निज-निर्णय
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लोगों से सीखना ही होगा, निर्भीकता से निज बात कहना
लोग चाहे पसंद करें या नहीं, जो जँचता प्रस्तुत कर देना।
उक्ति है 'Always Take Sides', जो एक को मनानुरूप लगे
हम सदा उचित न सोच पाते, पूर्वाग्रह-आवरण ओढ़े रहते।
बहुदा एक मन बनाते, परिस्थिति-परिवेश-शिक्षण अनुसार
वही सर्वोचित, परिणत भी न चाहे यावत लगे न बड़ा झटका।
कौन उचित देख सकता, भावुक होकर विषयों में जुड़े रहते
पता न क्या सोच रहें, किसी ने मन की कह दी, साथ हो लिए।
सदृश-संपर्क सदा सुखद, कोई किञ्चित हटे रिपु सम प्रतीत
विषम विचार-धाराओं से छद्म युद्ध, हर स्व में उचित घोषित।
अद्यतन भारत में गुरु-वाद, विमुद्रीकरण ५००-१००० रु० के नोटों का
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई ठीक कहे समझकर, या यूँ ही हाँ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोई ठीक कहे समझकर, या यूँ ही हाँ।
नेता जनों को बहुदा प्रलोभन देते, सत्य में क्या लाभ हो सब अज्ञात
कुछ समय हेतु मन प्रसन्न, सत्य भी कि सदैव न रह सकते निराश।
आम जनता को तो सब्जबाग दिखाए जाते, चुनावों में जुमले सुनते
नितांत असंभव बात को भी लोग प्रायः सत्य मान विश्वास कर लेते।
वक्ता भी जाने न हाथ उसके, तथापि अभी तो बस निर्वाचन-जीत
आगे का देखा जाएगा, लोग भूलेंगे, आ जाऐंगे जीवन में वास्तविक।
पर क्या अग्रिम संभावना न अन्वेषण, विरोध तो होता हर विषय का
नेता बड़े फैसले ले लेते हैं, कुछ स्वार्थ भी, सरल भी है मिथ्या संभव।
वे भी तो एक मानव ही, उनसे भी होती सब तरह की भूले-अपराध
पर क्या हाथ धरे बैठे, शक्ति में हो कुछ परियोजनाऐं करो साकार।
जग ने कुछ तो कहना है पर करो जो सार्वजनिक हित में लगे उचित
जरूरी न सहयोगी-प्रशंसक सदा ही खुश, उनकी भी तो सोच-निज।
विरोधी-वार्ता को तो छोड़ दो, हर कदम पर है स्वार्थ-कुचक्र ही दर्शन
कुछ उचित तर्क भी संभव, अतः समझना, अपने से भी उठना ऊपर।
क्या सक्षम उचित-जाँचन में, जबकि विषयों का अति अल्प-ज्ञान है
फिर जिंदगी में कुछ जोखिम तो लेना होगा, होने के लिए उठ खड़े।
हर पहलू में है अच्छाई-बुराई, हर महद प्रयोग का सदा मूल्य एक
वह अहम को भी देना पड़ता, दुनिया भूलों का हिसाब लेगी माँग।
किसको छोड़ता जग, अति-पूर्व मृत को भी तंजों से जिलाए रखता
हर महान पर भी चरित्र-दोषारोपण, सामान्यों की तो करें बात क्या।
इतिहास-पुराणों, महाकाव्य-ग्रंथों में, सब तरह के चरित्रों का बखान
माना लेखक का भी एक मंतव्य, पर प्रजा भी का निज-ढ़ंग विचार।
माना स्वार्थ एक सीमा, बहुदा क्षीणता से बाहर आने का यत्न
जरूरी न गृहकार्य पूर्ण ही, सलाहकारों पर भी अति-निर्भर।
वे भी सब अपूर्ण, ज्ञान-अनुभव-विवेक सीमा में उपदेश करते
जीवन तो सब भाँति, अपूर्णता हुए भी सब कार्य करने पड़ते।
देश में एक महा बौद्धिक युद्ध, सबका विषय पर निज-मंतव्य
पक्ष-विपक्ष में भक्तों-विरोधियों के सब संवाद हो रहें प्रचलित।
न जाना चाहूँ गुण-अवगुण , पर निर्णय तो शासन द्वारा ले गया
नकारात्मकता क्षीण हो, भविष्य मोदी को समेकित आँकेगा।
माना विशेषज्ञ उनके पास भी, पर विद्वानों की शिक्षा श्रेयस्कर
आस्था लेना जरूरी जबकि ज्ञात प्रबल वेग, हानि विफलता पर।
आपकी मंशा है पवित्र संभव, आमजन-सुविधा हेतु कुछ छूट थी
पर विशाल १२५ करोड़ जन, बहु अभाव-कष्टों में रहा देश जी।
तुलना अनुचित संपन्नों की निर्धनों से, जो अति-अभाव में जीते
लोगों का हक़ मार अनेक अमीर, कोई कहे तो दुश्मन लगते।
कहाँ से वैभव-साम्राज्य फूटता, क्या नेकी से ही कमाया पैसा
लाभ की भी हो सीमा, सच-झूठ बोल ही न उल्लू करे सीधा।
देश में विधि-राज्य होना आवश्यक, न्याय मिले खुशहाल सब
उत्तम नृप का तो निर्बल-हित मन, निस्संदेह समता वृद्धि कुछ।
यह न दानवीरता या अनुकंपा, सबको सम हक़ जो ईश भी चाहे
छोटे दड़बों में निर्धन-निरीह, कुछ प्रकाश हो तो सुकून मिले।
क्या मत कवायद में, लुब्ध-चाटुकार-पूर्वाग्रहियों की बात छोड़
सब निज ढंग से स्थिति-लाभ लेंगे, किंचित लाभ आम प्रजा को।
यह 'ऊँट के मुँह में जीरा', या अनावश्यक कष्ट में देना धकेल
समृद्धों पास तो सब उपकरण, निर्बलों को ही परेशानी महद।
चलो अल्प-कालिक दुःख भी झेलेंगे, यदि अग्र सुख-संभावना
पर जरूरी कि लूट-खसोट संस्कृति पर चाहिए विराम लगना।
फिर बाँटना सभी में यथोचित, देश की खुशहाली सभी में बँटे
न्याय बड़ा शब्द यदि प्रयोगित, इससे विश्व-चित्र बदल सके।
मेरी मंशा ठीक चाहे तरीका न, न ही उस पर पूर्ण-विचार
जो किया जैसे बना, भाई सहयोग से ठीक करना आकर।
आँको जो उचित लगे, मंशा पर प्रश्न न हो, ठगा जा सकता हूँ
इतना बुरा न, दारिद्रय देखा, आज स्थिति में तो क्यूँ न सोचूँ।
मत तुलना करो अन्य पूर्वजों से, इस काल में हूँ काम दो करने
टाँग-खिंचाई प्रजातंत्र में जरूरी, तंज-तर्क उचित दिशा देते।
चाटुकार तो मरवा ही देंगे, प्रजा तुम सहारे सहयोग देना पूर्ति
प्रतिबध्दता समरस समाज प्रति, लोकहित में ही निज-उन्नति।
पवन कुमार,
२८ अप्रैल, २१०८ समय ११:२३ म० रा०
(मेरी डायरी दि० ३० नवंबर, २०१६ समय ९:२० प्रातः से)
माना विशेषज्ञ उनके पास भी, पर विद्वानों की शिक्षा श्रेयस्कर
आस्था लेना जरूरी जबकि ज्ञात प्रबल वेग, हानि विफलता पर।
आपकी मंशा है पवित्र संभव, आमजन-सुविधा हेतु कुछ छूट थी
पर विशाल १२५ करोड़ जन, बहु अभाव-कष्टों में रहा देश जी।
तुलना अनुचित संपन्नों की निर्धनों से, जो अति-अभाव में जीते
लोगों का हक़ मार अनेक अमीर, कोई कहे तो दुश्मन लगते।
कहाँ से वैभव-साम्राज्य फूटता, क्या नेकी से ही कमाया पैसा
लाभ की भी हो सीमा, सच-झूठ बोल ही न उल्लू करे सीधा।
देश में विधि-राज्य होना आवश्यक, न्याय मिले खुशहाल सब
उत्तम नृप का तो निर्बल-हित मन, निस्संदेह समता वृद्धि कुछ।
यह न दानवीरता या अनुकंपा, सबको सम हक़ जो ईश भी चाहे
छोटे दड़बों में निर्धन-निरीह, कुछ प्रकाश हो तो सुकून मिले।
क्या मत कवायद में, लुब्ध-चाटुकार-पूर्वाग्रहियों की बात छोड़
सब निज ढंग से स्थिति-लाभ लेंगे, किंचित लाभ आम प्रजा को।
यह 'ऊँट के मुँह में जीरा', या अनावश्यक कष्ट में देना धकेल
समृद्धों पास तो सब उपकरण, निर्बलों को ही परेशानी महद।
चलो अल्प-कालिक दुःख भी झेलेंगे, यदि अग्र सुख-संभावना
पर जरूरी कि लूट-खसोट संस्कृति पर चाहिए विराम लगना।
फिर बाँटना सभी में यथोचित, देश की खुशहाली सभी में बँटे
न्याय बड़ा शब्द यदि प्रयोगित, इससे विश्व-चित्र बदल सके।
मेरी मंशा ठीक चाहे तरीका न, न ही उस पर पूर्ण-विचार
जो किया जैसे बना, भाई सहयोग से ठीक करना आकर।
आँको जो उचित लगे, मंशा पर प्रश्न न हो, ठगा जा सकता हूँ
इतना बुरा न, दारिद्रय देखा, आज स्थिति में तो क्यूँ न सोचूँ।
मत तुलना करो अन्य पूर्वजों से, इस काल में हूँ काम दो करने
टाँग-खिंचाई प्रजातंत्र में जरूरी, तंज-तर्क उचित दिशा देते।
चाटुकार तो मरवा ही देंगे, प्रजा तुम सहारे सहयोग देना पूर्ति
प्रतिबध्दता समरस समाज प्रति, लोकहित में ही निज-उन्नति।
पवन कुमार,
२८ अप्रैल, २१०८ समय ११:२३ म० रा०
(मेरी डायरी दि० ३० नवंबर, २०१६ समय ९:२० प्रातः से)
Puran Mehra : Life is full of compromises for own survival and for survivals of our dear ones. It is easier than done not to take sides. Truth is not what we see and what we perceive or what we believe in. Truth is always like allusion and like a mirage. At the same time, one should follow truth to the extent possible.
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