स्व-नियंता
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उच्चावस्था संभव प्रयोजनों में, आत्म-मुग्ध या विद्वद-स्वीकृत
संस्तुति वाँछित मनीषियों द्वारा, पर मात्र उसके न कर कष्ट।
कोई नहीं है तव प्रतिद्वंद्वी यहाँ, समस्त कवायद स्वोत्थानार्थ
निज-भाँति सब विकसित होते, न कोई उच्च है अथवा क्षुद्र।
स्व-निष्कर्षण ही सत्य पैमाना, स्व-संभव अधोगति से-उद्धार
सब करपाश पुरुषार्थ से, मुष्टि खोलो करो दर्शन-चमत्कार।
निज भय ही है महद रोधक-शत्रु, शंका निकट कारण-स्थित
बलात उत्तिष्ठावस्था उन्नति अवरोधक, प्रयास ही पार-सक्षम।
कौन रोक सकता निज-परिश्रम से, पूर्व युक्ति एवं मन-दृढ़ता
विजय-सक्षम, गुण-ग्राहक परम का, न उपालंभ या दिखावा।
अजातशत्रु, जितेन्द्रिय, सकारात्मक, सुमधुर स्वर निज-गूँज
क्यों जन स्व-विरोधी दर्शित, वे तव मनोदशा ही प्रतिबिम्ब।
ढूँढ़न चला शत्रु बाहर, आत्म-अवलोकन से पाया स्व-स्थित
वही विरोधी, पग-२ रोके, आत्म-विश्वास को करे विव्हलित।
क्यों हीन-भावना निकट ही, ज्ञात है स्व-साधन परम सहायक
अणु-२ महद-जीवन स्फुटित, विपुल ऊर्जा-भंडार व भट्टारक।
स्व-शक्ति जाँचन भी आवश्यक, वही उपाय सुझाए सुधारार्थ
कहाँ अवस्थित, किम गंतव्य, कितनी दूरी -प्रयास आवश्यक।
अन्तर्द्रष्टा, उच्च-मनोनायक, उत्तम विवेचना व रमणीय चिंतन
आयाम अवलोकन-समर्थ, मंथन सुधार्थ, सतत महद हेतु रत।
सुजय सर्वहितार्थ, चिंतन मात्र वसुधैव परम व कर्मयोग स्थित
स्व-विकास सर्व-निहित, कोई विद्वान मिले, सिखाऐ कर्त्तव्य।
गागर में सागर, रज में विश्व-दर्शन, अल्प-वचन में निहित अर्थ
वाणी संयमित, अनुशासित कर्म, वृहत-संपर्क से आत्मसात।
स्व-दोष ज्ञात-प्रतारण, निदान-अन्वेषण, निर्माता भवन अदभुत
परछिद्र-अनाकर्षण, जग अति-भ्रामक, सत्य-रूप अवलोकन।
गंभीर-व्यक्तित्व, स्व-कथन में सक्षम, न मात्र श्लाघार्थ प्रयास
सदा-विद्यार्थी, महात्मा-आदर, सर्वहित हेतु जीवन न्यौछावर।
उच्च-शिखा दर्शनाभिलाषी-विवेक, विश्वरूप सर्व ही स्व-स्थित
सकल ब्रह्माण्ड निज-प्रारूप, न कोई विजातीय सब ही निकट।
सत्य-प्रणेता, अरि-विजेता, परंतप, शांत स्थल में शीलमनन
प्रत्येक शब्द शेफालिका-माणिक्य, बहुमूल्य व अति-दुर्लभ।
कांति-दर्शन, सर्व-सिद्धार्थ, उद्योगी, द्रवितमन वृहत-कल्याण
कालपरे-दर्शी, महद-व्यक्तित्व, सर्व-समीकरण व सद्भाव।
विश्व-क्रिया ज्ञान में सक्षम वह, परम श्लाघ्यों का सदैव ऋणी
माँ प्रकृति दात्री समस्त ऐश्वर्य, तन-मन उसका की रूप ही।
प्रदत्त समय निर्वाह अति सघन, हर क्षण है अति-मूल्यवान
विचित्र अध्याय दाता अवलोकनार्थ, हर विधा तो कल्याण।
मम जीवन, स्व जैसा छोड़ूँ, न युक्ति मन में व परम-निर्मोही
हर कण समर्पित मनुजता के, सर्व स्थावर-जंगम निज-संगी।
नमित, गुण-सक्षम, सर्वत्र-स्थित, मान-भाव सुघड़ हर प्रयास
निष्णात जीवन-अध्याय, ज्ञान मार्ग में मन सदा चलायमान।
किंचित संतुष्ट यदि निरंतर गुण-वृद्धि पर नहीं विरोध अन्य से
स्व-नियंता निज-प्रयोजनों का, उच्च-मनोरथ निज कार्य-क्षेत्र।
परित्यक्ता दोष-अधमता-पापों का, जीवन को करे सुज्ज्वल
पावस नीर मेघ प्रदत्त प्रलाक्षन, स्नान और विभोर अंतर्चित्त।
किंचित मृदु-संगी हैं आत्म-वृत्त में, संपर्क करे उत्थान-विकास
कुछ विद्वान यदि गुरु बने, कबीर उक्ति संभव सम कुंभकार।
काढ़े अन्तर्दोष, सहारे बहिर, चोट भी स्वीकृत, बनूँ योग्य शिष्य
सर्व-जग योग्यों की ही खोज में, मिले तो भाग्यशाली भी तुम।
माना न निज-श्लाघार्थी, पर हर प्रयास करो उत्तम सर्वहित
करेंगे अन्य प्रशंसा सुनिष्ठा की, व्यवहार संतुलित गति तव।
ज्ञान-समर्पण, विनीत आचरण, अन्य को न रुष्ट अकारणार्थ
सुचेष्टा, सुहृदय, शांत चित्रकार, शिखर उन्नयन विकासार्थ।
पवन कुमार,
२२ जनवरी, २०१८ समय 00:४२ मध्य-रात्रि
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २८ जुलाई, २०१५ समय ८:४६ प्रातः से )
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