यक्ष-प्रश्न उत्तर
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मानव की क्या बुद्धिमता, समर्पित हो प्रदत्त कार्यों में ही रहे व्यस्त
बस स्वामी-आदेश, कर्म अधिकार, अधिक अग्रिम-चेष्टा मत कर।
जो काम दिए जाते निर्वाहार्थ, क्या वे ही हमारी व्यक्तित्व-पराकाष्टा
क्या प्रदत्त भृत्ति से न अग्र चरण, या निकट गुत्थियों में ही उलझा?
निश्चित परिवेश में ही व्यय, रज-कण में विश्व-दर्शन की न सुबुद्धि
फिर क्या हो मानव की बृहत-गुण, सर्व सीमाओं से बाहर मुक्ति।
इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जिंदगी कठिन, कुछ तो बड़े कष्ट में
माना कई जीवन सुखी भी, पर अनेक निर्धनता-डायन के पाश में।
वंचितों की प्राण-शक्ति कमाने में खपती, निर्मल-विचारार्थ न समय
फिर कैसे व्यक्तित्व निखरेगा, जब सब पहलूओं पर होगा ध्यान न।
क्यूँ मानव सिकुड़ा मात्र कर्म ही, हाँ जीवनार्थ कुछ श्रम आवश्यक
यह पूर्ण-कर्त्तव्यों का मात्र अंश हो, अन्य पहलू निखार भी वाँछित।
हर पुष्प को पूर्ण-विकसन का हक, प्रत्यक्ष में अधखिला ही रह गया
संपूर्ण व्यक्तित्व निखरण अधिकार, प्रश्न कितने बढ़ पाते उस दिशा।
प्रश्न कदाचित क्या मात्र भृत्ति-कर्त्तव्यों से भी ऊपर उबरते या चाहिए
क्या यक्ष-प्रश्नों का हल न अन्वेषण, या प्रश्न करना सीखना न चाहिए।
क्या यथा-संभव आंदोलन न शुरू चाहिए, जहाँ संकोच से बाहर सब
क्यों कोने में दुबका रखा, कुछ धरातल दो प्रत्येक हो लें प्रगति-पथ।
सभी को पता अनेक व्याधियाँ जग में, लेकिन स्वार्थ में रखते बंद नेत्र
कभी वे न जान जाऐं निज मानवेतर अधिकार, व हिस्सा माँगने लगे।
कभी वे न जान जाऐं निज मानवेतर अधिकार, व हिस्सा माँगने लगे।
लोगों को अंध-मूर्ख रहने दो, आँखें खुलेंगी तो अपना पक्ष देख लेंगे
वसुधैव-कुटुम्बकम सिद्धांत सत्य-पारित हो, एक वृहद सोच उभरे।
प्रश्न हैं नस्ल-जातिवाद, क्षेत्रवाद, विधर्म, चरमपंथी राष्ट्रवाद व अन्य
सभी किसी भाँति पीड़ित, तथापि खुले मन से त्याग का प्रयास न।
एक तुलनात्मक स्थिति निश्चित मानव-जाति में, हत्प्रद सा लेता मान
दुहाई धर्म-ग्रंथों के ऋषि-कथन की अतः सत्य, अवमानना न प्रश्न।
हम चुलबुली ग़ज़ल लिखते, शेरो-शायरी, किसी की प्रशंसा श्रुतिवाद
प्रकृति पर्वत-नदी-झरनों के सौंदर्य में व्यस्त, भुलाते मूल मानव-प्रश्न।
माना ज्ञात पर प्राथमिकता नहीं, मृदु-क्षीण चिंतन में ही समय यापन
अल्प ही संवाद, पाप कृत्य चुपचाप सहो, फिर तुम कुछ सुरक्षित।
जब कोई अन्य वैसा करता जैसा हम खुद करते, तो कु-उपाधि दान
पर जब वैसा या जघन्यतर स्वयं करें, मात्र दोहरा चरित्र ही भासित।
क्यूँ मानव-अधिकारों प्रति उदासीन, स्वयं पर पड़े तो बिलबिलाना
अनिज पर कोई क्रूरता, समस्त शक्ति व्यवस्था कोसने में देते लगा।
असम-सामाजिक व्यवस्था की प्रवृत्ति तो निश्चित ही अनुचित व हेय
और भी हास्यास्पद, जब भेदभाव मिटाने हेतु न की बड़ा प्रयास।
प्रावधानों चलते कुछ जीवन सुध रहे, अधिक गति तो पर अदर्शित
मन-विचार, प्रत्यक्ष व्यवहार में न सुधार, जटिलता पाल रखी व्यर्थ।
एक समरसता परस्पर-आदर संग चाहिए, एक कुटुंब मानवता सर्व
भेद भुला कंठग्रह हेतु संकल्पित, दूरी हेतु पुरातन का न लें आश्रय।
संप्रदाय-प्रमुख ही यदि विभेद-विचार बढ़ाऐं, प्रजा और अधिक मूर्ख
अद्यतन स्वयं को उच्च-निम्न माना, प्रगति हेतु वाँछित दृष्टिकोण-नव।
पर क्या करते मूल-विषयों से भटका कर, बस बातें इधर-उधर की
जो कुछ अच्छा-बुरा घटित, सह लो, प्रतिक्रिया न, आगे सब भला ही।
'जिसकी लाठी उसकी भैंस', सदियों से जन ढ़ोते अव्यवस्था-अत्याचार
मूर्ख अधिकार-अज्ञानी, दमित होने से हटा दिया स्वतंत्र चिंतन-विचार।
पर क्या कर्त्तव्य पढ़ा-लिखा होने से, कुछ मद्धम-स्तर का भी चिंतन
पर सर्वार्थ परस्पर-समझ, समता-विचार जनमानस में प्रयास रोपण।
कुछ का प्रयास भी, जनचेतन पर सकारात्मक डालो प्रकाश - मनन
कुछ का प्रयास भी, जनचेतन पर सकारात्मक डालो प्रकाश - मनन
कुछ लाभान्वित शामिल होंगे मुहिम में, आमूल-परिवर्तन सुलभ न।
अपने को अधिक कर्त्तव्यमुखी बनाओ, पहचान भी तो न भीत होवों
सुरुचिपूर्ण बनो, बिना किसी को अप्रसन्न किए अपनी बात कह दो।
पवन कुमार,
२२ दिसंबर, २०१८ समय १२:०० मध्य-रात्रि
(मेरी डायरी ०७ अप्रैल, २०१७ समय ०८:५६ प्रातः से)
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