कैसा जहाँ हम बनाना चाहते,
सोच का ही है खेल
जो भी यहाँ अच्छा-बुरा जैसा,
सब है मानव-कृत॥
क्या सोचते हम परिवेश हेतु,
जो हमारा आवास है
कितनों को व क्या सबको,
उसमें सम्मिलित करते?
अपने जैसों से सम्पर्क
साधते, अन्यों को बाहर रखते
स्वार्थ निज, साधन सबके, व
फिर अधिकार जमाते॥
कैसे संग्रह कुछ ही द्वारा,
जब सब कुछ है प्रकृति-दत्त
पृथ्वी पर जन्म लेने का अर्थ
तो, भागीदारी है समस्त।
कैसे कुछ वैभवशाली बनते,
अन्य अनेक पिछड़ जाते
भौतिक-दशा में अति-अंतर,
यदा-कदा संग्राम होते॥
यह मेरा और तूने उठाया,
निश्चित ही है अपराध महद
मेहनत का यह परिणाम है, तू
मुफ्त में चाहता मगर।
एक बड़े ध्यान से कार्य करे,
दूजा काम से दिल चुराऐ
ईर्ष्या करें या भाग्य
कोसें, या अपराध- प्रवृत्ति है पाले॥
शरीर- मन स्थिति में असल,
सबका पृथक है व्यवहार
कुछ की रूचि इसमें या उसमें,
अन्यों का और विचार।
कुछ निज-प्रेरणा से इंगित,
अन्य तो रास्तों पर चिन्हित
अलग श्रम व ईनाम भिन्न, लाभ
भी होता तथैव वितरित॥
फिर किसी के पास, अधिक
उपलब्ध संसाधन-वस्तुऐं
अनेक किन्हीं अल्प से ही,
अपना जीवन यापन करते।
शनै वर्धित है अंतर उनमें,
भौतिक -स्थितियाँ होती भिन्न
प्रयोग तब प्रासंगिक-वस्तुओं
का, अन्यों से और पृथक॥
अभिमान प्रकट नव-धनाढ्यों
में, अन्यों को समझें निम्न
कुछ यदि उन्नति भी चाहें,
उसमें बाधा करते हैं उत्पन्न।
समकक्ष जन अपने दल बनाते, और
अन्यों से है स्पर्धा
निर्बल मात्र निज-दैव कोसते,
व करते लाचार गुजारा॥
तब सुख-तृप्ति हेतु, उनको
होती सेवक-आवश्यकता
कुछ निरीह पकड़ काम हेतु,
बनाते हैं दास-सेविका।
संघर्ष अल्प करणार्थ, कुछ
मृदु- भाषी चतुरों के साथ
वाक-पटुता से, करते
अन्य-दलों की सन्तुष्टि-प्रयास॥
सकल कलाप आरम्भ, सामान्यों
की स्थिति रखने निम्न
युग्म मधु-सोम, नशे में
रहें, चाहे कहीं और फँसाकर।
वे अल्पज्ञ भ्रमित होते,
तथाकथित ज्ञान के व्यूह-पाशित
सम्मिलित कर्म-कांड,
अंध-विश्वासों में, व्यर्थ प्राण फिर॥
समस्त दर्शन व ज्ञान उपलब्ध
की हैं, निज प्राथमिकताऐं
कुछ सज्जन समदर्शी भी, पर
अन्य स्वार्थों को ही बढ़ाऐं।
कुछ का हित-साधन, स्वयं को
परितोषिक, यही है दर्शन
बाह्य वेष-आभास मृदुता से,
अन्यों को भी लाभ है कुछ॥
किनको रखना किनको हटाना,
किसको क्या देना ज्ञान
इसका निर्धारण चतुर करते,
अल्पज्ञ रहते हैं जन-आम।
बड़े-संगठन, बड़ी-चर्चाऐं हैं,
निश्चित ही समर्थ बल-वर्धन
अच्छा होता यदि सर्व-हित,
लाभ भी बँटता सार्वजनिक॥
जीवन- विस्तार को, एक ज्ञान
ही प्रेरणा-वाहक, संवर्धक
अगर वह भी उचित न, तो कैसे
विकास-सुदर्शन संभव?
मृदु-चित्त समझते सब,
षडयन्त्र-स्थापन का घोर-विरोध
झंडेवाले आते झुठलाने को,
यथा-स्थिति रखने पर जोर॥
दार्शनिक हित साधते समर्थों
का, तभी तो पाते हैं सम्मान
आमजन की क्या चर्चा हो,
अल्पज्ञान से व्यूह न पाते फाँद।
यदि उन्हें भला भी लगता, तो
भी न है निम्न- स्थिति उबार
आध्यात्मिक ज्ञान- विकास से,
कुछ तो अवश्य ही बाहर॥
चिंतक चिंतन करें यदि
सर्वहित-सुख, तो निश्चितेव श्लाघ्य
यदि वह नितांत
भ्रामक-स्वार्थी, तो कितना विकास समग्र?
आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने,
बहु-आयाम लाने की एक पहल
सुविद्या-ज्ञान उपलब्ध सबको,
तथापि प्रचलित कुछ प्रपंच॥
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