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Tuesday, 30 January 2018

दूर यात्रा

 दूर यात्रा


एक शब्द-अन्वेषण प्रक्रिया से गुजर रहा, मिले तो कुछ बढ़े अग्र

जीवन यूँ ही बीत जाता, ठहरकर चिंतन से उठा सकता अनुपम।

 

चारों ओर ध्वनि-नाद गुंजायमान, मैं कर्ण होते भी न सकता सुन

अंतः से कुछ निकल न पा रहा है, मूढ़ सम बैठा प्रतीक्षा ही बस।

इतना विशाल जगत सब-दिशा से ध्वनित, पर मैं तो निस्पंद मात्र

कुछ तरंगें स्व से भी निकलती होगी, सुयोग से किंचित बने बात।

 

क्यूँ रिक्तता है मन-देह प्राण में, चाहकर भी न कुछ सोच पा रहा

क्यों कोई गति ही न है, कोलाहल में बिलकुल भी दिल न लगता।

उससे भी जुदा न कोई प्रयोजन, वर्तमान क्षण भी सीमित स्व तक

हर दुविधा निज हल लेकर आती, बहु-काल से मुझसे न बना पर।

 

क्या कुछ शून्यातीत होते हुए भी, अंदर से स्वर निकलने हैं संभव

खुद को समझा नहीं पाता, कैसे क्या घटित हो रहा पाता जान न।

यह क्या है स्व का क्षेत्र, इस मस्तिष्क-ग्रंथि की पहेली न सुलझती

स्वयं से निबट न पाता, अनेक जग-कवायद, पेंचों से होती कुश्ती।

 

कितना सिकुड़ गया, स्वयं से कोई अतिरिक्त संवाद न हो पा रहा

जग का ज्ञान न अभी, कैसे जन-संवाद हो, बस अकेला ही खड़ा।

दिवस में कुछ शब्द आदान-प्रदान करना जरूरी, जग-चलन को

कुछ निश्चित कर्त्तव्य-भृत्ति कुटुंबार्थ, निबाहना स्वतः आवश्यक तो।

 

उसमें न भी अधिक रूचि, करना मजबूरी, स्व में ही खोना चाहता

इस बावलेपन में इतना तल्लीन, बेचैन होते हुए भी तसल्ली पाता।

खोज में कि कब सान्निध्य होगा उस अज्ञात परम से, किंतु भटकता

विडंबना, न ध्येय-ज्ञान, भ्रमित, क्या, कैसे, कब, कहाँ कुछ न पता।

 

अजीब-स्थिति क्या ऐसा भी, इस चेतना में ही बीत जाय सर्व जीवन

मन-कार्यशाला में डूबे अनेक दिखते, न जाने प्रशांत क्या खोजत।

जग को लगता कि पागल है, वरना आगे बढ़कर यूँ संवाद न करते

सत्य अंतः-स्थिति तो वे ही जाने, अन्य मात्र कयास लगा हैं सकते।

 

यह क्या अवस्था स्व-तल्लीनता की, कुछ न सूझे फिर भी चाहता

न अभिलाषा बाह्य-दर्शन की, जितना सिकुड़ सके, प्रयत्न करता।

जीवन-चिंतन-विज्ञान में न रूचि, इस दशा में ही दिखता परमानंद

न ईश्वर-प्राप्ति की ही इच्छा, पूर्ण जी लूँ इन पलों को यही कवायद।

 

क्या इस स्थिति से कुछ निष्कर्ष संभव, या मात्र बहते रहो नदी सम

उद्गम-उद्भव-संगम निज जैसों से, या विपुल समुद्र में विलय निश्चित।

मैं भी किसी एक अवस्था में हूँ, पर कोई स्पंदन न है चल रहा सहज

कौन जीव-विकास प्रक्रिया के किस भाग से गुजर रहा, मुझे ज्ञात न।

 

कौन नियंत्रक इस मन-देह-प्राण का, क्यों स्थिति में ही चाहता इस

क्या उसकी अपेक्षाऐं न मालूम, प्रयोजन हितकारी या समय व्यर्थ।

बहु प्रकार के चेष्टाऐं संभव थी इन पलों में, मैं ही क्यों धकाया गया

क्यों रह-२ कर वैसे भाव उबरते, सदुपयोग हो तो कुछ काम बना।

 

अनेक विश्रुतों के ग्रंथ पढ़ता, अज्ञात कि वे भी ऐसा अनुभव करते

जग समक्ष लेखन-संवाद पृथक ही, ज्ञान विशेष लाभ हेतु औरों के।

पर न लगता कि गुण-ग्राहक हूँ, इस स्थिति से किसको क्या लाभ

नहीं कोई अन्य और स्वयमेव भ्रमित, बस इस चलने में ही आनंद।

 

अभी लेखन-अंत आवश्यक, पर सिलसिला मन में चलायमान सदा

इसे पूर्ण महका लें, शरद-पूर्णिमा निकट-गत, रात्रि में चंद्र चमकता।

उपवनों में पुष्प खिलने शुरू हो रहें, हाँ पतझड़ का भी आनंद निज

जब सर्व-पुरातन झड़ जाएगा, नव ही सर्जन, सृष्टि तो उससे उदित।

 

जैसा भी जहाँ हूँ पूर्णातिरेक रहना चाहिए, अपने में ही तो परमानंद

आत्मसात औरों को जानने में मदद करेगा, इसका ही लो सदुपयोग।

जीवन में सहज अग्र-स्थिति दैव-अधीन, बेतुके संवाद से दूरी सुभीता

ज्ञान-घड़ी कब आएगी नितांत अज्ञात, अभी रस में हूँ, रहना चाहता।

 

चलो चलते कहीं दूर यात्रा में, आत्म में क्षेत्र-विचित्रता भरी हुई महद

उससे परिचय हो जग भी देख लूँगा, प्रयास स्व-संवाद का है समस्त।

 

 

पवन कुमार,

२८.०१.२०१८ समय १८:१३ बजे सायं

(मेरी जयपुर डायरी १८ अक्तुबर, २०१६ समय ९:१२ बजे प्रातः से )



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