युग-द्रष्टा
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एक युग-द्रष्टा हेतु अनुशासन जरूरी, बहु-आयाम साक्षात्कार
सर्व-मनुजता एकसूत्रीकरण दुरह, धैर्य-श्रम व दृढ़ता ही सखा।
उच्च-लक्ष्यी ऊर्ध्व-पश्यी, स्वप्न संभावना का मूर्तरूप-परिवर्तन
न स्व-मुग्धता अपितु अंतर्स्थित, ज्ञात गंतव्य निम्नता निर्वाणार्थ।
एक-२ ईंट से भवन निर्माण, अनूठी परियोजना हो रही साकार
महद आत्म-बल बाधाऐं स्वयं दूर, पौरुष अनुरूप ही छेड़छाड़।
स्वार्थ-लिप्त मनुज की क्या परिणति, न चाह वृहद मानव-हित
लघु-बड़े विषयों में ऊर्जा-क्षय, अधूरा ही बीता जीवन सीमित।
एक विश्वविद्यालय या देश-निर्माण, कोई एक दिवस-कर्त्तव्य न
अतिश्रम, दिवा-स्वप्न, साहस-ललकार, न मिथ्या प्रशंसा-गृह।
माना नर-वय अल्प पर इतनी भी न कि महद-आकांक्षा न कर
३०-४० वर्ष में श्रम से बड़े संघ बने, सत्ता-पूँजी ली अपने कर।
अनेक संगी बनाए, एक-२ से ग्यारह, महाबल संग्रह पूँजी निज
हृदय से नर-संग तो वृहत-हित ही, एकता से नव-पथ चिन्हित।
समग्र-चेतना सह उच्च ध्येय-उत्साह, नर कई कष्टों से निकल
सभ्यता-विकास मात्र न एक वार-कर्म, प्रतिपल महादर्थ युग्म।
आदर्श समाज कल्पना, शिक्षित परिवेश, पर्याप्त, पूरक-परस्पर
वैज्ञानिक सोच, आदर्श नृप-स्थिति, प्रजातंत्र, सब भाँति प्रसन्न।
विश्व-विसंगतियों मानव अल्प-विद्या कारण, दूभर प्राणी-जीवन
व्याधि-अकाल-भूख-अशिक्षा-दुर्गति-वैषम्य-संशय घोर व्याप्त।
पर निदान हर व्याधि का, हाँ यथोचित शक्ति विषय विचारणीय
जब बाधा दूर वाहन गति पकड़ेगा, जीवन में सुघड़ता भासित।
मानव समर्पण हेतु क्या चिंतन, हर आयाम से प्राण आत्मसात
विश्व-सुपरिवेश संभव, लोग परस्पर भले लगेंगे, होगा सम्मान।
निवेश-लाभ उचित पर लोभ-विरक्ति, धन दान में हो अनापत्ति
सुरक्षार्थ नियम-पालन हो, स्वतंत्रता पर अन्य का पथ अबाधित।
निर्मल हृदयों का दायित्व, अब सब विभेदों का निर्मूल-प्रयत्न
युग-द्रष्टा का केंद्र-बिंदु प्राणी, मानव उसका बस पुञ्ज एक।
ब्रह्मांड-वासी पर बहु-अवयवों से अपरिचय, बनाऐं क्षुद्र हमें
प्रथम कर्त्तव्य स्वरूप से योग, जो अपने से उठे महान बने।
युग-द्रष्टा का कर्त्तव्य प्राथमिकताऐं चिन्हन व प्राप्तार्थ श्रम
वाँछित संसाधन-उपस्थिति सुनिश्चित, प्रारूप सा समक्ष।
न अज्ञात-भय अपितु श्रद्धा, परिस्थिति अनुरूप अनुकूलन
महद लक्ष्य बड़ा संघ जरूरी, सब अनुज-अग्रज का संग।
कैसा द्वंद्व यह न अंतः-कूक, जग भूल-भुलैया में ही व्यस्त
प्रायः नर व्यवधान-पाशित, मात्र गाल बजाने में ऊर्जा क्षय।
पर उच्च-लक्ष्यी सक्षम विराट स्वप्न, रूपांतरण निजीकरण
जरूरत विटप-रोपण की, सुंदर वाटिका साकार ही जल्द।
धारक-लेखन लक्ष्य भी युग-द्रष्टा स्वप्न, भला यथाशीघ्र-संभव
जीव-हित में ही सर्व-जीवन समर्पित, प्रतिपल प्रयोग लक्ष्यार्थ।
मनसा-वचसा-कर्मणा सर्व-क्रिया, स्व व विश्व सुनिरूपणार्थ
एकात्मता उर-उदित, सर्व-बल संग्रहित, प्रयोगार्थ ही प्रस्तुत।
ऐ उच्च मन-स्वामी, कहाँ छुपे, मित्रता से भरो विपुल-भाव मन
निद्रा-तंद्रा से जगा सक्षमतर करो, युग-द्रष्टा सा ले सकूँ स्वप्न।
ज्ञान-मन में श्रद्धा सान्निध्य, बस साहस दुःस्थिति का परिवर्तन
आकांक्षा मानव-जन्म सफलीकरण, तुम साथ देओगे अवश्य।
पवन कुमार,
१५ अगस्त, २१०९ समय ११:५६ बजे मध्य-निशा
(मेरी डायरी दि० २१ जून, २०१९ समय ८:५५ बजे से)
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