बाप
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दिखता रूखा-सूखा, सख़्त-डाँटता, कदाचित सुस्त-अनावश्यक भी
कभी भोला, विश्व-व्यवहारिकता से परे, अबल-असहाय सा कभी।
कभी अन्य उसपर हँसते भी दिखते, उड़ाते लोग सादगी का व्ययंग
कभी किसी दबंग की खुशामद करता, कभी शेखी भी कमतर पर।
कभी अर्धांगिनी से झगड़ता, कभी संतानों को कड़ी डाँट-फटकार
कभी रुग्ण-लाचारी में निरुद्देश्य ताके, कभी विद्वता-ज्ञान बखान।
कभी शारीरिक बल में अन्यों से अल्प, कभी मुकाबले में कुछ श्रेष्ठ
निकटस्थों से तुलना भी, कभी साहसी-वीर-दयालु, क्षीण या शठ।
कभी बंधुओं में यशस्वी प्रतीत, कभी नर तंज भरते व्यक्तित्व पर
लोक की अति समझ न, पर अचरज उसके भिन्न रूप देखकर।
विवेक से तुमने देखना शुरू किया, अपने से ही दिए तकिए-कलाम
उस मनुज से टकराव भी, सब बातें न ठीक, विद्रोह को चाहता मन।
अति ऊल-जुलूल संदेह मन में पाला, लगता हमारा ध्यान ही न रखता
चाहे अगला स्व-प्राण भी लगा दे, पर श्रद्धालु बनने न देती कृतघ्नता।
बचपन में जो वट-वृक्ष सा था, जैसे वय-वृद्धि सर्व-दोष समक्ष आगमन
कई झूठी-सच्ची सूचनाओं से एक विशेष राय शख्स विषय में निर्माण।
न समझ पाते वह भी एक इंसान, उसमें भी सब देव-दानवों का वास
क्यों अति बड़ा होने की अपेक्षा, शांत चुपचाप सा अपना करता काम।
उतना शिक्षित न जितने तुम हो, तथापि सोचो तुम्हें बनाया अति दक्ष
आज सर्व कटाक्ष करने में समर्थ, कभी दूर हो निज हैसियत लो देख।
लाचार सा तुम्हें आशा-नेत्रों से देखता, तुम्हारा सदा बेरुखा व्यवहार
और भी जग, सेवा-संबंधित दायित्व, दिन-रैन खट तुम्हें देता आराम।
उसकी मंशा तुम चरम-लक्ष्य प्राप्त हो, निज चिंता न कर लेगा गुजर
पर बाप है सब झेल लेगा, उसकी यही अभिलाषा बस खुश रहो तुम।
पर समझो कभी तुम भी अभिभावक बनोगे, तुममें भी गुण-दोष सब
जग की समरसता समझो, पिता के भलेपन को सस्ते में नकारो मत।
पवन कुमार,
४ मई, २०१९ समय २३:२० रात्रि
(मेरी डायरी ३ जुलाई, २०१८ समय ८:५० बजे प्रातः से)
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