चिंतन-पूर्व भी चिंतन, एकजुट देह-आत्मा समर्पित महद-लक्ष्य
समय-ऊर्जा भुक्त, पर यथाशीघ्र मंजिल-प्राप्ति हेतु हो तत्पर।
मनन-विषय अहम प्रारंभ-नियम, पर यावत न तिष्ठ कुछ न निकस
एक चित्तसार, सुखासन-प्रकाश, देह-मन सहज, एकांत-निरुद्ध।
अहं-त्याग, वृहद-संपर्क चित्ति, पठन-पाठन से भी बहु -एकाग्रता
मन पूर्ण-बल तत्काल संभव, जब एक यथोचित परिवेश मिलता।
देखते ऊँट किस ओर बैठता, कहाँ-किस विषय मन की होगी यात्रा
यही सखा-वाहन या पथ-प्रदर्शक, विस्मयों से चेतन-संपर्क कराता।
कोई वजूद न यदि न पूर्ण-तत्पर, समय-ऊर्जा माँगती यात्रा न्यूनतम
फिर थकन, मध्य-विश्राम, अग्रिम तैयारी, गंतव्य-अन्वेषण-संपर्क।
सब चाहते सुखद-मनोहर, ज्ञानद-मधुर यात्रा, अग्रिम तो अल्प-ज्ञात
न्यूनतम जोखिम भी जरूरी, उचित अपेक्षा, तैयारी बनाती सुयोग्य।
फिर यथा समझ तथैव दर्शन, जरूरी तो न सदा ही रोचक-संपर्क
फिर यथा समझ तथैव दर्शन, जरूरी तो न सदा ही रोचक-संपर्क
सब कुछ तो विश्व-थाती, न जानेंगे तो कैसे कुछ कर सकेंगे हित।
पर यात्रा में भीषण-स्थल छोड़ते, गाइड रोचक-स्थल ही लाते प्रायः
ज्ञान सर्वत्र पर मुख्य-स्थल संघनित, एकदा गमन से भी विषय ज्ञात।
कथन-समझ सुलभता, संग्रहालय बनते, अधिकाधिक दर्शक-भ्रमण
राजा-महाराजा, दरबारी-प्रजा की कथा, दर्शक भी रोमांचित होते।
कौन आवास-गृह जाते गत-काल बाद, जब इतिहास से आए बाहर
चाहे कितने ही निरंकुश-दुधर्ष, पर कुछ महत्त्वपूर्ण-चर्चित था नाम।
महल-बावड़ी, अद्भुत पच्चीकारी उस नृप-निर्मित, सार्वजनिक अब
माना अनेक-सहयोग महद कृति में, नाम-गुणगान तो नेता का पर।
दूर-देश पथिक हर सम-विषम से गुजरता, माना सुगमता तगाजा
तथापि अरुचिकर आ ही जाएगा, आवश्यक न शुभ-संपर्क सदा।
सब दृष्टांत ही निज अल्प-विश्व खोलते, दूर-दर्शन न हो घर बैठे तो
सब दृष्टांत ही निज अल्प-विश्व खोलते, दूर-दर्शन न हो घर बैठे तो
सर्व-विश्व भिन्न-रसज्ञता हेतु उद्यमित, किसी दूर-यात्रा चल पड़ो।
एक झलक हेतु ही तो सब अन्वेषण, कब दर्शन हों भविष्य-गर्भ में
छवि अनुभव परम-दृश्य की, सब मौन-भिन्न ढंगों से प्रयास करते।
जीवन-सार संभव चरम-अनुभूति से, सब मध्य-यात्राऐं हेतु ही उस
जितने अधिक दृश्य-अनुभव, सत्यमेव चरम भी उतना श्रेयस्कर।
कथन देव का उत्तम ही वहन, पर क्या परिभाषा उत्तम-अधम की
कुछ तो निस्संदेह शोभनीय, कुछ भीषण-दुष्कर, दुराह-कष्टकारी।
जहाँ सुखी जलवायु-भृत्ति वहाँ बहु-संख्या, विषम स्थल प्रायः निर्जन
सब प्राण-देह हेतु अल्प कष्ट चाहते, सुगम जीवन हो कयास बस।
पर खोजी को भीड़-भाड़ में अरुचि, इच्छा दुर्गम कौशल-आत्मसात
निज देह-मन पर कई प्रयोग, कितना आगे बढ़ सकें, पूर्ण प्रयास।
न अति-संतुष्टि मात्र दैनिक खान-पान में, आगे बढ़ो चूम लो गगन
सब सुख-साधन-ऐश्वर्य तज, एक फकीर सम जीने में न हिचक।
सर्व-विश्व निज तो विक्षिप्त-वनवासी, भीषण-त्रस्तों से क्यों दूरी है
कहीं न कुछ अपेक्षा कर दें, अंततः सब न्यूनतम सुविधा चाहते।
जरूरी तो न दुःखी ही, नर अल्प साधनों संग बहुकाल से जीता
प्रकृति-पुत्र, उस संग दिवस-रैन रिश्ता, गुजर-बसर कर लेता।
किंचित अंत्यजों से क्यूँ दुराव, इहभाव से कदापि न बड़ा-हित
विश्व एक-स्रष्टा प्रारूप, महा-घटना उदित, समस्त तत्व निहित।
कुछ को उत्तम-प्रयोग माने, कुछ अपशिष्ट, यह दृष्टिकोण-गत
विवेकी ही उत्तम-अधम भेद-सक्षम, आम जन पूर्वाग्रह-ग्रसित।
अभी विषय न सम-विषम, पर भाव नर वृहद-नजरिया अपनाए
सब स्वीकृत, निज-रूचि अनुरूप जिसे चाहें लें, पर घृणा न करें।
ध्येय हो हर का समग्र-सम्मान, कैसे मिल-बैठकर बात सकें कर
प्राण कठिन, प्राणी का बलानुरूप समायोजन, अतः न प्रतिवेदन।
पर नर यात्री ही तो इस वृहद-सृष्टि में, जितना संभव उतना देख
ज्ञानेन्द्रियों की सदैव स्वस्थता-संभाल से तो, देख सकोगे विराट।
जीवन-पूर्णता तो अनुभव से ही संभव, सार मिलेगा सुचिंतन से
न घबराना कटु-अनुभवों से कभी, निज-काल में सशक्त करेंगे।
कवि की क्या वर्तमान-चाह, समय कम पर सारांश तक न गमन
एक शुरू-यात्रा तो पूर्ण हो, अनुभव लेखनी से निरूपण लें कर।
मनोदित दार्शनिक भाव स्वतः ही उदित, पर कब लब्ध न ज्ञात
पर इतना जरूरी चरम-अभिलाषा, कितना निखरे विधाता हाथ।
मेरा मात्र प्रयोग मन-कलम से, कैसा परिणाम होगा भविष्य-गर्त
न पूर्वाग्रह किसी भाँति का, यदि समय हो तो जितना चाहे चल।
दृष्टि निस्संदेह प्रखर चाहिए, उसे देखना अभी वर्तमान क्षणों में
मन भी दाँव-पेंच लगाता, कलम-माध्यम से कुछ उकेरन करे।
जीवन चलना अति-दूरी, जिज्ञासा प्रगाढ़ मन-देह बनाए रखना
कभी तंद्रित न हो जाना कर्त्तव्यों में, महद हेतु दीर्घ जगे रहना।
प्रतिबद्धता सघन-विस्तृत हो, सर्व-मनुजता में फूँक सकूँ प्राण
प्रतिबद्धता सघन-विस्तृत हो, सर्व-मनुजता में फूँक सकूँ प्राण
सब विश्वास करें परस्पर, व्यर्थ-विवाद हटा राह में हो सार्थक।
भौतिक-मनस भ्रमण बढ़ाओ, जब संभव निकलो अज्ञात तरफ
संपर्कों से ही अंतः-कोष वर्धित, विकास के कई प्रदान अवसर।
महाजन महद सक्षम अनुभव-संपर्कों से, विवेक सदा संगी रहा
तभी जग में नाम, जन जुड़ना पसंद करते, रहें स्मरित दृष्टांत।
मन-देह स्वास्थ्य अपनी जिम्मेवारी, सहेजना यत्न से सब अंग
नित्य-व्यायाम आदि से सकुशल, सामंजस्यता न जाना भूल।
समुचित अनुरक्षण व काम, सृजनता-गुणवत्ता-क्षमता वर्धन
ध्यान रखना सामान का, जो भी उपलब्ध हो उपयोग-पूर्ण।
कहाँ से चले कहाँ पहुँचे, कलम-यात्रा विचित्र-अदृश्य ओर
मन बहु-आयाम समक्ष, गुह्य-अध्यायों से ही है सुपरिचय।
मैं तो जीवन का दास, कहाँ-किस धाम जाना तुझे ही ज्ञात
कुछ यात्रा-अनुभव, कयास-प्रयास, ओ मौला हो रहमत।
पवन कुमार,
३० सितंबर, २०१९ समय ६:२३ प्रातः
(मेरी जयपुर डायरी २३ नवंबर, २०१६ समय ९:२२ प्रातः से)
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