ललकार
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समय यूँ परीक्षा लेता, अनेक कष्ट देकर बनाता सशक्त
न बीतता चैन से जीवन, मानव बनने में है बहुत माँग।
अब नहीं बालक, जब सब माता-पिता से मिलता पोषण
युवा-शिक्षित हो बन्धु, एक पद मिला करने को निर्वाह।
विभाग एक जैसों का कुल्य, सबके करने से ही तो प्रगति
न प्रमादता निज-दायित्वों में, तुम्हें कुछ आश्वासन देती।
भृति न सुलभ निठल्लेपन से, कार्य करने को करता बाध्य
देश का नाम हो दीप्त, प्रजा को मिले गुणवत्ता-आश्वासन।
वर्तमान माहौल यहाँ कार्यक्षेत्र का, झझकोरता अंतः से पूर्ण
कैसे निकलूँ पार इस चक्रव्यूह से, प्रश्न इस समय है महद।
कुछ की लापरवाही-अकर्मण्यता अन्यों को भी देती है कष्ट
पर प्रकृति-नियम कुछ ऐसा है, झेलना पड़ता जो है समक्ष।
मेरे विवेक मद्धम हुआ जाता जो प्रायः देता समरसता दर्शन
क्यूँ न निरत अंतः कर्म-योद्धा, अभी तक हुआ है युद्ध-रत।
जो नियति से मिली है जिम्मेवारी, करो कार्य उसके अनुरूप
वरन भागी औरों की त्रुटियों में, समय से यदि न किया काज।
स्पष्ट-संदेश एक ही पर्याय लब्ध - कार्य करो वा जाओ चले
अन्यथा समय का दाँव अति-मारक, चैन से न देगा बैठने।
न चंचल अवस्था यह, अपितु विवेक-युक्ति बैठाने का समय
रोगी स्थिति, दवा कटु अवश्य है देती नीरोगता है अन्ततः।
बहुत आशा से विभाग ने भेजा, उसको तुम न बुझने देना
देखो सफल होकर दिखलाओ, जन कन्धों पर लेंगे बैठा।
प्रत्येक क्षण में जीवन-संचरण, ढीलता करो पूर्ण-विव्हलित
न स्वयं विराम, न सहचरों को, विश्राम-स्थिति न बिल्कुल।
जीवन का यदि है अग्र-प्रसरण, परिश्रम तो दुर्धर अवश्य ही
नहीं तो तुम सड़ जाओगे, वृद्ध सरोवर में ठहरे जल भाँति।
यह ललकार सुधार-आग्रह, संग्राम है तुम्हारा स्वयं संग
निज को करो तत्पर, समस्त सामग्री जुटाओ हेतु संघर्ष।
जग मात्र वीरों को ही पथ देता, जिनमें चीरने की शक्ति
मात्र संवाद-सीमा से तो, वास्तविक हल न सुलभ कभी।
क्या है यह व्यग्रता, मन-पथिक को न विश्राम किञ्चित
तरंगें उदित अति उत्तुंग, बल-दृढ़ता से करती विव्हलित।
मुझपर असंवेदनशीलता-आरोप, नितान्त भी नहीं सत्य
स्व-कर्त्तव्य पूर्ण-निष्ठ, मन-काया में नहीं कोई प्रमाद।
न होने दूँ स्वयं को व्यथित, पर लक्ष्य उससे महत्तर
न रुद्ध प्रदत्त कर्त्तव्य, हो अति शीघ्र प्रबन्धन में स्थित।
अनेक बाधाऐं आती पथ पर, यह भी आई तो होगी उचित
लोग मानेंगे प्रयासों को, लेकिन तो लगेगा कुछ समय।
तुम भई अच्छे, कुछ किया ही नहीं, मुफ़्त श्लाघा-मत्सर
वृक्ष उगाया नहीं फल की इच्छा, खाने को टपकती लार।
माना कुछ भाग्यशाली होते, जिन्हें दूसरों द्वारा कृत मिला
मूल आनन्द करके खाने में, वही आत्म-सम्मान है सच्चा।
निकलो दुविधा से, होवो गतिमान, हानि हो यथा-संभव अल्प
जिनसे आवश्यक करो संपर्क, उसी में सबका कल्याण।
जिनसे आवश्यक करो संपर्क, उसी में सबका कल्याण।
उत्तम कर्म परिलक्षित होने चाहिए, विश्व देखना है माँगता
करते रहो कृत्यों का ज़िक्र, जिससे झलके कार्यशीलता।
धन्यवाद। चले चलो, अच्छा करके की दम लो। अवश्य सफल होओगे।
पवन कुमार,
२५ दिसंबर, २०१७ समय रात्रि २३:४३ बजे
( मेरी डायरी दि० २० नवम्बर, २०१४ समय ९ :१८ प्रातः से )
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