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Sunday, 2 October 2016

उत्प्रेरण-विधा

 उत्प्रेरण-विधा 


वर्तमान अनूठे असमंजसता-पाश में, अबूझ हूँ जानकर भी

कैसे अकेला खेऊँ नैया, पार दूर, कभी हिम्मत खंडित सी॥

 

सकारात्मक मन-मस्तिष्क धारक, तथापि अनिश्चितता है घेरे

विवेक प्रगाढ़ न हो रहा, नकारात्मक आकर बहु-झिझकोरे।

वातावरण जो होना चाहिए भय-मुक्त, स्वच्छंद-उन्मुक्तता का

सब ऊल-जुलूल बोलते, मानो जीव की यही परिणति है यहाँ॥

 

प्रेषित था कुछ इस आशा से, विभाग के नाम में होगा लाभ

स्व कर्म, विचार-शैली से, परियोजना को बढ़ाऊँगा ही अग्र।

सभी महारथी- ज्ञानी बनते यहाँ, कुछ तो हैं नितांत दयनीय

कुछ तव मुख ताकते हैं, माना सब शक्ति तुममें समाहित॥

 

उद्वेलित हूँ क्षुद्र- घटनाओं से, माना बाह्य न अति-प्रतिक्रिया

मनन सतत संचालित रहता, विभिन्न पहलुओं को है देखता।

निर्णय लेने में समर्थ होते भी, अपने को असहाय सा है पाता

 कुछ के शंकालु होने से भी, अवश्यम्भावी है कुप्रभाव पड़ना॥

 

माना कोई योगदान नहीं है, अब तक कृत कार्य-कलापों में

तथापि अब मैं प्रथम ही, अतः सहभागी होता जा रहा हूँ शनै।

करो आत्म- मूल्य सशक्त यहाँ, त्रुटि न हो कर्त्तव्य-निर्वाह में

मात्र उत्तम कार्य ही सम्बल देंगे, वही अपेक्षित भी है तुमसे॥

 

सभी से एक स्नेह- रिश्ता बनाओ, जिम्मेवारी और आदर का

बनें सब एक दूजे के सहयोगी-संगी, व परस्पर अनुभूति का।

नहीं हों मात्र पर- छिद्रान्वेषी ही तुम, सुधार में सबका विश्वास

यदि आवश्यक हो कुछ सख़्ती भी, ध्यान में ला करो स्थापित॥

 

अनंत-शक्ति पुञ्ज तो हो यहाँ, क्षीणता कदापि न करो स्वीकार

निज-शौर्य अंश-दान अन्यों को भी हो, व प्रबल रक्त-संचार।

जीवन जीने का नाम व कला समझना, इसकी भली-प्रकार से

हर कर्त्तव्य पर पैनी नज़र हो, और कहीं कुछ छूटा न जाए॥

 

निडर बनूँ प्रबल-मन संचालक, सदा महीन-दृढ़ता से हो बात

निज-कार्य निपुण हो, औरों को सुनने-समझाने का हो हुनर।

माना अन्य भी पारंगत होंगे, पर तुम स्व-विद्या में बनो प्रवीण

इस अपरिपक्व जग-ज्ञान को आलोक दो, ताकि राह सुगम॥

 

निज निष्ठा व कर्मठता से तुम, जग में छोड़ो एक उत्तम छाप

माना सब कुछ तो न स्व-हाथ में, पर इतने भी नहीं असहाय।

प्रयत्नों से स्वयं को बनाओ सबल, व दुर्बलता-भाव ही न आए

किञ्चित स्वस्थ तन- मन स्वामी बनो, निज-गुण जोड़ते जाए॥

 

परम-युक्तियों में ध्यान नित हो, निस्संदेह बनो संकट-मोचक

अभय दो सह-कर्मियों को तब, गतिविधियाँ करो उचित-दक्ष।

निज श्रेष्ठता को सबमें ही बाँटो, तभी तो होगा उनमें भी वर्धन

संपूर्णता में और अधिक चाशनी तब, चहुँ ओर हो प्रकाशित॥

 

माना यश-गान नहीं अभिलाषा, जग-पार गमन महद है लक्ष्य

कटे सब फंदे निम्नता के यहाँ, नर के काले-कलाप व असत्य।

निज-दुर्बलताओं से उठ प्राणी, सर्व-प्रगति का हो समुद्र-मंथन

प्रक्रियाऐं-साधन सब ही उचित हों, स्वयं-सुधार एक उत्प्रेरण॥

 

ओ मेरे मन के प्राण- पखेरू, लगा उत्तुंग उड़ान एक दूर गगन

देख अतिदूर-अद्भुत दृश्य यहाँ, विकास तो फिर है ही संभव।

ले संग उचित-मनन व कार्य-शैली का, क्षमताओं में सतत वृद्धि

यही जीवन-उन्मुक्तता संदेश जीवियों को, बृहत कल्याण दृष्टि॥

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
२ अक्टूबर, २०१६ समय १९:०३ सायं 
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३०. ०९. २०१४ समय ८:४० प्रातः से) 

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