कर्त्तव्य-परायणता
कितने दिन का चुग्गा-पानी नर का, न कोई कथन-शक्यता
अति-दूरी होंठ एवं प्याले मध्य, जो खा लिया वही है अपना।
स्थल-विरक्तता, व्यक्ति-त्यक्ता, प्रायः सबसे निर्लेपता भाव
मानव छूटता जाता बंधनों से, या स्व-जिम्मेवारियों से दुराव।
जगत के रासें इतने क्षीण भी नहीं, कि बैठे-२ हल हो जाऐं
कहाँ के पाप कहाँ भोगने पड़ेंगे, न पिंड छूटे चाहे भाग जाए।
कुछ अनिकृष्ट हाथ पर हाथ धरे बैठते, पूर्व-चिंतित बुरा ही
कुछ अनिकृष्ट हाथ पर हाथ धरे बैठते, पूर्व-चिंतित बुरा ही
स्थिति ऐसी पैदा कि कलमुँही जुबान निज-प्रभाव लाएगी ही।
चेष्टा तंत्र पंगु करने की, न खुद करें औरों को भी करने देंगे न
अवरों पर पूर्ण-प्रभाव, वरिष्ठों की फटकार से भी अपरवाह।
पलायनवादी प्रवृत्ति जग-कर्त्तव्यों से, पर स्वार्थों में न अल्पता
दो दिवस भी विलंब यदि वेतन, गगन सिर पर सही उठाना।
निज विभ्रम ज्ञान-अहंकार में विमूढ़, मनन एक हठी सा बस
हम तो मरे तुम भी न बचोगे, ऐसों को बनाया प्रतिष्ठान-अंग।
कर्त्तव्य-विमूढ़ता, शासन-विरोध, उत्तम अश्रव्य व स्व-मदांध
न कोई परम का ज्ञान, स्व-अविश्वास और तर्क जैसे हैं सगर्व।
घोर-नर्क स्थिति पर स्व-घोषित ज्ञानी, न किसी के योग्य-विश्वास
दुर्जन-मित्रता, सज्जन-दुराभाव, प्रकृति ऐसी कि अभी दे त्याग।
यदि ज्ञान तो भी अकर्मण्य, कर्म वे जिनका फल नकारात्मक
बस निष्प्रयोजन कागज कृष्ण करते, समझते हम ही सक्षम।
बस निष्प्रयोजन कागज कृष्ण करते, समझते हम ही सक्षम।
पर-दुरालाप न है उत्तम प्रवृत्ति, पर कष्ट होता जब आए बाधा
क्या मात्र हो वेतन-ग्रहण माध्यम, संस्था-आदर क्यों न चिंता ?
क्यों अपुण्य सोच सदा, क्यों ऐसी तुम्हारी तामसिक प्रवृत्ति
क्यों न रचनात्मक, कुछ सुकर्म से छोड़ते निज-सुनाम ही ?
क्या जीवन में सर्व-वंचना ही लेनी, या सुयशार्थ भी कुछ कर्म
मत गँवा हीरक-जन्म को, जब जाँचा जाएगा तो बड़ा दुःख।
निर्मोहीपन एक गुण, पर जहाँ से भृत्ति उस हेतु न चिंतन
प्राथमिकता भय-वश की, पर रणछोड़ से तो कहाँ सिद्ध?
हर समय शंका सब पर, माना सर्व-जग तेरे विरोध में ही
कर्म-शील अधम, मन व्यस्त पर-निंदा काना-फूसी में भी।
क्यों बुरा सोच सबका व निज-अहित, एक शैली सी गठन
न तू आदर्श-प्रतीक, गजदंत खाने को और दर्शन के अन्य।
बस यूँही जीवन-आयु बिता रहें, उस पार भी ठौर न मिलेगा
संसार से सदा भागे फिरते हो, परलोक में भी पाओगे क्या ?
कुछ कर्मठता-प्रतीक बनो, सकारात्मकता का जीवन प्रवेश
करो संचार अन्यों से जहाँ जरूरी, स्व-कर्त्तव्यों प्रति सचेत।
क्यों अन्य कहें कार्य न करते, अपनी सुध तेरी प्रतिबद्धता
सम-स्थिति स्थापना तो कर्म से ही, न कि से अकर्मण्यता।
धीर-मन स्वामी बनो, किञ्चित अन्य आऐंगे श्लाघा हेतु तव
जग सत्य परिवर्तन चाहता, माना परोक्ष भी अनेक षडयंत्र।
चुगली-स्वार्थ, सज्जन-विरोध, चलते कामों में रोड़े अटकाना
सोचते हटाने हेतु, जबकि उचित वातावरण दायित्व उनका।
तेरा क्षेत्र किञ्चित अल्प-संख्यित, वे डराते-धमकाते बाहुबल से
हम जैसे चाहे तुमसे व्यवहार करे, हम स्वामी क्यों नहीं सुनते।
घुड़कियों से भय-प्रसारण मंशा, अन्य भी तो सेवा करते हमारी
क्यों शासन-नाम से हमारी बात न मानते, यह तो बड़ी हेंकड़ी।
हम मारे भी तुम न चीखो, जैसे कहा जा रहा मौन जाओ सुने
मेरा प्रांगण मेरी न मानोगे, तुमको छोड़कर अन्य को ले लेंगे।
अन्य की सब विसंगतियाँ सहन, तुमको सिखा देंगे कार्य-निर्वाह
हम चाहे मिथ्या-कर्म करें, तुम बस रखो अपने काम से काम।
कैसा विरोधाभास जनमात्र में, चरम स्वार्थपरता भारी आदर्श पर
असत्य वचन न लज्जा, मुक्ति हेतु उल्टी-सीधी युक्ति लगाए बस।
पर-लाँछन पर स्वयं न सुकरणीय दान, बंधु तेरा भी अहित होगा
मानो अति-हानि उठानी पड़ेगी, स्वयं रोपित तो काटना पड़ेगा।
पवन कुमार,
२४ फरवरी, २०१८ समय १७:२४ अपराह्न
(मेरी डायरी ३ जुलाई, २०१५ समय ९:४८ प्रातः से)