स्वयं-सिद्धा
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मिश्रित कोलाहल-ध्वनि सा यह जहाँ, गूँज है चहुँ ओर से
मानव मन एकाकी चाहता, बाह्य कारक प्रभाव डालते।
मैं एक गाथा लिखना चाहता, जो हो एक बिंदु पर केंद्रित
पर आ जाते इतर-तितर से अवयव, होते अभिमुख सतत।
कैसे चले एक सत्य पथ पर ही, वह भी तो सीधा नहीं जब
कितनी भूलभलैया, चतुष्पथ, मोड़ और दिशाऐं हैं भ्रामक।
मानव तो बस अभिमन्यु सा नन्हा शिशु,अँधेरे में तीर चलाता
चक्रव्यूह में प्रवेशित,अज्ञात कहाँ गम्य, बस उद्विग्न सी चेष्टा।
उद्वेलित है, कुछ अनुमान-सक्षम हुआ, पर है घना अँधियारा
आगे कुआँ पीछे खाई सी स्थिति, देखो अपना समय बिताना।
कितना भविष्य ज्ञात, हाँ अन्य देख निज को सकते रख व्यस्त
सब निकृष्ट-आम व स्तुत्य यहाँ आऐं, उनके आयाम जग समक्ष।
सब निज ढंग से समय बिताते, और कृत्यों अनुसार मिला फल
माना कुछ में एकरूपता है, निजी अनुभव तो स्व के ही हैं पर।
माना यहाँ कुछ शाश्वत सत्य यथा जन्म, मृत्यु व मध्य अवस्थाऐं
मानव व अन्य जीव उनसे गुजरते, सब अभिमान धरे रहे जाते।
पर विशेष मानव-मन में क्या चल रहा, दूसरा कैसे महसूस करे
अनुमान लगा ले भले, समस्त युद्ध तो खुद को झेलना पड़ता है।
तुम यहाँ बैठे कार्य करते, तुम्हारा लेखा-जोखा कोई लिख रहा
कितने गुह्य कारक नजर गड़ाए, तुमको एकटक देख रहे सदा।
फिसले तो रगड़े - कुछ की मंशा, कुछ सराहते तेरे सुप्रयासों को
अनेकों को न कोई गर्ज, जीवन तेरा जैसे चाहो वैसा व्यतीत करो।
कुछ नियम बन गए हैं प्रकृति में, स्वार्थ में जिओ व जीने दो के
कुछ सुव्यवस्थित होना पड़ेगा और निर्वाह करना जिम्मेवारी से।
मुझे भी आवश्यकता है औरों की, मैं स्वतंत्र नहीं इस कवायद में
बंधन से यूँ चिपक जाते, मानव बस बेड़ियों में केंद्रित हो जाता है।
माना यह आचरण-पक्ष, पर क्या मन भी तो नहीं होता प्रशिक्षित
सत्यतः कुछ भिन्नता है पर उसने भी सोच-ढर्रा बना लिया एक।
कमतर हुई उसकी क्षमता, जबकि मस्तिष्क सक्षम बहु-चमत्कार
निकलना होगा उसे पूर्वाग्रहों से, तभी तो होगा निज-जग विकास।
वह अन्वेषी प्रवृति हमें उपलब्ध से आगे बढ़ने को करती प्रेरित
विवेक से निज-संभावनाऐं टटोलते, कुछ पर कार्य शुरू देते कर।
यह एकीकरण स्वयं का कूर्म सम, आत्म को खुद में सिकोड़ लेना
नहीं तो हो ऊर्जा-अपव्यय, वही आयाम तो विकास-पथ खोलता।
कुतूहली-लुभावनी गूँजें तो सुन ली बहुत, अब शांतचित्त का काल
अनेक अवस्था यूँ भ्रामक रहा, अब समय वयस्क-मनस्वी निर्माण।
जग तो सब प्रकार के प्रभावों को, यूँ सदा हम पर प्रक्षेपित करेगा
लेकिन तुम स्व को कर कवच-बद्ध, वचन अविचलन का कर लो।
मेरा क्या मन-संसार है, इसी पर निर्भर बाह्य व आंतरिक आचरण
जप-तप करो अपने को योग्य बनाओ, नई ऊर्जा का करो संचार।
खो जाओ जब भी मिलता समय, स्वयं-सिद्धा सम कुछ करो कर्म
जग में रहते भी जग से निर्मोही, मन में करो असाधारण चिंतन।
कर्म व्यवस्थित, अल्प-संसार अनुकूलित, निज-प्रति ईमानदार
जग को मत दो होने हावी, पर अपने कर्त्तव्यों में न करो प्रमाद।
उठा लेखनी, उकेरो कुछ बेहतर, वाणी का करो मधुर उपयोग
जब आवश्यकता तो करो अंतः मनन-शक्ति करो विकसित।
धन्यवाद। कुछ बेहतर करो। बहुत आशाऐं हैं।
पवन कुमार,
७ जनवरी, २०१८ समय १८:१९ सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २७ नवंबर, २०१४ समय १०:०१ प्रातः से )
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