परिच्छेद – ३ (भाग -१)
विन्ध्य
नामक एक वन है
जो पूर्वी एवं पश्चिमी महासागरों का आलिंगन करता
है, और मध्य-क्षेत्र
को ऐसे सुशोभित करता है जैसे यह
पृथ्वी-अंचल हो। यह वन्य गजों
के मद-सिंचित द्रुमों
से रमणीय है जो अपने
शीर्षों पर श्वेत पुष्प-भार धारण करते हैं; इसमें श्यामवल्ली (काली मिर्च) के वृक्ष हैं,
जिनकी शाखाऐं फैली हुई हैं और जो वासंतिक-हर्ष में गरुड़ों द्वारा काटी जाती हैं; किशोर हस्तियों द्वारा रौंदी गई तमाल शाखाऐं
इसे सुवास से भर देती
हैं; कली-वर्ण जैसे मालाबारियों के मदिरा-रंजित
कपोल, जैसे वन-परियों के
चरण-लाख की गुलाबी से
परिच्छादित हैं। भूमि में यहाँ रक्त-तुण्डों (शुकों) द्वारा फोड़े गए दाड़िम (अनार)
के टपकते रस से द्रवित
निकुञ्ज (लतामण्डप) भी हैं उच्छृंखल कपियों (वानरों) द्वारा हिलाऐं कैर-वृक्षों के फटे हुए
फल-पल्लवों से आच्छादित, अथवा
सदा गिरते कुसुमों से बौछारित, या
पथिकों द्वारा बिछाई गई लवंग-शाखाओं
की शय्या या उत्तम नारिकेल,
केतकी, कैर और बकुल (मौलश्री)
के तरुओं की झालर से,
लता-कुंज इतने ललित हैं कि उनके सुपारी
वृक्ष ताम्बूल-लताओं से गुँथे हुए
हैं; ये सब एक
वन-लक्ष्मी हेतु एक उपयुक्त आवास
निर्माण करते हैं। गहन उगे हुए इला-वृक्ष वन को तिमिरमय
व सुवासित बनाते हैं जैसे वन्य गजों के मद से;
दन्तियों के मस्तक-अस्थियों
के मुक्ता (गज-मुक्त) प्राप्ति
हेतु उत्सुक क्रूर व्याधों द्वारा मारे जाने वाले शतों सिंह, जिनके नख-दंत में
मुक्ता अभी तक चिपके हुए
हैं, वहाँ विचरते हैं; यह मृत्यु-आश्रय
सम, यम-दुर्ग सम
भयावह है और उसकी
प्रिय महिषियों से पूरित है;
एक युद्धरत वाहिनी (सेना) सम इसके तरु-शरों पर भ्रमर तीक्ष्ण
शल्य सम हैं, और
वनराज-गर्जना जैसे युद्ध-नाद भाँति स्पष्ट हैं, इसके गण्डकों (गैंडों) के शृंग दुर्गा
के खड़ग सम भयानक है,
और उसकी तरह ही लाल-चंदन
गाच्छों से अलंकृत हैं,
कर्णीसुता-कथा के शशों सम
इसके निकटस्थ वृहद पर्वतिकाओं में विचरते विपुल, अचल एवं शश हैं; एक
युग की अंतिम-संध्या
की गोधूलि में नीलकंठ के क्रोधोन्मत नृत्य
सम इसके नील-कण्ठ मयूरों का नृत्य है
और गहरे लाल वर्ण में भर जाता है;
जैसे समुद्र-मंथन समय श्री कल्पतरु की महिमा और
वरुण के मधुर झौंकों
द्वारा घिरी हुई थी उसी प्रकार
यह श्री एवं वरुण तरुओं द्वारा विस्तृत है।
यह
मेघों संग पावस ऋतु सम गहन घन
है और असंख्य शतों
सरोवरों से अलंकृत है,
शशि भाँति यह सदा हेतु
भालुक्कों का आश्रम है
और शशों का गृह है।
एक नृप-प्रासाद भाँति यह कौड़ी-हिरणों
की पुच्छलों से सुशोभित है
और भयावह करियों (हाथी) द्वारा सुरक्षित है। दुर्गा सम यह प्रकृति
की शक्ति है और सिंह
द्वारा आश्रित है।सीता सम इसके पास
कुश एवं निशाचर (उलूक) विचरित है। प्रेमोन्मत्त कामिनी सम यह चंदन
व कस्तूरी का तिलक धारण
करती है और चमकीले
अगरु के तिलक से
अलंकृत है, अपने प्रेमी की अनुपस्थिति व
मदनागोश में सजनी सम यह अनेक
शाखाओं की पवन द्वारा
पंखा झली जा रही है;
एक बालक-ग्रीवा सम यह बाघ-नख पंक्तियों द्वारा
कांतिमय है और एकशृणों
(गेंडों) द्वारा अलंकृत है; अमृतमयी-घूँट संग यह आमोद-आवास
है, सैंकड़ों मधु-मक्खी छत्तें हैं और कुसुमों द्वारा
परिच्छादित है। भागों में इसके विशालकायी शूकरों द्वारा फाड़ी गई धरा-वृत्त
है, विश्व के अंत-काल
सम जब महावराह के
दंष्ट्रों द्वारा पृथ्वी-वृत्त को उठाया गया
था; रावण-नगरी की भाँति यह
विशाल साल-वृक्षों द्वारा पूरित है जिसमें उद्विग्न
वानर निवास करते हैं। यहाँ पर दृश्य एक
नूतन-विवाह का है, कुश
तृण, समिधा, कुसुम, बबूल व पलाश; यहाँ
सिंह-चिंघाड़ पर रोंगटे खड़े
हो जाते हैं; यहाँ प्रसन्नता से पगली सी
हुई कोयल का सुरीला कंठ-संगीत है, ताड़-पत्ते ऐसे गिरते हैं मानो एक विधवा अपने
कर्ण-बालियाँ गिरा देती है, युद्ध-क्षेत्र सम यह नुकीले
बेंतों से परिपूरित है;
यहाँ इंद्र-वपु सम इसकी सहस्र
अक्षि हैं; यहाँ विष्णु-रूप की भाँति घन
तमाल वृक्ष हैं; अर्जुन की रथ-ध्वजा
सम यह वानरों द्वारा
चिन्हित है; यहाँ एक महीपाल के
न्याय-परिसर सम बांसों के
मध्य से मार्ग पाना
कठिन है; राजा विराट-नगरी सम यह एक
कीचक द्वारा रक्षित है; व्याधों द्वारा पीछा किए गए इसके मृगों
के नेत्र यहाँ आकाश-लक्ष्मी सम विलोल हैं;
यहाँ एक तपस्वी भाँति
इसके पास छाल, झाड़ियाँ, फटी-पट्टियाँ और घास है।
यद्यपि सप्तपर्ण से अलंकृत इसके
अभी असंख्य पल्लव है; यद्यपि तपस्वियों द्वारा सम्मानित यह अभी अति-असभ्य वन्य है; तथापि वसंत-ऋतु में यह अभी अति-पावन है।
उस
वन में एक तपो-आश्रम
है जो धर्म के
एक जन्म-स्थल सम विश्व-प्रसिद्ध
है। यह लोपमुद्रा द्वारा
अपनी संतति सम और अपने
हाथों से जल-सिंचित
और पंक्ति-बद्ध द्रुमों से सुशोभित है।
वह महान तपस्वी अगस्त्य की भार्या थी
जिसने इंद्र-प्रार्थना पर महासागरों का
समस्त जल पी लिया
था और एक जब
मेरु की प्रतिद्वंद्विता में आकाश
में विस्तृत सहस्र चौड़े शिखरों द्वारा विंध्य पर्वत दिवाकर का पथ-रुद्ध
का प्रयास कर रहा था,
तब भी उन्होंने उसके
आदेशों का पालन किया
था; जिसने अपनी अन्तः-अग्नि द्वारा वातापि दैत्यों को पचा लिया
था; जिसकी चरण-रज को देव-दानवों के सुवर्ण-आभूषण
धारित शीर्षों द्वारा चूमा जाता है; जिसने दक्षिण-क्षेत्र की भ्रू अलंकृत
की है; और जिसने मात्र
बुदबुदाने के बल से
नहुष को स्वर्ग को
नीचे खींचने द्वारा अपनी महिमा सिद्ध की है।
यह
तपोवन लोपमुद्रा-पुत्र दृद्धदस्यु द्वारा पवित्र किया गया है जो एक
तपस्वी है, हाथ में व्रत-चिन्ह रूप में पलाश-दण्ड लिए, पवित्र भस्म निर्मित एक सचिवीय चिन्ह
धारण किए, मूँज-मेखला सहित कुश-अंशुक पहने, एक कुटी से
दूसरी कुटी तक भ्रमण करते
समय एक कुशा-पात्र
रखता है। प्रचुर मात्रा में ईंधन लेने के कारण उसके
पिता ने उसको छेत्तृ
(लकड़हारा) नाम दे दिया है।
यह
स्थान अनेक स्थलों पर हरित शुकों
और कदलीफल-कुंजों द्वारा घन है, और
गोदावरी नदी द्वारा परिगत है, जो एक पतिव्रता
नारी सम सागर-अनुसरण
करती है जब वह
अगस्त्य द्वारा पी लिया गया
था।
महान
तपस्वी अगस्त्य का अनुसरण करते
हुए, जब राम ने
अपने तात का वचन पालन
हेतु सिंहासन भी त्याग दिया
था, वहाँ लक्ष्मण द्वारा और यहाँ तक
कि अपने द्वारा एक सुखकर पर्णकुटी
में सीता संग कुछ समय आनंद के साथ बिताया
था। राम रावण-महिमा की विजय का
उत्पीड़क था।
'यद्यपि
तपोवन वहाँ अति-दीर्घ काल से रिक्त है,
अभी भी तरु-शाखाओं
में कोमल-नीड़ बनाए कपोत-पंक्ति दिखती हैं, वहाँ तपस्वियों की पवित्र यज्ञ
धूम्र-रेखाऐं चिपकाई लता-कलियों पर कांति प्रफुटित
होती है, जैसे कि सीता के
हाथों द्वारा पुष्पार्पण करने से उन तक
पहुँच गए; वहाँ जैसे तपस्वी द्वारा पिबित सागर-वारि तपोवन के सर्वत्र विशाल
सरोवरों में भेज दिया है; वहाँ वृक्ष अपने नूतन पल्लवों से दीप्त हैं
जैसे उनकी मूलें राम के प्रखर शरों
द्वारा असंख्य दैत्यों के रक्त से
सिंचित हैं, और जैसे कि
इसके पलाश अपने लोहित वर्ण संग अभिरञ्जित हैं।
वहाँ
अभी भी जो वृद्ध
मृग सीता द्वारा पोषित किए गए थे, जब
पावस ऋतु में नूतन-मेघों के गर्जन को
सुनते हैं तो वे राम
के धनुष-टंकार द्वारा ब्रह्माण्ड-शून्य भेदने के विषय में
सोचते हैं, और अपने मुख
में भरी ताजी-तृण का विसर्जन कर
देते हैं जबकि उनके नेत्र निरंतर अश्रुओं से मंद हो
जाते हैं जैसे ही वे निर्जन
विश्व और वयवृद्धि से विशीर्ण (चूर्ण)
होते अपने शृंगों को देखते हैं;
वहाँ भी सुवर्ण मृग
जैसे कि यह अन्य वन्य-कुरंगों द्वारा उत्तेजना से सीता को
वंचना (धोखा) देकर और रघु-पुत्र
को दूर ले जाते हुए
असंख्य खदेड़े जाने के बाद मारा
जाता है; वहाँ भी सीता के
कटु-विरह से अपने संताप
में राम व लक्ष्मण कबन्ध
द्वारा पकड़ लिए जाते हैं, जैसे कि रावण की
मृत्यु का अग्रदूत बने
सूर्य-चन्द्र ग्रहण ने ब्रह्माण्ड को
भयावह त्रासदी से भर दिया
हो; वहाँ भी राम के
बाण से काटी गई
योजनबाहु की भुजा जैसे
यह भूमि पर गिरती है,
साधुओं में भीत उत्पन्न करती है जैसे कि
यह अगस्त्य के शाप से
वापस लाए गए नुहुष का
सर्प-रूप हो; वहाँ अभी भी वनवासी अपने
पति द्वारा त्याग दी सीता को
सांत्वना देने हेतु अपनी कुटियों में भित्ति-चित्रित करते हैं, जैसे कि वह अपने
पति-गृह दर्शन की इच्छा लिए
भूमि से पुनः उठ
पड़ेंगी।
उस
अगस्त्य-तपोवन के निकट, जिसका
इतिहास स्पष्टता से देखा जाना
शेष है, पम्पा नामक एक मृणाल सरोवर
है। जैसे कि अगस्त्य-प्रतिद्वंद्विता
में समुद्र-पान से क्रुद्ध वरुण
के उकसाने पर विधाता द्वारा
विचरित यह एक द्वितीय
सागर हो; जैसे प्रलय-दिवस में अष्ट दिक-खण्ड बंधन हेतु वसुधा पर पतित यह
गगन हो। निश्चित ही यह वरुण
का अतुलनीय गृह है और इसकी
गहराई व विस्तार को
कोई नहीं बता सकता। वहाँ अभी भी पथिक खिलते
कमल-किरणों से नीलम हुए
चक्रवाक-युग्लों को देख सकता
है, जैसे कि राम के
अभिनित शाप द्वारा वे लील दिए
गए हों।
उस
सर के वाम तीर
पर और राम-सायकों
द्वारा विच्छेदित बेंत-द्रुमों के गुल्म (कुञ्ज)
के निकट एक वृहद वृक्ष
था। यह ऐसे प्रतीत
होता है कि यह
एक विशाल-गव्हर में बंद हो इसकी मूलें
एक विशाल भुजंग द्वारा सदा वृत्त हैं जैसे कि दिशाऐं गज-शुण्डों द्वारा; यह केंचुली संग
आच्छादित विषधर सम प्रतीत होता
है जो इसके विशाल
स्कन्द (तना) पर लटका है
और पवन में झूलता है, यह गगन में
विस्तृत अपनी बहु-शाखाओं द्वारा खगोल वृत्त की परिधि मापने
का प्रयत्न करता है; और अतएव शिव-अनुसरण करता है जिसकी प्रलय-दिन के वीभत्स नृत्य
में सहस्र भुजाऐं फैली हुई हैं, और जिसने अपने
मस्तक पर शशि धारण
कर रखा है। वर्षों के अपने भार
से यह यहाँ तक
कि वात के स्कन्ध को
भी जकड़ लेता है, इसका सम्पूर्ण तना लताओं द्वारा परित (घिरा हुआ) है और जो
वृद्ध वय की मोटी
शिराओं की भाँति पृथक
दिखता है। प्रौढ़ावस्था के मस्सों सम
इसके धरातल पर कंटक उगे
हुए हैं; गहन मेघ भी जो इसके
पल्लवों को सिंचित करते
हैं, इसके शीर्ष को नहीं बाँध
सकते हैं, जब वे समुद्र
का जल पीकर सब-दिशाओं से गगन में
लौटते हैं और अपने जल-भार से क्लांत एक
क्षण विश्राम लेते हैं जैसे खग इसकी शाखाओं
में। इसकी महान उच्चता देखने से यह नंदन
वन की महिमा सम
प्रतीत होता है, इसकी उच्चत्तम शाखाऐं रुई सी श्वेत हैं
जिसको मनुज, आकाश-मार्ग से गुजरने से
थके अर्क (सूर्य) के अश्वों के
मुख-कोनों द्वारा पड़ते फेन (झाग) समझ लेते हैं, जैसे ही वे इसके
निकट आते हैं; इसकी पटल (छत) एक युग तक
चलेगी क्योंकि वन्य हस्तियों के गण्डों (कपोल)
पर चिपके मधुमत्त भ्रमरों द्वारा यह रगड़ी जाती
है, ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे
खोखले तने में से अंदर-बाहर
आती मधु-मक्खियों के झुण्ड द्वारा
यह संजीवन हुआ जाता है। यह अवरूढ हेतु
खग-पंखों को शरण देता
है, जैसे दुर्योधन शुकुनि के हिमायतीपन का
प्रमाण प्राप्त करता है; कृष्ण सम यह एक
वन्य पुष्पहार द्वारा वृत्त है; बाल-मेघों सम इसका उदय
आकाश में देखा जाता है। यह एक मंदिर है
जहाँ से वन्य-देवियाँ
समस्त विश्व को देखा करती
है।यह दण्डक वन का भूप
है, स्वामी द्रुमों का नेता है,
विंध्य-पर्वतिकाओं का सखा है,
और यह समस्त विंध्य-वन को अपनी
शाखा-रूपी भुजाओं से आलिङ्गन करता
प्रतीत है। वहाँ, शाखा-किनारे पर, दरार-मध्य में, टहनियों के बीच, तनों
के जोड़ों में, सड़ी छाल के सुराखों में
वक्रचुंचों (तोतों) के दलों ने
अपना निकेतन बना रखे हैं, प्रावण्य
(ढ़लान) से वे निर्भयता
से प्रत्येक दिशा से इसमें आते
हैं। यद्यपि प्रौढ़ायु कारण पल्लव पतले हैं, यह अभी भी
गहन वनस्पति संग हरित दिखता है, जैसे वे इसके ऊपर
दिवस-निशा विश्राम करते हैं। इसमें वे अपने निलयों
(नीड़) में रात्रि बिताते हैं और प्रतिदिन जैसे
वे जागृत होते हैं, गगन में अवलियाँ (पंक्तियाँ) बनाते हैं; वे गगन में
अपने मद में बलराम
के हल द्वारा घसीटी
हुई चौड़े पाटों वाली विस्तृत यमुना सम सदृश दिखते
हैं; वे भास्कर-वल्लभों
(अश्वों) की कांति से
नभ में एक रेखा सम
दिखाई देते हैं; वे कदली-पल्लवों
(केला) की तरह आकाश
में अपने पंख फैलाए हुए, अर्क (सूर्य) की तीक्ष्ण मरिचियों
के वहन से क्लांत दिशाओं
के मुखों को वीजन (पंखा)
झलते हैं; वे गगन विचरण
करते हुए कुशा पथ सम रूपलेते
हैं, और वे जैसे
ही भ्रमण करते हैं, आकाश में एक इंद्र-धनुष
शोभा प्रदान करते हैं।भोजन उपरांत वे शिशुओं के
पास लौट आते हैं जो घौंसलों में
रहते है और वधित
मृग के रक्त से लोहित
भाग-नखों सम अपनी पाटल
(गुलाबी) चंचु से उन्हें फलरस सुरुचिकर
चावलों के कौर उन्हें
देते हैं, क्योंकि अपने शावकों प्रति गहन वात्सल्य और अन्य बंधन
गौण हो जाते हैं;
तब वे अपने नन्हों
को वाजों (पंख) में लेकर यामिनी (निशा) इसी वृक्ष में व्यतीत करते हैं।
"अब
मेरा पिता जो अपनी प्रौढ़
वय कारण अपने जीवन को किसी तरह
घसीट रहा था, मेरी माता के साथ एक
अमुक खोल में रहता था, और दैव-विधान
से मैं ही उसका एकमात्र
पुत्र उत्पन्न हुआ।मेरी माता जब मैं पैदा
हुआ, प्रसव-पीड़ा द्वारा विजित होकर, अन्य लोक चली गई, और अपनी प्रिय
जाया (पत्नी) का मृत्यु-शोक
होते हुए भी, मेरे पिता ने अपने संतति-प्रेम कारण निज-कष्टों के प्रबल आक्रमण
को नियंत्रण किया, और अपने एकाकीपन
को पूर्णतया मेरे पालन-पोषण में समर्पित किया। वृद्धायु कारण, चौड़े पंख जो वह फैलाता
था, जो अपनी उड़ान-शक्ति खो बैठे थे
और उसके कंधों से शिथिल लटकते
थे, और जब वह
उनको हिलाता था तो वह
अपने तन से चिपके
कष्ट-दायक वय-वृद्धि से
मुक्ति का प्रयास करता
प्रतीत होता था, जबकि किंचित शेष दुर्म (पुच्छ) पंख कुश तृण सम टूट गए
थे; और यद्यपि वह
सुदूर पात (उड़ान) में असमर्थ था तथापि शुकों
द्वारा काटे गए वृक्ष के
नीचे गिरे फलों के टुकड़ों को
एकत्रित करता था तथा अन्य
नीड़ों से अधो-पतित
शाली-बालियों से चावल के
दाने चुगता था, वह भी उस
चोंच से जिसकी नोक
टूटी हुई थी और किनारा
तंडुल (चावल) के टुकड़े तोड़ता
हुए फट एवं घिस
गया था और शेफालिक
(हार-सिंगार) पुष्प के सख्त डंठल
सम गुलाबी था, और प्रतिदिन मेरे
द्वारा शेष भाग पर निर्वाह करता
था।
परन्तु
एक दिवस मैंने मृगया की कोलाहल-ध्वनि
सुनी। उषा-दीप्ति से रक्तिम हुआ
अमृतांशु (चन्द्र, शशि) स्वर्गिक-गंगा द्वीप से पश्चिमी समुद्र
तट में अस्त हो रहा था,
जैसे कि दिव्य कमल-पंक्ति के मधु से
लोहित हुए पंखों वाला एक वृद्ध हंस;
आकाश-वृत्त वृहद हो रहा था,
और एक रंकु-मृग
के रोयों सम शुभ्र था;
स्वर्ग-कुट्टिम (फर्श) पर छितरित कुसुमों
सदृश सितारों का झमघट मरिचिमाली
(सूर्य) की प्रखर रेणुओं
द्वारा हटाया जा रहा था
जैसे कि वे लाल-मुक्ताओं की मार्जन (बुहारी)
हों, क्योंकि वे गज-रक्त
में सने सिंह-केसर सम लोहित थी,
अन्यथा ज्वलित लाक्ष-दण्डों सम गुलाबी थी;
और जैसे कि सप्तर्षि मंडल
उषा-अर्चना करने हेतु उत्तर-स्थित मानसरोवर तीर पर उतर रहा
हो; पश्चिमी समुद्र मुक्ता-सम्पदा उछाल रहा था, इसके तीर पर खुली सीपियाँ
बिखरी पड़ी थी, जैसे अर्क (सूर्य) -रश्मियों से पिघले सितारें
इस पर गिरे हैं;
जलोढ़ (मेघ) द्वीप-तलों को श्वेत कर
रहे थे; इसके सिंह जृम्भण (उबासी) ले रहे थे;
इसके वन्य दन्ती हस्तिनी-झुंडों द्वारा जगाए जा रहे थे,
और श्रद्धापूर्ण उठें पुष्प-गुच्छ लिए जिनके पल्लव रात्रि के अश्क (ओस)
से भारी थे, करों सम इसकी शाखाऐं
सूर्य की ओर ऊपर
जाती थी, जब वह पूर्वी
पर्वत के शिखर पर
स्थित होता था।एक खर (गदहा) के केशों सम
भूरा तपोवन याज्ञिक धूम्र-रेखाऐं के पावन ध्वजों
सम दीप्तिमान था और जहाँ
वृक्ष-शिखरों पर विश्राम करते
कपोतों संग वन-अप्सराऐं निवास
करती थी। प्रातः-कालीन समीर बह रहा था
और सौम्यता से विचर रहा
था क्योंकि यह रात्रि-अंत
से क्लांत था, यह कुसुम-सुवास
से भ्रमरों को प्रमुदित कर
रहा था, यह खुले मृणालों
से मधु-विन्दुओं की बौछारें कर
रहा था; यह अपनी लरजती
टहनियों से नर्तकी लताओं
को शिक्षा देने हेतु उत्सुक था; यह वन्य महिषियों
की जुगाली से उठते झागों
की बूँदों संग ले जाता था;
यह उत्पलों को हिला रहा
था और इसके साथ
ओस-बिंदुओं को गिरा रहा
था।
भ्रमर
जिन्हें दिवस-उत्पल कुञ्जों को जगाने हेतु
गज के मस्तक-मुक्ताओं
पर मंगल-गान हेतु मृदंग बन कर रहना
चाहिए था, ने अब निशा-मृणालों के हृदयों से
अपना गुँजन भेजा क्योंकि उनके पंख बंद पँखुड़ियों में अवरुद्ध थे, ने धीमे से
नेत्रखोले, जिनकी पुतलियाँ शेष-नींद से अभी तक
वक्र (तिरछी) थी, और प्रातः समीर
की शीतलता के पाश में
थे जैसे कि उनकी पलकें
उष्मित लाक्ष द्वारा परस्पर जोड़ दी गई हो,
वनवासी यहाँ-वहाँ शीघ्रता कर रहे थे;
पम्पा सरोवर पर कलहंसों का
कर्ण-प्रिय कोलाहल अब प्रारम्भ हो
रहा था; हस्तियों के कर्णों की
सुखद फड़फड़ाहट मयूरों को नृत्य करनेको
बाध्य कर रहा थी;
समय से सूर्य उदित
हुआ, और पम्पा-सर
के इर्द-गिर्द द्रुम-शिखरों पर विचरता रहा,
और पर्वत-श्रृंगों को मजीठ लताओं
की किरणों से सूर्य के
गज से, जैसे वह आकाश में
छलाँग लगाता था कोड़ियों की राशि
नीचे झुकती हुई; सूर्य से फूटीं नूतन
मयूखें वन-भूमि पर
पड़ती हुई सितारों को निर्वासित कर
रही थी, वानरराज बाली सम जिसने तारा
को पुनः खो दिया था;
प्रातः-उषा दिवस का अष्टम प्रहर
अधिकार में लेते हुए शीघ्र ही दर्शित हो
गई, और सूर्य का
प्रकाश स्पष्ट हो गया। शुक-दल इच्छित स्थलों
की ओर प्रारम्भ हो
चुके थे; द्रुम महा-नीरवता कारण रिक्त प्रतीत होते थे यद्यपि उनके
नीड़ों में सभी नव शुक-शिशु
अव्याकुलता से विश्राम रहे
थे।
मेरे
तात अपने कोटर में थे, और मैं जिसके
पक्ष शैशव के कारण मुश्किल
से उड़ने योग्य हुए थे और कोई
शक्ति नहीं थी, उनके निकट कोटर में था कि तभी
मैंने अचानक वन में मृगया
की कोलाहल-ध्वनि सुनी। इसने प्रत्येक वनचर को भयभीत दिया
था, यह विहंगों के
शीघ्रता से ऊर्ध्व पतङ्ग
(उड़ने) हेतु पक्षों (पंख) की फड़फड़ाहट से
उठा था; यह विडोलित लताओं
पर आंदोलन से प्रमत्त भ्रमरों
की भिनभिनाहट से बढ़ गया
था; यह विचरते वन्य-शूकरों को गुरगुराहट से
उठा था; यह पर्वत-कन्दराओं
में जगा दिए गए सुप्त सिंहों
की दहाड़ से विस्तृत हो
गया था; यह वृक्षों को
हिलाता हुआ प्रतीत हो रहा था,
और गंगा की प्रचण्ड धारा
के कोलाहल सम महद था,
जब वह भागीरथ द्वारा
नीचे लाई गई थी; और
वन-देवियाँ इसे भयभीत सी सुन रही
थी।
'जब
मैंने इस अदभुत ध्वनि
को सुना मैंने अपने बचपने में कॉंपना प्रारम्भ कर दिया; मेरे
कर्णों के परदे लगभग
फट गए थे; मैं
भय से काँप रहा
था और सोच रहा
था कि मेरा तात
जो निकट था, सहायता कर सकेगा, मैं
उनके पक्षों में खिसक गया, जो आयु के
कारण शिथिल पड़ गए थे।
तुरंत
मैंने हो-हल्ला सुना।
अतः गजपतियों द्वारा कुचल (रौंद) दिए गई कमल-पंक्तियों
की सुवास आ रही है।
अतः जंगली घास के इत्र को
शूकर चबा गए हैं ! अतः
नव गज-शावकों ने
लोबान के द्रवरस (गोंद)
की तीखी गंध को विभाजित कर
दिया है ! अतः कम्पित शुष्क पर्णों की सरसराहट है
!
अतः
वन्य महीषियों द्वारा वज्रपात सम विदीर्ण पिपीलिकाओं
(चींटियों) की बाम्बी की
रज है ! अतः मृगों का एक झुण्ड
! अतः वन्य हस्तियों का एक यूथ
! अतः वन्य शूकरों का एक दल
! अतः एक मयूर-वृत्त
का क्रन्दन ! अतः कपोतों की कुड़कुड़ाहट ! अतः
सिंहों द्वारा मस्तक-अस्थि फाड़े गए दन्तियों की
कराह ! यह ताजे पंक
द्वारा सना एक शुकर-पथ
है ! यह कुरंगों की
जुगाली से उठते फेनों
का ढ़ेर है, जो तुरंत खाई
हुई मुखभर तृण-रस से किंचित
कृष्ण पड़ गई है
! यह मुखर मधु-मक्षिकाओं की भिनभिनाहट है
जो मस्तक पर मद बहते
हस्तियों के घर्षण से
छोड़ी सुगंध के संग चिपक
गई है। वह बहाए गए
रक्त-सिक्त कुम्हलाऐ हुए पल्लवों से पाटल (गुलाबी)
रुरु मृग का पथ है
! वह हाथी-पादों द्वारा दलित तरुओं की शाखाओं का
ढ़ेर है। यह एकदन्तों (गेंडों)
की कलोल (कूद-फाँद) है; वह गज-मुक्ताओं
के तीक्ष्ण-अंशों से भरा सिंह-मार्ग है, रक्त से गुलाबी और
एक क्रूर उपकरण उनके नखों द्वारा उत्कीर्ण; वह मृगिणियों के
नव-जनित शिशुओं के रक्त से
लोहित भूमि है; वह स्वेच्छा से
भ्रमण कर रहे यूथपति-मत्त से कृष्ण एक
विधवा की माँग सम
मार्ग है ! हमारे समक्ष जा रही इस
चमरी गौ (याक) का अनुसरण करो
! शीघ्रता से वन के
इस भाग को प्राप्त कर
लो जहाँ मृगों का वाश्र (गोबर)
सूख गया था।
वृक्ष
के शिखर पर चढ़ जाओ
! उस दिशा में देखो ! इस ध्वनि को
सुनो ! अपने स्थान में खड़े हो जाओ ! शिकारी
कुत्तों को खोल दो
!" मृगया (शिकार) का इरादा लिए
परस्पर चिल्लाते और वृक्षों के
खोलों में छिपे नरों की सेना से
वन काँप रहा था।
तब
शीघ्र ही वन सब
दिशाओं से शबरों के
शरों द्वारा आक्रमण किए गए सिंहों की
चिंघाड़ से प्रकम्पित
गया, जो पर्वत-कन्दराओं
से प्रतिघात-गूँजों द्वारा गहन थी, और नव-तैल
लगाए ढोल की थाप सम
प्रखर थी; तड़ित-गड़गड़ाहट सम दल का
नेतृत्व कर रहे गज-चिंघाड़ द्वारा जो अपने सूंडों
के असंख्य बार पीटने से जैसे वे
अकेले आते थे और भयभीत
दलों से पृथक हो
गए थे; अपनी कातर विडोलित अक्षियों द्वारा हिरणों का करुण-क्रंदन,
जब मृगया श्वान (कुत्ते) अकस्मात उनके अंगों को चीर डालते
हैं, अपने स्वामी व नेता की
मृत्यु द्वारा, जैसे कि वे अपने
हत नेता और शासकों द्वारा
अनुसरण करती, अपने कान उठाए प्रत्येक मार्ग में भटकती है; अपने नन्हें शिशुओं, जो अभी कुछ
दिवस पूर्व ही पैदा हुए
हैं और अब भगदड़
में गुम हो गए हैं,
को खोजती हुई आर्तनाद करती गेंडनियों द्वारा, मृग-झुंडों के शीघ्र गति
हेतु बने अंगों की पदचाप द्वारा
उनके जल्दी कर रहे पादों
द्वारा एक साथ जैसे
भूकम्प सा करते, प्रिय
मादा बाज के कर्ण से
मिश्रित कर्णों तक खींचें धनुषों
की टंकार द्वारा, जैसे कि वे अपने
बाण बरसा रहे थे; अनिल संग सनसनाती धार द्वारा, जैसे वे कि महीषियों
के सशक्त स्कन्धों पर पड़ती हैं;
और शिकारी कुत्तों के भौंकने द्वारा,
जैसे इसे आगे भेजा गया था, वन के समस्त
एकांत में प्रवेशित हो रहा था।
जब
उसके बाद मृगया-कोलाहल शांत हो गया और
सागर भाँति वन मौन हो
गया, अथवा जैसे वर्षा ऋतु पश्चात मेघ-समूह निशब्द हो जाता है,
मैंने अल्प भय अनुभव किया
और जिज्ञासु हो गया, अतएव
पिता के अंक से
किंचित हटकर मैं कोटर में खड़ा हो गया और
मैंने बचपने में अभी तक भय से
काँपती हुई आँखों सहित, अपनी ग्रीवा बाहर निकाले हुए, यह देखने हेतु
कि यह क्या था,
मैंने अपनी दृष्टि उस दिशा में
डाली।
'मैंने
अपने समक्ष वन से बाहर
आई शबर-सेना को देखा जो
अर्जुन (कार्त्तवीर्य) की सहस्र-भुजाओं
द्वारा उछाली गई नर्मदा-धारा
सम थी; पवन द्वारा आड़ोलित तमाल (ताड़) वृक्ष सम; एक भूकम्प द्वारा
कम्पित अंजन के एक ठोस
स्तम्भ सम, भास्कर-मरीचियों द्वारा बाधित एक तम गुफा
सम; भ्रमण करते यमदूतों सम; दैत्य-लोक सम जो खुल
गया है और ऊपर
उठ गया है; एक-स्थल एकत्रित
अशुभ कर्मों के समूह सम;
दण्डक वन में निवासित
अनेक तपस्वियों के शापों के
कारवाँ सम; राम द्वारा दण्डित खर व दूषण
के सभी मेजबानों की भाँति जब
उसने अपने असंख्य बाण बरसाए और वे उसके
प्रति घृणा कारण दैत्यों में परिवर्तित हो गए; लौह-युग के समस्त कुलों
का परस्पर एकत्रण होने सम; जल में कूदने
को तत्पर एक महिषी-यूथ
सम; एक सिंह के
पंजे द्वारा विखण्डित एक मेघ-अंश
सम, जब वह पर्वत
शिखर पर स्थित होता
है; सभी रूपों के विनाश हेतु
उठे धूमकेतु समूह सम; इसने वन को कृष्ण
कर दिया था; यह अनेक सहस्रों
की संख्या में था, यह महद आतंक
प्रस्तुत करता था; यह असंख्य दैत्यों
की आपदा का पूर्वाभास सम
था।
और
शबरों के उस महा-समूह मध्य मैं सोचता हूँ, मतंग नामक शबर-नेता था। वह अभी नव-यौवन में था, अपनी अति-सुदृढ़ता से वह लौह-निर्मित प्रतीत होता था; वह पूर्वजन्म में
एकलव्य सम था; वर्धित
श्मश्रु (दाढ़ी) से वह मद
की प्रथम रेखा द्वारा अपने कर्णों का वृत्त बनाए
एक युवा राजसी-हस्ती सम था; यमुना
जल के कृष्ण-कमलों
सम अपने गाम्भीर्य निर्झर से उसने वन
को रमणीयता से भर दिया
था; सिर पर उसके केश
घुँघराले थे और गज-मत्त से मलिन केसरी
(सिंह) सम उसके स्कन्ध
पर झूल रहे थे; भ्रू चौड़ी थी; उसकी नासिका दृढ़ एवं गरुड़ीय थी; उसका वाम भाग उसके एक कर्ण का
आभूषण बने एक सज्जित भुजंग-फण की फीकी
गुलाबी किरणों द्वारा रक्तिम-दीप्त था, जैसे पल्लव-शैय्या पर विश्राम करने
से तृणों की आभा उसपर
चिपक गई हो; कृष्ण-अगरु के कालेपन सम
अभी नव-हन्ता एक
गज-गण्डों से फाड़ी गई
सप्तच्छद-कुसुमों की सुवास लिए
वह सुगन्धित मत्त द्वारा इत्रित था; उसमें ऊष्मा थी जिसे मधु-मक्खियों का झुरमुट हवा
कर रही था, सुवास से अंध हुए
मयूर-पंख वृत्त सम जैसे कि
वह एक तमाल-शाखा
हो; अपने हाथों द्वारा पौंछने से गालों पर
बनी स्वेद-रेखाओं द्वारा वह चिन्हित था,
जैसे कि उसकी सुदृढ़
भुजाओं द्वारा विजित विन्ध्य-वन, अपनी कोमल कम्पित टहनियों के छद्म में
कातरता से श्रद्धा अर्पित
कर रहा हो, और वह जैसे
कि नेत्रों द्वारा रक्त-रंजित हो, किंचित गुलाबी-रंग से वातावरण को
रंजित कर रहा था,
और उसकी सशक्त भुजाऐं जानुओं (घुटनों) तक पहुँचती थी,
जैसे कि वह एक
हस्ती के सूँड का
माप उसको बनाने हेतु लिया गया हो, और काली को
रक्त-बलि हेतु प्रायः प्रयोग किए गए अस्त्रों के
घाव से उसके कंधे
खुरदरे थे; उसकी नेत्रों के चारों ओर
का भाग दीप्तिमान था और विंध्य-पर्वत सम चौड़ा था,
और मृग-रक्त की सूखी बूंदों
से चिन्हित जैसे वे गूंजा-पुष्पों
से मिश्रित एक गज की
मस्तक-अस्थि से मिले विशाल
मणियों द्वारा आभूषित हो; उसका वक्ष निरंतर व असंख्य श्रमों
से घायल था, उसने कोषिनील से रंगे लाल
रेशमी वस्त्र पहन रखे थे और अपनी
सुदृढ़ टाँगों से वह मत्त-रंजित हस्तियों के पाँवों का
उपहास उड़ाता था, अपनी अकारण निर्दयता से क्रोध से
उसकी भृकुटि पर त्रि-ध्वज
रेखाऐं चिन्हित थी, जैसे कि उसकी महान
(निष्ठा) से प्रसन्न दुर्गा
ने यह सूचित करने
हेतु कि वह उसका
प्रधान सेवक है, उसको एक त्रिशूल द्वारा
चिन्हित कर दिया हो।
प्रत्येक
वर्ण के मृगया-श्वान
उसके संग थे जो उसके
अंतरंग-मित्र थे, मृग-रक्त टपक सी प्रतीत प्राकृतिक
गुलाबी-वर्णी, सूखी सी उनकी जिव्हा
से उनकी थकन दिखती थी, और शिथिलता से
दूर नीचे लटकती थी; जब उनके मुख
खुले थे वे अपने
ओष्ठों के कोनों को
उठा लेते थे और अपने
चमकते दंत स्पष्टतया दिखाते थे, जैसे कि एक सिंह
के केसर दंतों में पकड़ लिए गए हों, उनके
कंठ कौड़ी-मालाओं द्वारा पूरित थे, और विशाल शूकर-दंत प्रहारों द्वारा नोंच लिए गए थे; यद्यपि
लघु, अपनी महाशक्ति से वे अभी
तक अकेसर सिंह-शावकों सम प्रतीत होते
थे; वे मृगिणियों को
वैधव्य-प्रस्थान कराने में प्रवीण थे; उनके साथ अति-विशाल उनकी भार्याऐं भी आई थी,
जैसे कि शेरनियाँ शेरों
हेतु क्षमा माँगने आई हों।
वह
सभी प्रकार के शबरों की
टोलियों से घिरा हुआ
था; कुछों ने हस्ती-दंत
एवं याक के लम्बे केश
पकड़ रखे थे; कुछों ने मधु हेतु
महीनता से बद्ध पल्लव
निर्मित पात्र पकड़ रखे थे, कुछों ने केसरियों भाँति
अपने करों में अनेक गज-मुक्ता भर
रखे थे, कुछों के पास दैत्यों
भाँति नवीन-माँस के टुकड़े थे,
कुछों ने पिशाचों भाँति
सिंह-चर्म पकड़ रखी थी; कुछों ने जैन-तपस्वियों
भाँति मोर-पंख पकड़ रखे थे; कुछों ने, बालकों की तरह काक-पंख पहन रखे थे, कुछ फट गए गज-दंतों को धारण किए
होने से कृष्ण-लीला
सी प्रस्तुत कर रहे थे,
कुछों के वस्त्र, पावस-दिवसों की भाँति मेघ
सम उमा कृष्ण थे। उसके पास उसकी खड्ग-म्यान थी जिसकी मूँठ
मादा-गैंडे के दंत की
थी; नूतन मेघ सम उसने मयूर-पंखों सम चमकीला धनुष
पकड़ रखा था, बक (असुर) सम उसकी सेना
अद्वितीय थी; गरुड़ भाँति उसने अनेक विशाल नागों (गजों) के दन्त उखाड़
रखे थे; वह कपाली (मोर)
का शत्रु था, जैसे शिखण्डी का भीष्म; एक
ग्रीष्म-दिवस भाँति वह सदा मृगों
हेतु तृषा दिखाता था; एक विद्याधर सम
वह गर्व में चूर था; जैसे व्यास योजनगंधा का अनुसरण करता
था उसी तरह वह कस्तूरी-मृग
का पीछा करता था; घटोत्कच भाँति वह रूप में
भीषण था; जैसे उमा की अलकें शिव-चन्द्र से सुशोभित थी
ऐसे ही वह मयूर-पंख की अक्षि द्वारा
आभूषित था; महावराह द्वारा हिरण्यक्षिपु असुर सम उसके वक्ष
को एक विशाल शूकर
ने उखाड़ दिया था;
एक
महत्वाकांक्षी पुरुष सम उसके गिर्द
बन्दी-सेना थी; एक असुर भाँति
वह रक्त-प्रेमी था; गीत-पाश सम वह निषादों
द्वारा पाश-बद्ध था; दुर्गा के त्रिशूल सम
वह महिषी-रक्त से द्रवित था;
यद्यपि अल्पवयी युवा होते हुए भी, उसने अनेक जीवनों को गुजरते हुऐ
देखा था; यद्यपि नाना-समृद्धियों का स्वामी होते
हुऐ भी वह कंदमूलों
एवं फलों पर गुजर करता
था; यद्यपि कृष्ण-वर्ण होते हुए भी वह देखने
मे सुंदर नहीं था; यद्यपि
वह इच्छा से भ्रमण करता
था, उसका पर्वत-दुर्ग मात्र शरण-स्थल था; यद्यपि वह भूधर (पर्वत)
के चरणों में सदा निवास करता था, एक नृप-सेवाओं
में अनिपुण था।
वह
मृत्यु के आंशिक-अवतार
विंध्य का पुत्र था;
लौह-युग के सार कुटिलता
का जन्मना-भ्राता; जैसे कि वह विकराल
था तथापि अपनी नैसर्गिक-उदारता कारण भय-प्रेरित करता
था, और उसका रूप
अति-भावनीय था। उसका नाम मुझे बाद में ज्ञात हुआ। मेरे मस्तिष्क में यह विचार था
: हाय, इन मनुष्यों का
जीवन मूढ़तापूर्ण है, और उनकी वृत्ति
शुभ द्वारा निंदित है। क्योंकि उनका एक धर्म दुर्गा
को नर-बलि अर्पण
करना है, उनकी माँस-मदिरा और अतएव खान-पान भले मानुषों द्वारा घृणित है; उनका व्यायाम मृगया है; उनका शास्त्र शृगाल-क्रन्दन है; उनके भले-बुरे के शिक्षक उलूक
हैं; उनका ज्ञान पक्षियों में निपुणता है; उनके प्रिय सखा कुक्कुर है; उनका साम्राज्य निर्जन-वनों में है; उनका प्रीतिभोज मदिरा-पान प्रतियोगिता है; उनके मित्र सायक (धनुष) हैं जो वीभत्स कार्य
करते हैं और भुजंग सम
उनके शर-शीर्ष विष-सिक्त (बुझे हुए) हैं; उनका गायन वन्य-मृगों के आकर्षण हेतु
है; उनकी भार्याऐं अन्यों की बंदी-पत्नियाँ
हैं; उनका आवास खूँखार सिंहों के संग है;
उनकी देव-पूजा पशु-रक्त संग है; उनका त्याग माँस संग, उनकी आजीविका चोरी से है; भुजंग-फण उनका आभूषण
है; उनका प्रसाधन गज-मत्त; और
वन जहाँ वे निवास करते
हैं, मात्र मूल एवं शाखाओं में नष्ट हुआ है।"
जैसे
ही अतएव मैं विचार कर रहा था,
शबर-नेता ने वन में
अपने भ्रमण-उपरान्त विश्राम-आकांक्षा करते हुए प्रवेश किया, और अपना धनुष
उसी सेमल-द्रुम के नीचे छाया
में रखते हुए अपने अनुगामियों द्वारा शीघ्रता से एकत्रित किए
गए पल्लवों के आसन पर
बैठ गया। शीघ्रता से आते हुए
एक अन्य युवा शबर ने, जब सरोवर-जल
को अपने हाथ से हिलाते हुए,
कमल-पराग से सुरभित कुछ
जल लाकर उसे दिया और जो नव-चयनित पंक निर्मल किए, चमकीले मृणाल-पल्लव, लाजवर्त सम था, अथवा
ऐसा दिखता था जैसे कि
यह प्रलय-दिवस में भास्कर-मरीचियों की ऊष्मा से
पतित एक आकाश-अंश
से चित्रित किया गया हो, अथवा शशांक-वृत्त से गिरा हो,
या पिघला दी मणियों की
द्रव्यमान हो, अथवा जैसे कि अपनी महद
पवित्रता में यह हिम में
जम गया हो, और केवल स्पर्श
द्वारा ही इसे पहचाना
जा सकता था। इसे पीने के उपरांत, बारी-2
से मृणाल-पल्लवों का भक्षण किया,
जैसे राहु चन्द्र-इकाईओं का; जब वह विश्राम
कर चुका वह उठा, और
अपने सभी मेजबानों द्वारा अनुसरण होता हुआ, जो अपनी तृषा
शांत कर चुके थे,
अपने इच्छित लक्ष्य की ओर धीमे
से बढ़ा। परन्तु उस जंगली-दल
में से एक वृद्ध
शबर को हरिण का
कोई माँस प्राप्त नहीं हुआ था, और माँस हेतु
अपनी आकांक्षा में मुख पर आती एक
दैत्य-मुद्रा बनाते हुए, वह उस वृक्ष
पर एक अल्प काल
रुका रहा।
यथाशीघ्र
शबर नेता अप्रकट हो गया, रक्त-बिंदुओं जैसे गुलाबी नेत्र और उनके ऊपर
लटकती कपिल-भ्रूओं द्वारा भयावह उस शबर ने
जैसे हमारे जीवन को ही पी
लिया; वह शुक-नीड़ों
में संख्या का अनुमान लगा
रहा था जैसे पक्षी
के माँस-स्वाद को उत्सुक एक
उत्क्रोश (बाज़), और ऊपर चढ़ने
की इच्छा लिए वृक्ष को उसके आधार
से लेकर शीर्ष तक देखा। उसको
देखकर भय से तत्क्षण
शुकों ने जैसे अपना
अंतिम श्वास लिया। क्योंकि निर्दयी के लिए क्या
कठिन है? अतः वह सीढ़ियों की
तरह बिना प्रयास के वृक्ष पर
सुगमता से चढ़ गया,
यद्यपि यह अनेक हथेलियों
सम ऊँचा था, और इसकी शाखाऐं
मेघों को आवरित करती
थी और इसके कोटरों
से नन्हें तोतों को एक-२
करके पकड़ लिया जैसे कि वे इसके
फल हों, क्योंकि कुछ तो उड़ान हेतु
अभी क्षीण थे; कुछ मात्र कुछ-दिवस आयु के थे, और
अपने जन्म के रोवों संग
गुलाबी थे अतएव बिल्कुल
कपास-कुसुम सम प्रतीत होते
थे, कुछ जिनके पंख अभी हाल में उग रहे थे,
नव मृणाल-पल्लव सम थे; कुछ
काकातुण्डी फल भाँति थे;
कुछ अपनी लाल उगती चुंचों द्वारा धीमे खुलते पल्लवों से गुलाबी बनते
उनके शीर्षों द्वारा उत्पल-कलियों की शोभा लिए
थे; जबकि कुछों ने अपने शीर्षों
की निरंतर गति के स्वाँग द्वारा
उसको रोकने का प्रयास किया,
यद्यपि वे उसे नहीं
रोक सकते थे, क्योंकि उसने उनको घुमा दिया और भूमि पर
पटक दिया था।
परन्तु
इस महद-विनाशक, अपरिहार्य-विपदा को देखकर जो
हम पर आ गई
थी, मेरा पिता दो बार काँपा
और मृत्यु-भय से स्पन्दित
व भ्रमित पुतलियों संग, चहुँ ओर एक दृष्टिपात
किया जिसे दुःख ने रिक्त कर
दिया था और अश्रु
मद्धम पड़ गए थे;
उसका तालु शुष्क था, और वह अपनी
सहायता नहीं कर सकता था,
परन्तु उसने मुझे अपने पंखों द्वारा ढाँप लिया, यद्यपि उसकी सन्धियाँ (जोड़) भय-शिथिलित थी,
और अपने मन में विचारा
कि इस क्षण क्या
त्राण मिल सकता है। वात्सल्य-पूर्ण हिलते हुए, किंकर्त्तव्य-विमूढ़ कि मेरी रक्षा
कैसे की जाए, और
असमंजसता कि क्या किया
जाए, वह मुझे अपने
वक्ष-स्थल से चिपका कर
खड़ा हो गया। मगर
वह दुरात्मा, शाखाओं में से घूमता हुआ,
कोटर के प्रवेश-द्वार
पर आ गया और
वृद्ध कृष्ण-नाग देह सम भयानक और
अनेक शूकरों की ताज़ा वसा
से गन्धित इस कर सहित
अपनी वाम भुजा खींची और अपनी असंख्य
धनुष-प्रत्यञ्चाऐं खींचने से पड़े घावों
से चिन्हित मृत्यु-दण्ड सम अग्र बाहु
और यद्यपि मेरे पिता ने अपनी चोंच
द्वारा अनेक आघात दिए और करुणा से
सुबकता रहा, उस हिंसक अधम
ने उसे नीचे खींच लिया और झटक दिया।
यद्यपि
मैं पंखों में ही था और
शिशु होने के कारण भय
से एक कन्दुक सम
सिकुड़ गया था और मेरे
दैव-निर्दिष्ट जीवन नहीं जिए रहने से, मगर उसने किसी तरह मुझ पर ध्यान नहीं
दिया, परन्तु उसने मेरे पिता की ग्रीवा को
मरोड़कर उसे भूमि पर मृत फेंक
दिया। तब तक मै,
अपनी ग्रीवा अपने पिता के पाँवों में
उसके वक्ष संग मौन चिपका हुआ, उसके संग गिरा और मेरा यह
नियत जीवन अभी कुछ और जीने कारण से, मैने पाया कि मैं पवन
द्वारा एकत्रित शुष्क पत्तों के एक विशाल
ढेर पर गिर गया
था, जिससे मेरे अंग नहीं टूटे थे। जब शबर वृक्ष-शिखर से नीचे उतर
रहा था, मैंने अहृदय नीच की तरह अपने
पिता को त्याग दिेया
यद्यपि मुझे उसके संग ही मर जाना
चाहिए था, परन्तु अपने अति युवा होने के कारण मैं
बाद के आयु-प्रेम
को नहीं जानता था और जन्म
से हममें आवासित भय से पूर्णतया
विडोलित था; पतित पल्लवों सम मेरे वर्ण
के कारण मुझे कठिनता से ही देखा
जा सकता था, अपने पंखो की सहायता से
जो अभी मात्र उगना प्रारम्भ हुए थे, मैं डगमगाता रहा यह कि मैं
मृत्यु-मुख से बच गया
हूँ और एक अति
विशाल तमाल-वृक्ष निकट आ गया। इसकी
कलियाँ शबर-कामिनियों की कर्ण-बालियाँ
बनने के अनुकूल थी
क्योंकि ये बलराम के
गहरे नील-वर्ण से विष्णु के
वपु-सौंदर्य का भी उपहास
उड़ाते थी, जैसे कि इसमें यमुना-जल की पवित्र
धाराओं द्वारा वस्त्र धारण किए हैं; इसकी शाखाऐं वन्य गज-मत्त द्वारा
सिंचित की जाती थी;
यह विंध्य-वन की जटाओं
का सौंदर्य धारण करता था; इसकी शाखाओं का मध्य-शून्य
दिवस में भी अंधकारमय था;
इसकी मूलों गिर्द भूमि खोखली थी, और अर्क (सूर्य)-किरणों द्वारा अभेदित थी; और मैंने इसमें
प्रवेश किया जैसे कि यह मेरे
उत्कृष्ट पिता का अंक था।
......क्रमशः
हिंदी भाष्यांतर,
द्वारा
पवन कुमार,
(१७ नवंबर, २०१८ समय २१:१६ सायं )
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