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Friday, 27 December 2024

कामायनी: एक जीवन गाथा

 

कामायनी: एक जीवन गाथा

समर्पण : यह कविता महाकवि जयशंकर प्रसाद और उनकी कालजयी कृति कामायनी को समर्पित है, जो मानवता, विश्वास, और पुरुषार्थ का पथ आलोकित करती है।


महाकाव्य गढ़ा तो कालजयी बने, संकल्प से अमरत्व है पाया,
आरंभ तो अल्प से ही किया है, निरंतरता ने इतिहास रचाया।

जयशंकर प्रसाद की कामायनी, तीन दिन पूर्व पढ़नी शुरू की,
‘चिन्ता’ और ‘आशा’ के खंड पढ़े हैं, और पल्ले पड़ा कुछ ही।
भाषा तो अतिगूढ़, शब्द चयन गंभीर, अर्थ गहराई में है छिपा,
लंबे वाक्य माप-तोल से गढ़े हैं, भावनाओं का अनमोल सिरा।

यह पुस्तक वर्षों से संग रही, यदा-कदा पढ़ा था कुछ अंश,
पर समझना सरल नहीं, प्रकाण्ड हिन्दी-ज्ञान माँगती है यह।
प्रसाद छठी कक्षा तक स्कूल गए, शेष शिक्षा घर पर ही की,
हिंदी, संस्कृत, आंग्ल-भाषा का ज्ञान विद्वानों से ग्रहण किया।

1889 में बनारस में जन्मे, 1937 में उनका देहावसान हुआ,
मात्र 48 वर्षों में, कालजयी कृतियाँ व अमिट नाम कमाया।
श्लाघा यूँ ही न मिलती, इस हेतु करना होता अथक प्रयास,
जगत तो सिर पर बैठा लेता है, यदि कर्मयोग में हो विश्वास।

प्रसाद, साहित्य का सूर्य, जिनने हर विधा की हैं आलोकित,
कविता, नाटक व कथाओं में, मानवीय संवेदनाऐं की पूरित।
उनकी लेखनी शब्दों में जीवन भरे हैं, सृष्टि का मर्म सिखाए,
मनुष्य के भीतर के गुह्य सत्य को, वे एक नवीन दृष्टि दिखाए।

कामायनी, उनकी विश्वप्रसिद्ध कृति, गहरी मानवता-संदेश,
मनु, श्रद्धा, एवं इड़ा की कथा, जीवन का अद्भुत उपदेश।
चिंता पुरुषार्थ का प्रतीक है, श्रद्धा विश्वास और प्रेम सिखाए,
इड़ा तो ज्ञान और संतुलन से, जीवन को नूतन राह दिखाए।

महावृष्टि के गर्जन में, जल-प्लावन का अंधकार गहराया,
शीतल शिला पर बैठे मनु ने जीवन का संगीत दोहराया।
चहुँ ओर जलधारा का शोर ही, न कोई सहारा, न किनारा,
फिर भी मन का दीपक है, हरेक निराशा पर भारी पड़ा।

श्रद्धा और इड़ा हैं मनु के मस्तिष्क और हृदय का संतुलन,
एक नव सृष्टि का आरंभ, जीवन का मधुर नूतन आलंबन।
आख्यान हो ऐतिहासिक या सांकेतिक, किंतु विपुल है अर्थ,
यह सत्य व रूपक का अद्भुत संगम, जो करता अचंभित।

कामायनी का प्रत्येक संदेश, आज भी उतना ही सार्थक है,
धैर्य, विश्वास एवं पुरुषार्थ ही, जीवन को देता गहरा अर्थ है।
आज के नर-संघर्षों में भी, यह राह दिखाने का मर्म रखती,
मानवता के बहु संकटों में, आशा की एक लौ बन जलती।

जलवायु संकट हो या जीवन-संघर्ष, सार जाग्रत है करता,
हर मनुज में साहस भरता है,  श्रद्धा से विश्वास जगा जाता।
इड़ा के ज्ञान का आलोक,  हर अंधकार को दूर है भगाए,
कामायनी का यह प्रकाश, हर युग में नव निर्माण कराए।

कामायनी पढ़ते-पढ़ते अपने भीतर का एक कोना खोजा,
जहाँ भी चिंताएँ शांत हो, आशाओं ने नई राहें सजीव कीं।
मनु की दुविधा है पर श्रद्धा का विश्वास, और इड़ा का ज्ञान,
मेरे जीवन की कई उलझनों में भी दिखता कुछ समाधान।

यह अनुपम काव्य मैंने शुरू किया, और इसे पूर्ण करूँगा,
संभव है कि यह विचार ही बदल दे, एवं नई दिशा दिखाए।
कामायनी पढ़कर अनुभूत होता, जीवन का अद्भुत प्रवाह,
चिन्ता, आशा एवं श्रद्धा से ही है, मानवता का सच्चा निर्वाह।



पवन कुमार, 

26 दिसंबर 2024 वीरवार, समय रात्रि 21:28 बजे 

(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०) डायरी दि० 6 मई 2015, बुधवार, 9:06 बजे प्रातः, से)


Saturday, 7 December 2024

सत्य उच्चता-प्रतिभागी

सत्य उच्चता-प्रतिभागी

क्यूँ रह-रह कर मन वहीं पहुँच जाताजीवन में दूजे विषय भी हैं,

अनावश्यक को मत अति तूल दोऊर्जा-समय दोनों अनमोल हैं।

 

अति घटित होता दिन-प्रतिदिनजो हो चुका उसमें तुम सहभागी,

क्रिया-प्रतिक्रिया से वार्तालाप चलता, प्रश्नों ने खींची है जिम्मेदारी।

वे गठित करते बैठक की रूपरेखापूछें कितनाक्यों व  किससे,

पूर्वाग्रह से पूरे भरे रहते फिर भी, हमें सभ्यता का धैर्य रखना है।

 

जो बीत चुका उसकी पुनरावृत्ति क्योंप्रतिक्रिया बस उपयुक्त ही,

एक समय बाद भूलना ही अच्छा, सेहत व मन दोनों के लिए ही।

प्रतिबद्धताएँ समय माँगती हैंपर क्या जीवन जोड़-तोड़ में बीते?

स्वार्थ के स्वर बदलते रहते हैं, रह-रह कर अपना रूप दिखाते।

 

एक सीमा तक छोड़ना आवश्यकदेखो क्या समाधान संभव है,

कार्यालय ही तो सब कुछ घर-परिवार और स्व-चिंतन भी हैं।

प्रतिष्ठा हेतु प्रतिबद्ध रहोपर जीवन-संतुलन भी है अति जरूरी,

अपनों को संभालो, आपकी व्यस्तता से कहीं वे बिखर जाएं।

 

एक आयाम में सिमटे ही रहनाअन्य आयामों से बनाता है दूरी,

वे तुम्हारी उपयोगिता बिसरातेजानते कि तुम उनके लिए नहीं।

जहाँ जन्मेवहाँ का फर्ज निभाना है, मूल्य तो चुकाना ही होगा,

चेतना क्षेत्र एक श्रेष्ठ आयाम है, उसमें सबके लिए जगह बनाओ।

 

सारी ऊर्जा एक जगह झोंकना, कभी समय की माँग सकती हो,

पर स्वयं को भी सहेजना सीखो, स्वास्थ्य नियम सदा अपनाओ।

इस विश्व को अति गंभीर  लो, वे अधिकांशतः स्वार्थ में उलझे,

कर्त्तव्य पहचान निर्वाह करो, पर अन्य को दैव-विधाता मानें।

 

यहाँ नए-नए लोग उभरते हैं,  बुद्धिमता का लोहा मनवाने निज,

जैसा समझ में आए, वैसा करो, पर उचित परिप्रेक्ष्य में दो उत्तर

निकट नेताओं से सीखो, वे लड़ते-झगड़ते भी संग खाते-पीते हैं,

आलोचनाऐं दिल से नहीं लेते रोज़ की बातें, सहजता से निभाते।

 

लघु विषयों पर तुनकमिजाजी  उत्तमधैर्य का फल मीठा होगा,

सत्य रंग समय बाद दिखता है, नए लोगों का सच सामने आएगा।

लोग पहले स्वपक्ष में विश्वास करातेजोड़-तोड़ का खेल चलता है,

परिणाम का पता नहीं, किंतु वर्तमान का आनंद तो ले सकते हैं।

 

विषय जो होभुलाओ भीघर-कुटुंब को समय देना आवश्यक है,

लोगों के पीछे भागो, जब आवश्यकता होगी तो वे स्वयं आयेंगे।

देखो यह युग प्रयास करने वालों का हैबड़ा लाभ-अंश वे ही पाते,

जो बिना प्रयास किए मात्र सोचते ही, प्रायः भाग्य को दोष हैं देते

 

तुम्हारी चेष्ठा रंग लाएगी, यदि मंशा होगी ईमानदार एवं सर्वहित

परंतप शक्तिवान बनो, किंतु धैर्य से करना भी सीखो निवारण

बंधुओं के संपर्क में रहो, संवाद तुम्हें देगा शांति, सम्बल एवं वेग

जगत के कार्य बहुत पेचीदा हैं, अतः प्रयास करो सुबुद्धि ही संग

 

मत उलझो बहु रहस्यों में, दर्पण-चेहरे दोनों होना मांगते स्वच्छ

निज दृष्टि को दूरदर्शी बनाओ, सब जुड़े अवयव करो ही स्वस्थ

उच्चता के तुम सत्य ही प्रतिभागी, किंतु प्रयास का  छोड़ो संग 

काल तो बलियों की भी परखता, अतः चलना धैर्य-विवेक संग। 



पवन कुमार, 
7 दिसंबर 2024 शनिवार, समय 10:54 बजे प्रातः 
(मेरी डायरी दि० 30 मई,2024, शनिवार समय 8:41 बजे प्रातः से)  


Monday, 2 December 2024

चंचल बाल मन-सुलभता

चंचल बाल मन-सुलभता

 


                             मन एक बालक जैसा है, प्रतिदिन चाहिए एक नया खिलौना,

उसे उबासी होती पुराने से, बस सतत प्रयास नव-सम्पर्क का।

 

कभी सोचा था नियमित लिखूँगा, अब अध्याय कहाँ से ढूँढ़ें नव,

किंतु मन भी ढ़र्रे में सोचता, तथापि बहुरंगी माँगता निज वचन।

यह तो एक टीवी मीडिया सा, इसे 24x7 भरण-सामग्री चाहिए,

नित्य ही नवीन-रोचक खबरें हों, कभी अमिताभ बच्चन बोले थे।

 

वहाँ रतों का काम यही, खोज-संकलन, संपादन बाद करें प्रस्तुति,

अंततः दर्शकों को कुछ नवीन मिलेगा, उनकी टीआरपी भी बढ़ेगी।

इसीलिए भिन्न-भिन्न विषय चुनते , और पृथक व्यक्तित्वों से मिलते,

लघु-महद संवाद करते, नमक-मिर्च लगाकर खबर प्रस्तुत करते।

 

सब संग्रहालयों की भी एक प्रक्रिया, अप्रतिमों को करना एकत्रित,

जैसा रोचक-अनुपम, विचित्र-दुर्लभ मिल जाए, यत्न से हैं सज्जित

किंतु ज्ञान एवं शोध इतना सरल भी न, कि सोचा और हुआ संभव,

'गीत गाया पत्थरों ने' जैसे शीर्षक ढूँढ़ते, वाणियों में पिरोते हैं शब्द।

 

संग्रहालय-लक्ष्य तो दर्शकों को विभिन्न ज्ञान एक स्थान पर दिखाना,

दर्शक तभी आनंदित होते, जब बहु नूतन विधाओं से सम्पर्क होता।

ये ग्रंथागार-वाचनालय, कलाकृति प्रदर्शनी, विशेषज्ञ सम रखते पक्ष,

पाठक-दर्शक होते हैं प्रेरित, समय के सदुपयोग से बढ़ता मनोबल।

 

विभिन्न पुस्तकें, अनेक अध्याय, लेखकों के अपने विभिन्न मंतव्य,

सबमें कुछ विशेषता भी, रूचि अनुरूप चाहे तो सकते कुछ गुन।

सब उद्देश्य बहु आयामों से संपर्क कराना, मानव आत्म में अत्यल्प,

इतर-तितर संयोग से विस्तार होता है, किञ्चित और होता बुद्धिमान।

 

मन एक बावला है, स्वयं से नहीं संभव, तथापि ले लेता महद वचन,

इस क्षुद्र मस्तिष्क का कौन संगी है, जिससे नित करा सके निर्मित?

महारथी अर्जुन ने सूर्यास्त तक जयद्रथ के वध का ले लिया प्रण तो,

किंतु कौरवों ने सफल न होने दिया, लाज बचानी पड़ी कृष्ण को।

 

वो चीज कहाँ से लाऊँ, तेरी दुल्हन जिसे बनाऊँ, कोई पसंद न आए छोरी

मन किञ्चित तो अचंभित होता, परंतु नवीन हेतु लगाता छलाँग भी।

इस अल्पता का तो भोगी, फिर परजीवी कुछ न रच सकता निज से

युक्ति करने की भी न अति समझ, अतः यूँ ही इधर-उधर हाथ मारे।

 

नदी में कूदने पर ही तैरना आता, अतः सीख सकते यदि हो प्रयास

अनेक बाहर आते कूप-मंडूकता से, सोच लिया तो दिखेगा भी मार्ग।

बिन कुछ किए तो जगत में, मनुज की नहीं हुआ करती प्रगति बहुत

ध्यान करो, कर्म-इंगित करो, एक साहसी सम बढ़ाओ अग्र कदम।

 

मेरी भी चेष्टा लेखन सार हेतु, कुछ सुस्त हूँ स्वयं से ही बनाता नव

माना बाह्य अध्ययन भी आवश्यक, जो स्वयं को करते देने महत्तर।

जब अभ्यंतर सुघड़-श्रेष्ठ हो जाएगा, तो बाहर भी उत्तम ही आएगा

यही एक आदान-प्रदान का सिलसिला, बिना किए यश न मिलेगा।

 

किञ्चित आत्म-प्रयास ही सराहनीय है, किंतु बहुत  न होता पर्याप्त

मनीषियों ने बहु विषय सामंजस्य-मंथन कर कुछ बनाए हैं सिद्धांत।

वे उत्तम क्योंकि अनेक प्रयोगों बाद ही आऐं, उनसे आगम लो अत:

चिंतन-मनन की वांछित सामग्री देगा, उत्पादकता तो बढ़ेगी कुछ।

 

माना लेखन कर्म तो स्वयं से जूझना ही, पर वहीं से निकलेगा अमृत

किंतु पूर्व कृत-संचित ऊर्जा-ज्ञान बड़ी शक्ति देता, तन-मन को इस।

अतः सीखो जितना भी बन पाए इस जग में, उत्तमता की कुंजी है वह

निर्मल स्वरूप तो शुभ-मिलन से ही बनेगा, सांझी सोच का है महत्त्व।

 

हम नित्य तो उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण होते हैं, प्रश्न मात्र सम्मान का न अत:

यह मात्र एक चेष्टा दक्ष बनने की, आत्म-आदर की यात्रा है निरंतर।

अतः बस सोच लो लिखने को नव अध्याय, नहीं कोई विषय-अल्पता

अनेक प्रयास करते, इसकी साक्षी हैं सकल उपलब्ध रचनात्मकता।

 

खिलौनें तो अनेक पर आनंदित-आविर्भूत होकर जाओ नए पर ही

ग्रंथालय-संग्रहालय सा कुछ सहेजो, गर्व-संतोष की होगी अनुभूति।

 

 

पवन कुमार,

ब्रह्मपुर, 2 दिसंबर 2024, सोमवार, समय 9:19 प्रातः

(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 17 अप्रैल 2015, शुक्रवार, समय 9:17 बजे प्रातः से)