क्या पैमाना है निज-निष्ठा
का ही, राष्ट्रभक्ति और देश-प्रेम का
बस कुछ संवाद पुनरावृत्त, लो
हो गया अनुष्ठान सर्व-क्षेम का॥
क्यों एक मात्र सोच रखना ही
इच्छा, विरोध तो नहीं स्वीकार
हमारा कथन ही सत्य, अन्यों
को मनन-कथन नहीं अधिकार।
परिवेश निरत बस एक विचारधारा
का, अन्य तो घोषित द्रोही
चाहे विवाद का मूल- ज्ञान न
हो, पर संगठित हो उवाच सही॥
एक विशेष रंग- संवादों में
ही, देश-प्रेम प्रदर्शन की इति-श्री
क्या दैनंदिन यथार्थ आचार
है, उसमें तो श्रेष्ठता न झलकती।
प्रकृत्ति प्रदत्त सबमें
मस्तिष्क है, अपनी सोच का भी महत्त्व
यावत न सार्वजनिक हित-बाधक,
सहिष्णुता हो मूल-सत्त्व॥
सब समय की विचार-धाराओं में,
दक्षिण- वाम रहता है सदा
मस्तिष्क द्वि-कक्ष, दो लिंग, दो कर-पैर, सहकार
टाले विपदा।
सभी को निजी सोच रखने की स्वतंत्रता,
चाहे न हो सर्व-मान्य
चिंतन भी विकास- दौर से
गुजरे, अनेक स्वतः होते अमान्य॥
क्या परिवेश किसी देश का,
कैसे विज्ञ करते आचार-व्यवहार
जब शिक्षा-अर्थ उन्मुक्त न होने दो, कैसे पनपेगा
स्वच्छ प्यार?
सभी किसी स्तर पर एक काल,
परिस्थिति अनुकूल ही मनन
कथित विकसित-कर्त्तव्य भी,
उचित-समन्वय निर्माण सदैव॥
वैचारिक स्वतंत्रता हो
सर्वाधिकार, उस पर संभव तर्क-वितर्क
कुछ आदान- प्रदान सिलसिला,
शुभ मंशा से आदर-परस्पर।
सब मनुज स्व-कक्ष में रखना,
क्यों तुम देते अंत्यज्य संज्ञा नाम
उच्च-भावना जन्म की सर्व-जन
में, पूर्ण-भाव से ही कल्याण॥
विभिन्न काल-अवतरित
विश्व-चिंतक, अनावश्यक सम सोच है
अनुसरण रुचि-परिवेश अनुरुप
है, मन विकसित समय ही से।
मनीषी-चेष्टा भी
पूर्ण-समाधान हेतु, पर सब न हो पाते आकृष्ट
सकल चिंतन तो सर्वदा अलब्ध,
सत्य भी तो है मनन-अनुरुप॥
शिक्षणालय है एक विज्ञता-कुञ्ज,
श्रेष्ठ-बुद्धि परिचित विधाओं से
हैं असम साहित्य-रूचि, एक
काल-प्रगति, अमान्य कलाओं में।
क्या सब घोषित आचरण सटीक
हैं, पूर्ण नियत-प्रशासन तंत्र में
विद्वान गहन सोचते हैं,
सीमा-अतिक्रमण पर प्रश्न-चिन्ह लगाते॥
सब प्रजा यहाँ धरा-वासी,
प्रत्येक का सम्मान हर की जिम्मेवारी
सबकी जान-माल सुरक्षा,
स्वार्थ तज पूर्ण-पनपाने में भागीदारी।
निरंकुश नृप तो अनेक हुए
हैं, आम-जन निर्धन का शोषण अति
दमन-प्रवृत्ति घातक,
कुपरिवेश, अविकसित रह जाती संस्कृति॥
आओ मिल-बैठ करें
विचार-विमर्श, सर्वोत्तम चेष्टा हेतु मंथन हो
हर मनुज का पूर्ण-भाव विकास
हो, मात्र आडंबरों में न उलझो।
ऋतु-परिवर्तन सदा-काल की
माँग, घोषित कर दो सब एकसम
आचार-शैली हो संचालित, अतिशय
परस्पर- स्नेह वर्धन अयत्न॥
परस्पर सौहार्द-आदर भावनाओं
का, सर्व मनुज-जाति एक ही
पर किंचित स्वार्थ छोड़ दो,
सबके गृहों में हो समृद्धि-शांति ही।
पड़ौसी प्रति हो प्रेम का
रिश्ता, सब एक से हैं मान लो हृदय में
तजो असमता-भेद प्रत्यक्ष
आचार में, जुड़ेंगे सर्वांग देश-धर्म में॥
भारतीय संस्कृति अति-समृद्ध,
अनेक भाँति विचारक अवतरित
जीवन एक स्थल न सिमटा,
सर्व-दिशा देश-परिवेश से युजित।
शनै विश्व एक ग्राम में
परिवर्तित, आपसी मेल-निर्वाह अनिवार्य
क्यों अविश्वास ले
अश्वत्थामा सम शापित, प्रेम-मंत्र ही है यथार्थ॥
त्यागो घृणा, बढ़ाओ
बंधु-स्नेह, स्व-जन द्रोह अति महद-संक्रमण
विशालोर बनो रविंद्रनाथ सम,
विश्रुत-सम्मान, करो मृदुल चिंतन।
विश्व-बंधुत्व की बात करने
वाला देश, यूँ आवेश में न सकता रह
सर्व-दायित्व, महावीर-संदेश 'जिओ
और जीने दो' का अनुसरण॥
विरोध भी नहीं बुरा, पर अन्य
को घृणित संज्ञाओं से न करो मंडित
ऐक्य-अनिवार्य संप्रभुता
हेतु, अन्यथा कुविचार कर सकते खंडित॥
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