मन-दृढ़ता
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कौन हैं वे चेष्टाओं में प्रेरक, मूढ़ को भी प्रोत्साहन से बढाते अग्र
निश्चितेव कर्मठ-सचेत, वृहद-दृष्टिकोण, तभी विश्व में नाम कुछ।
क्या होती महापुरुष-दिनचर्या, एक दिन में कर लेते काम महद
प्रत्येक पल सकारात्मक क्रियान्वित, तभी तो कर जाते अनुपम।
किया निज ऊर्जाओं को संग्रहण, मात्र वार्तालाप में न व्यर्थ समय
श्रम-कर्त्तव्य संग ही समय-व्यापन, शनै योग से निर्माण बेहतर।
महाजन-परियोजना भी विपुल, एक साथ ही अनेक विषय-मनन
जटिल विषयों पर भी विशेषज्ञों संग, विचार बना निर्णय में समर्थ।
सशक्त बहु-आयामी निवेशों से, व्यक्ति-अस्मिता का स्पष्ट-दर्शन
स्व की कर्मों से सार्थक-रचना, लोगों को हैं काम, करते सम्पर्क।
क्या स्व-प्रति पूर्ण-समर्पण, निज से ही महायुद्ध - कुप्रवृत्ति-विजय
स्व देह-मन ही कुरुक्षेत्र, पक्ष-विपक्ष सेना भी स्वतः ही रही जनित।
एक हूँक सी उठती स्व-जयश्री की, कैसे महत्तम निज ही से उदित
पूर्ण समावेश मन-आँचल में, कंदर्प (कूर्म) सम स्व में ही सिकुड़न।
प्रथम बनो निज- कार्यक्षेत्र, जब अंतः-शक्त होंगे तो बाह्य भी सरल
बाह्य भी अंतः से न अति-विलग, संवेदनशील चेष्टा को लेंगे पहचान।
जग-पथ सुगम जब निज-संतुष्टि, वरन पर-छिद्रान्वेषण में ही व्यस्त
बाह्य युद्ध-प्रहार तो सहन शक्य, अंदर से तेजस्विता अत्यावश्यक।
कोई महद-उद्देश्य पकड़ लिया मन ने, समस्त-चेष्टाऐं वहीं समर्पित
लोगों ने जीवन-विचार की धाराऐं बदल दी, मन की दृढ़ता थी महद।
उनको निज व्रत-दर्शन पर श्रद्धा, मन बनाकर जोर कार्यान्वयन पर
उपदेश की भी वाँछित शैली, एक नर ने ही रच दिया गुरु राज-धर्म।
एक मनुज में अति-बल संभव, जब और बढ़े क्या न कर सकते तुम
स्तुति-ग्रंथ बाद या जीवन-काल में लिखित, जीते-जी दिया काज कर।
पुरुष में जीवनी-शक्ति चाहिए, एक अदम्य साहस-चेष्टा का प्रार्दुभाव
मानव-संकल्प एक प्रबल उपकरण, ऊर्जा समेकन से सर्वस्व संभव।
कैसे परियोजनाऐं प्राप्त हैं निष्ठावानों को, लोग कर सकते विश्वास
कार्यान्वयन में सफल भी हो जाते, लघु-२ जोड़ बना लेते महान।
अवसर हाथ से न जाने देते, जरूरत होती तो जाकर बात कह देते
स्वीकारोक्ति भी एक गुण, संजीदा देख तो लोग प्रतिक्रिया ही देते।
जीवन-दर्शन विवेचन अति-कठिन, निज-पथ गठन और भी दुष्कर
पर जो समर्पित परमोद्देश्य में, किञ्चित हो जाएगा ध्रुव के भी पार।
लेखन-भाषण-ज्ञान-कर्म व प्रत्यक्ष व्यवहार, श्रद्धा-संभरण में समर्थ
पार्थिव-सुविधा में अल्प-रूचि, उचित जग-परिणति ही चेष्टा-समस्त।
बहु-रूढ़िवादिताऐं जग-व्याप्त, प्राण परम-सत्य जान सकते ही कम
अल्पतर जो पुरा-भ्रामक रूढ़ियों पर, निष्पक्ष टिप्पण-कर्तुम समर्थ।
लोगों को निज-सोच का अंग बनाना हुनर, जुड़े तो ही बलयुत बनेगा
इतिहास हटा नव-नियम निर्माण-साहस, बीज में वृक्ष-दर्शन-कला।
चाणक्य सी प्रतिज्ञा कर ली कि नंद-वंश को मिटाकर ही हूँगा प्रसन्न
बुद्ध का समाज-धर्म कुरीतियों पर घात, रचा एक निर्मल-मानव धर्म।
मुहम्मद ने देख अनेकों की दुर्दशा, पहुँचाया वसुधैव-कुटुंबकम नियम
सर्व-नर सम भू-संसाधन सबके, क्यूँ कुछ ही कर लें अधिकार-पूर्ण।
डा० अंबेडकर ने जाति-मूलक समाज-अपुण्यों को किया जग समक्ष
एक नूतन मानवता-दर्शन, विधि-सहायता से किया आमूल परिवर्तन।
सर्व हेतु सम मूल-अधिकार, धर्म-जाति-स्थान नाम से कोई भेदभाव न
अति साहस कि दबंग-तंत्र से भी संघर्ष, अंतः-शक्त थे सब गए सहन।
उत्तम परिवेश दान वर्तमान-भावी संतानों को, व्यक्तित्व की कसौटी
मात्र खाने-सोने से मनुज-प्राण क्षय, श्रम से ही संभव श्रेयस-परिणति।
क्रांतिकारी आऐ धरा पर, धारा ही बदल दी, निज-हेतु भी सोचो नाम
जब सोच की नर-जीवन में स्थली, अमर होवोगे, यही है जीवन-पाठ।
लोगों ने हर काल में श्रम किया, महत्तम हेतु होवों समर्पित लगा मन
जीवन-आविष्कार को मूर्त रूप दो, प्रयास से आते परिणाम महान।
पवन कुमार,
१० दिसंबर, २०१७ समय १९:५५ सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० २८ मार्च, २०१७ समय ८:२२ प्रातः से )
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