बहु-भाँति लेख-संस्मरण,
कथा-साहित्य, जन लिखते भिन्न रस-संयोग से
सबका निज ढ़ंग मनन-अभिव्यक्ति
का, समग्र तो न सब कह ही सकते॥
लेखन-विधा है अति-निराली,
यूँ न मिलती, कुछ तो चाहिए सहज रूचि ही
विशेष समय आवश्यक बतियाने
को, वरन सुफियाने की घड़ी न मिलती।
फिर मन में क्या आता उन
क्षण- विशेष में, कलम तो मात्र माध्यम बनती
शब्द-प्रवाह सहज ही तब
निज-दिशा लेता, देखो मंजिल कहाँ है मिलती॥
ज्ञान-स्रोत समक्ष-पुस्तकें,
विद्वद-प्रवचन, संगति या दैनंदिन कार्य-कलाप
या कुछ क्षण निज संग बिताना
भी, जिससे निकले एक कमल-मुकुल सा।
मन-रमणीयता का भी अपना
विश्व, कहाँ- कब बैठेगा किसी को न प्रज्ञान
कैसे सुसंवाद हो सके निज
श्रेष्ठ से, कुछ एकत्रण से हो सके ही विकास॥
सुघड़, विचक्षण मनन-
दृष्टान्त मनीषियों का, जितना निहारो उतना कम
अति-गह्वर उनका अवलोकन, यूँ
न मात्र सतही अपितु जीवन-सार तत्व।
जितनी मात्रा- गुण पास एक,
उतना दान- संभव, उपलब्धता पूँजी है यहाँ
यह बात और कि लोभी हो,
बाँटन-अरुचि, स्व-संग ही खत्म हो जाएगा॥
क्या मेरी मनोदशा विशेष
परिस्थितियों में है, मन-भाव यथैव ही उद्गीरित
कैसे निज-समीपता व संग
जुड़न-अभिलाषा, स्वयं गति से लेकर कलम।
विल डुरांट ने तो लिखे हैं `सभ्यता
एवं दर्शन का इतिहास' से विस्तृत
ग्रंथ
वह भी गुजरे दुःख-सुख
परिस्थितियों से, तथापि सहज रच दिया अद्भुत॥
विभोर मन चेतन-शक्ति,
आत्मिक-बल बढ़ाओ, जीवन हेतु महद उद्देश्य
ऐसे तो महद रचना न बने, उठ
खड़े होवों लिख दो निज सर्वोत्तम लक्ष्य।
वाल्मीकि, व्यास, शैक्सपीयर,
गोएथे, कालि ऐसे न, अल्पकाल जीव-भंगुर
समक्ष विपुल राशि तेरे अर्थ
पड़ी, निम्न कामना से तो अति-लाभ होगा न॥
माना सबको निज जीवन ही जीना,
पर दान भी जिम्मेवारी उत्तम विरासत
'यूँ ही आऐ न आऐ' उक्ति से ऊपर उठो, जग-आगमन
को करो सार्थक।
कैसे चेतन क्षण बढ़ते जाऐं
जीवन में, व उनमें संपूर्णता भरने का उत्साह
चल पड़ो किसी लम्बी यात्रा
पर, कुछ जग देखो, अपनी भी कहो अथाह॥
वे मार्ग- अध्याय जान-सीख
लो, जो उन्नति, परम-प्राप्ति का दिखाऐ मार्ग
बैठो विद्वद- जनों संग उत्तम
संगोष्ठी में, कैसे किया है उनने पथ लो जान।
प्रदत्त कार्य निश्चित ही
विशाल होगा, परियोजना- प्रबंधन भी चाहिए उत्तम
किंतु हर अध्याय पर पूर्ण
ध्यान, नैपुण्य से देखो कुछ भी छूटना चाहिए न॥
जीवन-विज्ञान एक बड़ा विषय
है, ज्ञात हो चाहिए उचित कार्यान्वयन विधि
कौन तत्व कहाँ कैसे प्रभावित
करता, सुप्रबंधन से झलके उत्तमता अति।
जीवन- उपलब्धि निज
स्वेद-रक्त की आहुति से, प्रयास से न कभी घबरा
श्रम-सुस्ती से थकना न इतनी
शीघ्र, जब कर्त्तव्य अधिक तो विश्राम कहाँ॥
फिर बिंदु तो इंगित करने
होंगे, जो अन्तः घोर-तम से प्रकाश में आगमन
कुछ स्वप्न लूँ समर्थ-
विवेकियों संग, ज्ञान प्रवाह रोम-कूप में हो प्रकटन।
जीवन फिर पूर्ण खिल सकेगा,
सब पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष मेल से
सर्व- अवस्था ही आस्वादन
लेना, न घुटकर मरना जब इतना सम्भव है॥
मेरी मनोवृत्ति उचित कर देना
ओ परमपिता, तार सीधे तुमसे जुड़ जाऐं
हटा कर सब मेरे प्रमाद,
अपुण्य तन-मन के ज्ञान-वृत्ति में चित्त हो जाए।
मूल-प्राथमिकताओं से करा तुम
परिचय, न इतने अल्प-निर्वाह से सन्तुष्ट
क्यूँ न करूँ मैं सर्वोत्तम
हेतु ही चेष्टा, जब ज्ञात है संभव व समक्ष मंजिल॥
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