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Monday, 21 November 2016

ज्ञान-सोपान

ज्ञान-सोपान 



निरुद्देश्य तिसपर उत्कण्ठा तीक्ष्ण, अध्येय पर प्रखर आंतरिक-ताप

जीवन स्पंदन की चेष्टा में रत, मन-संचेतना कराती स्व से वार्तालाप॥

 

बहु-विद्याऐं मैं वशित, अबूझ-अपढ़, खड़ा विराट पुस्तकालय सम्मुख

आभ्यंतर का न साहस होता, डर कहीं प्रवेश न कर दिया जाय रुद्ध।

अंदर तो कभी गया नहीं, कुछ विद्वानों को करते देखा सहज- प्रवेश

गूढ़ परस्पर वार्तालाप में, कर में किताबें या स्व-निमग्न विचार-लुप्त॥

 

मैं ग्राम-बाल, राजकीय-विद्यालय शिक्षित, फिर नगर-स्कूल में पठन

मुट्ठी-भर साहस, सुसाधित देख आंशकित, अनुरूप संवाद न संभव।

सभी विज्ञ प्रतीत स्व से उत्तम, निज वास्तविक रूप में रही खलबली

माना अवर-श्रेणी ज्ञात सहपाठी छात्रों में रहकर, कुछ सांत्वना मिली॥

 

पाठ्यक्रम पुस्तकें अनेक रहस्य खोलती, वे असंख्यों में कुछ ही मात्र

पुस्तकालय-निधानों में सुघड़ता से रखी पोथियाँ, मन में लगता त्राण।

कौन सारी पढ़ता होगा, कैसे मस्तिष्क विकसित इतना ग्रहण- सक्षम

बस झलक देख ली काम से मतलब, इतना ही ज्ञान से हुआ सम्पर्क॥

 

कुछ उच्च-अध्ययन माध्यमिक कक्षाओं में, ज्ञान से हुआ साक्षात्कार

तो भी बहुत ज्ञानों की महत्तर टीकाऐं, यूँ मस्तिष्क में न प्रवृष्टि सहज।

बहुदा शिक्षकों द्वारा प्रसारित कक्षा ज्ञान का, कुछ-२ ही पड़ता पल्ले

वह ज्ञान-संपर्क प्रथमतया ही घटित, अतः असहजता स्वाभाविक है॥

 

कुछ सहपाठी स्व से श्रेष्ठ दिखते, अडिग से दिखते ज्ञानोपार्जन में ही

कई बार तो आकस्मिक, जितना परिश्रम वाँछित, झोंकता उतना नहीं।

कुछों की स्थिति और भी दयनीय, लगता कक्षा में नहीं अपितु है जंगल

बस समय यूँ ही व्यतीत किया, नहीं सोचा क्या और बेहतर था संभव॥

 

प्रज्ञान न उपलब्ध मात्र कक्षा उपस्थिति से ही, मात्र कराती परिचय सा

असल सीखना बाद में गृह-कार्य से, जब स्व-शिक्षण से जूझना पड़ता।

धन्य वे जिन्हें भले शिक्षक मिलें, न करते अनेक शिक्षण-निर्वाह उचित

निज- अकर्मण्यता, कर्त्तव्य-विमूढ़ता से, विद्यार्थी-जीवन अप्रकाशित॥

 

कुछ गुरुजन जलाते स्व-दीपक, डाँट-फटकार- वितंडा भी आवश्यक

माना शिक्षक भी सीमित एक स्तर तक, तो भी शिष्य चाहते सर्वांगीण।

यह एक रचना- कृति उपलब्ध साधन-सामग्री से, व प्राण-प्रतिष्ठा तृप्ति

शिष्य अहसास बाद ही सीख सकता, निश्चितेव संभव सब द्वार-प्रवृष्टि॥

 

शैशव से यौवन तक इस यात्रा ने, इतर-तितर बिखरे में की कुछ प्रवृष्टि

किंतु वह ज्ञान भी कितना न्यून था, मात्र विचार से ही है असहजता-वृष्टि।

सत्य कि निज विश्व की बस बुद्धि-कोष्टक सीमा, ऊपर से है प्रयास-अल्प

तब कैसे विकास-वर्धित हो आत्म, तुम जैसे अनेकों ने तो प्रगति ली कर॥

 

क्रमशः वृहद ज्ञान से था कुछ संपर्क, पर जितना निकट, उतना ही शेष

अकेला कहाँ बैठा था प्रकाश से दूर, विद्या-बाधा बने मेरे ही प्रमाद-द्वेष।

इतने बहु विषय, विपुल विज्ञान-संग्रह निकट, सक्षम-प्रयास हैं परिलक्षित

अनेक सदा कर्मशील ही रहते, तभी तो जुड़कर इतना विस्तृत है निर्मित॥

 

माना उन लेखकों, वृहद-दायकों का भी है, एक सीमित-वृत्त में ही प्रज्ञान

तथापि बृहत्तर करते ही जाते, सकल मानवता समाने का करते हैं प्रयास।

कुछ तो कालिदास, शैक्सपीयर बन जाते हैं, कुछ गोएथे सम अति-विस्तृत

नेहरू सम चिन्तन, कुछ मार्क्स, एग्नेल, एसिमोव, कार्ल सागन सम वर्धित॥

 

कैसे पकड़ी कलम महानुभावों ने, और एकत्रण की विपुल सामग्री-लेखन

कितनी समय-ऊर्जा प्रतिदिन ही देते, कहाँ-२ से अनेक विचार हैं पनपन।

कैसे मस्तिष्क प्रबल होता न्यूनतम से ऊपर, और बह निकला ज्ञान-प्रभाग

एक-२ कड़ी योग में समक्ष हैं, उनके कथनों को सब देते अति ही आदर॥

 

प्राथमिक-अवस्था में ज्ञान है जोड़ा, कुछ साहस किया, वृहदता से सम्पर्क

अनेक रोमांचक-रहस्यमयी विभिन्न विषय समक्ष, परिचय न था अभी तक।

पारंगत- सामीप्य से तो अब भी भय सा, स्व-स्थिति होती अति-असहज सी

असल व्यग्रता है स्व-अल्पता ही से, अनेक बहुदा अत्यग्र-बढ़ गए क्योंकि॥

 

फिर संचित ज्ञान भी है अति-सतही, अस्मरण हो जाने से वह जाता फिसल

जो कुछ लब्ध था वह भी खो दिया, हम फिर अकिंचन के ही रहें अकिंचन।

अभूतपूर्व यह मन- प्रणाली, सबको प्रदत्त बावजूद पृथक ढ़ंग से निखारती

कौन प्रेरणा एक को महापुरुष बनाती, व अन्यों को बहु-मद्धम ही रखती॥

 

माना हम सब एक सम अंदर से, विभिन्न मेल-परिस्थितियों में होते असहज

सब स्व दृष्टिकोण-स्तर हैं सहन, अध्ययन- अभ्यास-प्रयास से उच्च- वर्धित।

पर कुछ थोड़े सामान संग भी प्रयास से, वृहद परियोजनाऐं खड़ी लेते कर

प्रत्येक ईंट- जोड़ में प्रयास झलकता, सहायता माँगने में न कोई झिझक॥

 

वे कैसे, किनको मित्र हैं बनाते, योजना-मूर्तरूपण में अक्षुण्ण-सफल बनते

कैसे विभिन्न मस्तिष्क-योग ही होते, सहायता से परियोजनाऐं आगे बढ़ाते।

मानो निज से एक सीमित सम्भव, अतः कुछ तो अवश्यमेव साथी बना लो

यही कवायद करती है किंचित अग्रसर, प्रगति-पथ के अध्याय सीख लो॥

 

मुझे निश्चित ही असहज होना चाहिए, वही तो मति-विवेक श्रेष्ठार्थ खोलेगी

जग-आगमन है तो एक लीक खींच दो, बहु-काल तक न कुछ ही चलेगी।

यही रोमांच खींचेगा तुम्हें अनेक अज्ञात-रहस्यों की ओर, बढ़ाऐगा काष्ठा

जीवन- तात्पर्य ही नित्य-गति है, अतः हिम्मत करो स्व से निकलो बाहर॥

 

सब जगत विद्यालय, पुस्तकें-शोध मेरे लिए ही हैं, साहस से बैठना सीखो

चाहे निज मूढ़ता-अज्ञानता पर हँस लो, पर उचित हेतु सुदृढ़-चित्त हो लो।

अपनी भी श्रेणी बढ़ा सकोगे, यदि ऊर्जाऐं-विकसित करना जाओगे सीख

जीवन माँगता है तुमसे प्रयास, अतः रुको मत, सर्वत्र से होवो आत्मसात॥

 

धन्यवाद। और बेहतर के लिए प्रयास करो॥


पवन कुमार,
२१ नवम्बर, २०१६ समय २२:३८ रात्रि 
(मेरी डायरी दि० ८ मार्च, २०१५ समय ८:५० प्रातः से) 

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