चंचल बाल मन-सुलभता
मन एक बालक जैसा है, प्रतिदिन चाहिए एक नया खिलौना,उसे उबासी होती पुराने से, बस सतत प्रयास नव-सम्पर्क का।
कभी सोचा था नियमित लिखूँगा, अब अध्याय कहाँ से ढूँढ़ें
नव,
किंतु मन भी ढ़र्रे में सोचता, तथापि बहुरंगी माँगता निज वचन।
यह तो एक टीवी मीडिया सा, इसे 24x7 भरण-सामग्री चाहिए,
नित्य ही नवीन-रोचक खबरें हों, कभी अमिताभ बच्चन बोले थे।
वहाँ रतों का काम यही, खोज-संकलन, संपादन बाद करें प्रस्तुति,
अंततः दर्शकों को कुछ नवीन मिलेगा, उनकी टीआरपी भी बढ़ेगी।
इसीलिए भिन्न-भिन्न विषय चुनते
, और पृथक व्यक्तित्वों से मिलते,
लघु-महद संवाद करते, नमक-मिर्च लगाकर खबर प्रस्तुत करते।
सब संग्रहालयों की भी एक प्रक्रिया, अप्रतिमों को करना एकत्रित,
जैसा रोचक-अनुपम, विचित्र-दुर्लभ मिल जाए, यत्न से हैं सज्जित
किंतु ज्ञान एवं शोध इतना सरल भी न, कि सोचा और हुआ
संभव,
'गीत गाया पत्थरों ने' जैसे शीर्षक ढूँढ़ते,
वाणियों में पिरोते हैं शब्द।
संग्रहालय-लक्ष्य तो दर्शकों को विभिन्न ज्ञान एक स्थान पर दिखाना,
दर्शक तभी आनंदित होते, जब बहु नूतन विधाओं से सम्पर्क होता।
ये ग्रंथागार-वाचनालय, कलाकृति प्रदर्शनी, विशेषज्ञ सम रखते पक्ष,
पाठक-दर्शक होते हैं प्रेरित, समय के सदुपयोग से बढ़ता मनोबल।
विभिन्न पुस्तकें, अनेक अध्याय, लेखकों के अपने विभिन्न मंतव्य,
सबमें कुछ विशेषता भी, रूचि अनुरूप चाहे तो सकते कुछ गुन।
सब उद्देश्य बहु आयामों से संपर्क कराना, मानव आत्म में अत्यल्प,
इतर-तितर संयोग से विस्तार होता
है, किञ्चित और होता बुद्धिमान।
मन एक बावला है, स्वयं से नहीं संभव, तथापि ले लेता महद वचन,
इस क्षुद्र मस्तिष्क का कौन संगी
है, जिससे नित करा सके निर्मित?
महारथी अर्जुन ने सूर्यास्त तक जयद्रथ
के वध का ले लिया प्रण तो,
किंतु कौरवों ने सफल न होने दिया, लाज बचानी पड़ी कृष्ण को।
वो चीज कहाँ से लाऊँ, तेरी दुल्हन जिसे बनाऊँ, कोई पसंद न आए छोरी
मन किञ्चित तो अचंभित होता, परंतु नवीन हेतु लगाता छलाँग भी।
इस अल्पता का तो भोगी, फिर परजीवी कुछ न रच सकता निज से
युक्ति करने की भी न अति समझ, अतः यूँ ही इधर-उधर हाथ मारे।
नदी में कूदने पर ही तैरना आता, अतः सीख सकते यदि हो प्रयास
अनेक बाहर आते कूप-मंडूकता से, सोच लिया तो दिखेगा भी मार्ग।
बिन कुछ किए तो जगत में, मनुज की नहीं हुआ करती प्रगति बहुत
ध्यान करो, कर्म-इंगित करो, एक साहसी सम बढ़ाओ अग्र कदम।
मेरी भी चेष्टा लेखन सार हेतु, कुछ सुस्त हूँ स्वयं से ही बनाता नव
माना बाह्य अध्ययन भी आवश्यक, जो स्वयं को करते देने महत्तर।
जब अभ्यंतर सुघड़-श्रेष्ठ हो जाएगा, तो बाहर भी उत्तम ही आएगा
यही एक आदान-प्रदान का सिलसिला, बिना किए यश न मिलेगा।
किञ्चित आत्म-प्रयास ही सराहनीय है, किंतु बहुत न होता पर्याप्त
मनीषियों ने बहु विषय सामंजस्य-मंथन कर कुछ बनाए
हैं सिद्धांत।
वे उत्तम क्योंकि अनेक प्रयोगों बाद ही आऐं, उनसे आगम लो अत:
चिंतन-मनन की वांछित सामग्री देगा, उत्पादकता तो बढ़ेगी कुछ।
माना लेखन कर्म तो स्वयं से जूझना ही, पर वहीं से निकलेगा अमृत
किंतु पूर्व कृत-संचित ऊर्जा-ज्ञान बड़ी शक्ति देता, तन-मन को इस।
अतः सीखो जितना भी बन पाए इस जग में, उत्तमता की कुंजी है वह
निर्मल स्वरूप तो शुभ-मिलन से ही बनेगा, सांझी सोच का है महत्त्व।
हम नित्य तो उत्तीर्ण-अनुत्तीर्ण होते हैं, प्रश्न मात्र सम्मान का न अत:
यह मात्र एक चेष्टा दक्ष बनने की, आत्म-आदर की यात्रा है निरंतर।
अतः बस सोच लो लिखने को नव अध्याय, नहीं कोई विषय-अल्पता
अनेक प्रयास करते, इसकी साक्षी हैं सकल उपलब्ध रचनात्मकता।
खिलौनें तो अनेक पर आनंदित-आविर्भूत होकर जाओ नए पर ही
ग्रंथालय-संग्रहालय सा कुछ सहेजो, गर्व-संतोष की होगी अनुभूति।
पवन
कुमार,
ब्रह्मपुर,
2 दिसंबर 2024, सोमवार, समय 9:19 प्रातः
(मेरी
महेंद्रगढ़ डायरी दि० 17 अप्रैल 2015, शुक्रवार, समय 9:17 बजे प्रातः से)