले, विरोधाभास भी होते
अनेक
धर्म-शैली-बर्ताव-रंग-रूप-बोली, रीति-रिवाज़, क्षेत्र-लगाव में॥
जब देखें एक राज्य को ध्यान
से, भिन्न क्षेत्र-जिलों में प्रारूपता विशेष
उनकी बोली-समृद्धि,
साक्षरता-स्वास्थ्य, प्रगति-स्तर और लोक-प्रेम।
पर विविधता होते भी भिन्न
अंगों में, राज्य इकाई मान लिया है जाता
अंचल से स्तर
उत्तर-पूर्व-पश्चिम-दक्षिण आदि पर भी बहु-समानता॥
बड़ा लघु से ही निर्मित,
स्थूलतया भाषा- साहित्य-देव-मंदिर एकरूप
जन भूल जाते अंतर्विरोध को,
समूहों में आकर खो देते निज पहचान।
अंतः-ज्ञान कि हम मात्र उस
वृहद का ही अवयव, न कोई विषमता है
बड़े पर्व, पीर-पैगंबर,
मेले-उर्स में आकर, सब समाधिस्थ होना चाहें॥
देश-स्तर पर सूक्ष्मता से
देखें तो समस्त संस्कृति एक सम ही दिखती
भूमि-लोग, जलवायु-संस्कृति,
साहित्य-कला, प्रगति सबमें हैं सजती।
निवासी समृद्धि-सम्पन्नता पर
ही गौरवान्वित, अपना राष्ट्र ही सर्वोत्तम
अन्य तो असभ्य, जन-विरोधी,
विधर्मी, आतंकी-समर्थक व विवादित॥
निज पर्वत-शिखर, समुद्र,
हवाऐं, वर्षा, विविध जीव, फसल-वृक्ष-फल
कष्ट-सुख, विजय- हार सब मिल
बाँटें, तीज-त्यौहार मनाऐं एक संग।
सुवीर-नायक, रक्षक, खिलाड़ी,
कवि-साहित्यकार, और विद्वान अपूर्व
वास्तु-भवन, विज्ञान,
आचार-शैली, स्वास्थ्य, अतः गर्वानुभूति नैसर्गिक॥
पर सब राष्ट्र न देते हैं
सम्मान, जनसंख्या अनेक स्थल अल्प-विकसित
सबको न सुपरिवेश तो
सर्वोत्तम कैसे, पर देखो अन्यों ने विस्तार कृत।
नहीं विरोधाभास
विश्वासों-पहनावे से, इतिहास का भी हो सम्मान कुछ
परंतु सार्वजनिक हित-विकास
कैसे हो सम्भव, गहन मंथन है वाँछित॥
आवश्यकता है योग्य, विशाल-उर
नायकों की, मानवता ही निज-अंग
माना कुछ स्थल दूषित-संकुचित
हैं; दमित वातावरण, प्रजा अवदलित।
प्रबंधन न्यूनतम मानवीय स्तर
संभव, जब सब करें ही सुरक्षित अनुभव
जीवन का इतना भी न
अल्पमूल्य, कुछ स्वार्थ त्यागो उचित ही है सब॥
कौन ले तब दायित्व प्रबंधन
का, अनेकों ने स्व-क्षेत्रों में तीर तान रखे हैं
अनेक स्वयंभू बन बैठे निज
क्षेत्रों में, उनकी इच्छा का सिक्का चलता है।
कितने धर्म-नाम पर दबाना
चाहते हैं, हम ही राज्य, नियम-कानून, विज्ञ
बड़े समृद्धों का जन-संसाधन
पर अतिक्रमण, निर्धन मात्र दया-अधीन॥
क्यों है
मानसिक-भौतिक-आर्थिक असमता, कैसे नर हो विकासोन्मुख
शिक्षा-स्वास्थ्य, भोजन-जल,
बौद्धिक-विकास से हो सबका ही परिचय।
जब जीवंतता- पाठ पढ़ोगे तो,
परिवेश संभव है हिताय-सुखाय सर्वजन
तब अधिक दायित्व-समर्थ, 'वसुधैव-कुटुंबकम'
प्राचीन उद्गीत अंततः॥
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