मन-पावस
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प्रातः वेला बाहर मद्धम वर्षा हो रही, शाखा-पत्तों संग वृक्ष रहें मुस्कुरा
कुर्सी में बैठा खिड़की से अवलोकन करता, यह पृष्ठांकन कर हूँ रहा।
मनोद्गार-अभिव्यक्ति हेतु हुनर चाहिए, सुघड़ता कहने की कोई बात
दूर समुद्र-जल मेघ द्वारा आकर-बरसकर कराता बड़प्पन अहसास।
सुदूर से पवन आ खुशनसीबी बख़्शती, हाँ न कहती कि बड़ी हूँ स्वयं
माँ प्रकृति सर्वस्व देते भी मौन रहती, दिल से तो अहसानबंद हैं सब।
बाहर वृष्टि अंतः मन आर्द्र, सब बरसें, निर्मल-जल करता प्राण स्पंदन
वारि बिन मलिनता-ऊसरता थी व्याप्त, अब जल तो जाती आशा बन।
मैं भीगा अंदर-बाह्य से, सरोबार, पर विभोर मन से नहीं हुआ है संपर्क
बस उसी पूर्व-बोझिलता में ही लुप्त, नूतन से परिचय हो तो होऊँ पूर्ण।
यह धराधरों का पर्व, ऊपर गगन में मेघ विपुल आकारों में लदे से पड़े
कुछ अद्भुत आकृतियाँ रचित, पर बादल गतिमय रूप बदलते रहते।
कुछ धूल-पानी से ही तो निर्मित हैं, चलते-२ थकते भी, करते हैं विश्राम
अब देखो मेघ शावक सा लघ्वाकर, कभी लड़खड़ाता सा बुजर्ग सम।
बारिश तो है पर मन विचार न फूँट रहें, पुनः जगा हूँ पौना घंटा सोकर
आशा कि कुछ उत्तम विचारित हो, कलम अपने से यात्रा कराती पर।
सब दिवस तो एक जैसे न होते, सबमें नूतनता है अपनी भाँति की हाँ
निहारकर मुस्कान-कला आनी चाहिए, सब उत्तम है सीखो सराहना।
एक भूरी चिड़िया नीड़ से निकल आ बैठी, गर्दन घुमाकर ऊपर देखती
खंभे पर एक कबूतरी बैठी है, चोंच से अपनी देह को खुजला सी रही।
निकट भवन-कोण में कपोत बैठा, पंख फैलाकर सुखाने का करे यत्न
अब ये भी बारिश में भीग जाते, सर्दी-गर्मी-आर्द्रता सब करेंगे अनुभव।
घर के बाहरी गेट के बाऐं स्तंभ पर दो, व दाऐं पर एक कबूतर आ बैठे
गर्वित सी ग्रीवा तनी, कुछ सोच से रहे, खिड़की से मुझे झाँकते लगते।
सब निमग्न आत्म में क्यूँ बाहर की चिंता, बदलती रहती निज ही शक्ल
अब पंख फैला उड़ कहीं ओर जा बैठे, एक स्थल रहता कौन टिककर।
सोचूँ इस पावस में मन तन इतना विभोर हो जाए, धुल जाए सब कुत्सित
इस ऊसर भू में भी कुछ बीज उगें, और जीवन-संचरण हो प्रतिपादित।
मन के सब भ्रांत पूर्ण नष्ट हो जाऐं, निर्मल में कुछ स्पष्ट सा हो दर्शित सब
कई चुनौतियाँ समक्ष हैं, दृढ़ हो सुलझाऊँ, अकर्मण्यता से तो गुजार न।
ऊर्वर बनूँ अनेक अंकुर उगें, तरु बनें, वसुंधरा धन-धान्य में सहयोग हो
कुछ भूखों की क्षुधा मिटें, पल्लव मुस्कुराऐं, आश्रय दें जीव-जंतुओं को।
सुफल प्रकृति-अंश, सुख-दुःख सम्मिलित, योग सुखी परिवेश निर्माण में
जहाँ शक़्कर-मधुरता सब आ जाऐंगे, कर्कशता से अच्छे भी भाग जाते।
मैं भी ऊर्वर माँ-उदर से अंकुरित, तात ने अंड में अपने बीज डाले
दोनों समर्थ थे अंकुरण-प्रक्रिया में, तथैव कई जग-विस्तृत मेरे जैसे।
पर हमारा क्या योगदान जग-निर्वाह में, कुछ घौंसले बनाऐं भले बन
खग विश्राम करते चूजों को चुग्गा दे सकें, सुकून-जिंदगी हो बसर।
अनेक कर्मठ हैं सदैव कार्यशील, अनेक संस्थाओं में सहयोग कर रहे
उनका योगदान चिरकाल तक अविस्मरणीय, बड़ों के काम भी बड़े।
कदापि न सकुचाना चाहिए, जितना बन सके कोशिश हो अधिकतम
उलझाना सरल, सुलझाना कठिन, पथ से पत्थर-काँटें हटाना उत्तम।
जग-आक्षेपों की न चिंता, लोग चिल्लाते रहेंगे हमें तो निर्वाह कर्त्तव्य
जीवन-पथ संकरा पर दूर ले जाऐगा, सिखाएगा असल-जीवन लक्ष्य।
सब संशय मिटाना प्राथमिकता, प्रखर चाह ऊँचा उड़ना चाहता यह
ओ दूर के राही औरों को संग ले, अकेला न छोड़, कई अंग गए बन।
ऐ पावस, मन प्रमुदित व कर्त्तव्य-परायण कर, प्रेरणा-स्रोत बनें तेरे गुण
कुछ जग-नियम समझने लगा हूँ, बड़े डंडे खाए हैं योग्य बना तब कुछ।
उत्तम संस्मरण करता रहूँगा, दूर तक जाना, आभारी अनेक चीजों का
रुकने न देना यात्रा, प्रार्थना मेघदूत के यक्ष सम अनेक भाव दिलाना।
कवित्व तो न, हाँ कलम जरूर घिस लेता, शायद यहीं से प्राप्त मृदुता
आशा यह पावस प्रबल मन-शक्ति देगी, जो कर्म मिला उत्तम दूँ निभा।
पवन कुमार,
२२ जुलाई, २०२० बुधवार, समय ८:४२ बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २५ जुलाई, २०१८ बुधवार, ९:५२ बजे प्रातः से )
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