वहम-भग्न
----------
सक्षम संभाव्य, सर्व ब्रह्मांड-कण समाहित, तब क्यूँ कम विकास।
मन-विचार क्या क्षणों में, नर का सुंदर रूप हो स्वयं में प्रादुर्भाव
निम्न से उच्च सभी इसी चेष्टा में, कैसे निखरे रूप, हो गर्वासक्त।
सभी तो भरपूर ध्येय में लगे हैं, पूर्ण विकास हेतु ही जद्दो-जेहद
शरीर में तो कोटिशः अणु, कैसे हो उनका अधिकतम प्रयोग।
प्रखरतम दर्द क्या मानव का, निज को न कर पाया सुविकसित
एक खिलौना क्रय किया अति महँगा, पर शेल्फ में पड़ा निष्फल।
कहने को विद्वान-पीएचडी पर खाली बैठे, अति कुछ था हाथ में
इंजीनियरिंग पढ़ाई की है, लेकिन घर बैठकर ही समय काट रहे।
मन क्या उत्तमतम सोच सकता है, बेचैनी तो है पर द्वार न खुल रहें
कोई महद लक्ष्य चिन्हित न कर सका, चिंतन उसी के इर्द-गिर्द में।
विषय महत्वपूर्ण या यूँ ही भटकते, एकाग्रता न तो कैसे ऊर्जा संचय
प्रथम शीर्षक ढूँढ़, दिशा-दर्शन होगा, गति तेज तो लक्ष्य तीव्र-गमन।
उद्देश्य वर्तमान-चिंतन का, कुछ गहन वार्ता स्व से, समुद्र-मंथन सा
पर अवस्था अर्ध-विक्षिप्त सी, चाहकर भी स्वरूप दर्शन न संभव।
अपने में ही लुप्त, निज-शक्तियों से अभिज्ञ, कुँजी कहाँ है न मालूम
कुंभकर्ण निद्रा में, खा-पीकर मस्त, तंद्रामय, बौद्धिक-कर्म अभाव।
पुरा-कथाओं में प्रसंग असुर का, कराया उसका शक्ति-परिचय
यदि उत्तम-रूप दर्शन हो जाए, निस्संदेह कर्म सुभीता करे वह।
अंधे निज कुचेष्टाओं से ही भीत, समाधान निकट ही, पर ध्यान न
रुग्ण-मंदता पार से ही उत्तम संभव, अन्वेषण-पथ चाहिए बस।
कहते हैं सिंह पिंजर-बद्ध, बाहर तो निकालो, शक्ति देखो उसकी
स्वयं को ही घोंटकर रखा कक्ष में, पर अबुद्धि बाहर निकलने की।
निज-जाल में तो फँसे पर न कुचक्र, सारल्य में ही आयाम अजान
पर अंततः परिणाम पर ही सबकी दृष्टि, क्या कर रहे क्षेत्र तुम्हारा।
जग-स्वरूप ज्ञान तो अत्यंत दुष्कर, जब आत्म-ज्ञान में ही इत्ता कष्ट
कैसे खुले मस्तिष्क-रंध्र, स्वच्छ वायु-रक्त प्रवेश तो शुरू हो मनन।
मुफ्त में तो बनता न, श्रम होगा, युक्ति से ही तो उत्पादकता वृद्धि
विचारना भी आना चाहिए, लक्ष्य-निर्माण से चरण हों अग्रसर ही।
कौन से परिवर्तन वाँछित इस स्व में, आगे बढ़कर सफलता चुंबन
अध्ययन आवश्यक या फिर मंथन, एक कला तकनीक-शिक्षण।
जब निज से न बने तो सफलों से सीखो, जीवन में रहें वे श्रमरत
आदान-प्रदान सिलसिला, उद्देश्य सबको निखारने का असल।
सिविल इंजीनियर रूप में क्या बेहतर हो, प्रयोग तकनीकें उत्तम
किन पुस्तक-पत्रिकाओं से सदा-संपर्क, ज्ञान शनै-२ बढ़े निरत।
उत्तम विशारदों से संपर्क हो, पर सिद्धि तब जब स्वयं भी पारंगत
अर्जित ज्ञान कैसे कार्यों में प्रयोग हो, तुम्हारी उपलब्धि होगी वह।
परम-रूप पग-अग्रसरण से संभव, विकास है प्रक्रिया-पर्याय एक
जीवन तो सदा चलायमान, अवधि से गुणवत्ता अधिक महत्वपूर्ण।
सर्व-उद्यम गुणवत्ता-वर्धन का, स्वयं को न होता निज-बोध भी पूर्ण
कुछ बाह्य निज-टिपण्णी दे देते, तुलना तो स्वयं न कर सकते तुम।
यह भी एक विचित्र सी स्थिति, निज स्वरूप से ही अभिज्ञता नितांत
तथापि उत्तम-कर्म प्रयास, कुछ सुधरोगे तो होगा छवि-परिष्कार।
पर-दोषारोपण तो यहाँ अध्याय ही न, स्वयं-सुधार ही परम-लक्ष्य
यह भी महत्त्वपूर्ण कि क्या कर्त्तव्य हैं, कौन चरण लूँ दिशा-गमन।
विश्वरूप दर्शन में असमर्थ, कौन से आयाम-अन्वेषण हैं वाँछित
इस व्यग्रता का क्या अर्थ, सत्य-रिक्तता तो संपर्क-पथ की पर।
सबको तो कृष्ण सा सारथी न लब्ध, कौन बताए उठो, करो इदम
या कर्ण को सुयोधन विश्वास, मित्र-दुर्दशा में सहायक भी है श्रेष्ठ।
चलो प्रयास करें आज वहम-भग्न का, निज को ललकारने का
विफलता भले, पर प्रयास सतत, सत्व-निष्कर्ष पर ही विश्राम।
पवन कुमार,
२९ जून, २०१९ समय ११:१४ बजे रात्रि
(मेरी डायरी ८ जून, २०१७ समय ९:०२ बजे प्रातः से)
No comments:
Post a Comment