मनुवा पथिक
यह कविता बाहरी दुनिया की भाग-दौड़ में उलझे मन और आत्मा से एक गहरा संवाद है। इसमें पथिक के रूप में जीवन की जटिल भूल-भुलैया में भटके हुए हर उस व्यक्ति को संबोधित किया गया है, जो अपने भीतर के प्रकाश की तलाश में है। यह रचना हमें याद दिलाती है कि जीवन एक बेशकीमती हीरा है, जिसे व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए, बल्कि आत्म-विकास और कृतज्ञता के साथ आगे बढ़ना चाहिए। यह हमें स्वयं को सुघड़ने और ज्ञान का वाहक बनने की प्रेरणा देती है ताकि हम न सिर्फ अपनी बल्कि दूसरों की दुनिया भी बेहतर बना सकें।
ओ पथिक, देख इन जग की भूल-भुलैया में ही न बस उलझे रहना,
यहाँ बहुत से बेहतर गुणी आयाम हैं, उनसे भी परिचित होते रहना।
देखो ये जीवन-समस्याएँ तो हमारे रोज का अंग हैं, वे आती ही रहेंगी,
तू अपना भी कुछ मूल्य बचा कर रखना, इन्हीं में सकल न गँवा देना।
मन को तू उच्चतम अध्ययन में लगाना, कुछ आत्म-विकास हो सके,
किंचित निकट प्रकाश हो जाए, अतः तू अपना बल्ब रखना जला के।
ओ पथिक, बावरा क्यों है, दिन-रात संवादों में उलझा रहता बस एक से?
बाहर तो आओ, सूर्य का उजाला मिलेगा, उपवन-कुसुम मुस्काते मिलेंगे।
नभ में खग-वृंद उन्मुक्त विचरते हैं, तरु-डालों पर चिरैया गाती मिलेंगी,
जल में मीन साम्राज्य बनाए तैरती, वन्य-जीव स्वच्छंदता से रहते मिलेंगे।
ओ राही, गगन में मेघ-समूहों का सौंदर्य देख, विभिन्न वर्णों में वलय बनाए,
कार्य पृथ्वी को सिंचित करने का मिला, अतः सबकी आकर प्यास बुझाए।
निराश न हो बस चलते रहते, मुस्काते-इठलाते, हल्का या भारी भार उठाए,
जैसी स्थिति बरत ली, गाते-गरजते, तड़ित चमकाते, शाश्वतता संजोए सी है।
ओ मनुवा, दुनिया इतनी निराश न, सब थपेड़े खाकर भी चलती ही रहती,
एक हानि को भूल सहज हो जाती है, जानती कि सब कुछ निज हाथ नहीं।
फिर अनेकों तो परवाह भी नहीं करते हैं, चाहे सारी दुनिया ही हिल जाए,
बस उनकी अपनी त्वचा बचनी चाहिए, फिर चाहे जगत भाड़े में ही जाए।
पर तू इतना कठोर भी न बनना, जग को सुघड़ चलाने में सहायक बनना,
कुछ वजन तो तूने भी सहन करना, आखिर यहीं का तो सब कुछ है खाता।
कुछ कृतज्ञता तो एक सज्जन में होनी चाहिए, चाहे हो तनिक तकलीफ भी,
देखो कष्टों से ही तो शक्ति आती है, कब तक झूलोगे माँ के पालने में ही।
ओ पथिक, कुछ तो मुस्कुरा तू, उत्तम छवि बना, पर-निंदा करनी छोड़ दे,
देखो, हम सभी कहीं न कहीं दोषी हैं, कोई भी तो यहाँ दूध से धुला न है।
मैं कोई आत्महंता ग्लानि न चाहता तुमसे, अपने को सामान्य मान ही लो,
सब झंझटों से गुजरते, गिरते-पड़ते, ठोकर खाते, सीखते ही काम के बनो।
ओ पथिक, जीवन बेशकीमती हीरा है, कौड़ियों के मोल न इसे बिकने देना,
कबीर-एपिक्टेटस, रैदास-नानक, बुल्लेशाह, शाहबाद कलंदर सा निखारना।
व्यर्थ गर्व व ढकोसलों में कुछ नहीं रखा है, कुछ तो सत्यता खोजो जीवन की,
कोई न जाने कहाँ कब मिलेगी, किंतु प्रयास करोगे तो शायद मिल सकती।
यह एक कस्तूरी मृग सी हालत है, कि बच्चा बगल में और ढिंढोरा शहर में,
मृग-तृष्णा में जीव मारा-मारा भटकता, पर पानी तो कहीं मिलता ही नहीं।
यहाँ फिर किससे जीतना, सब तो पूर्ववत ही हारे, परेशान अपने दुख में ही,
वे विरले ही मिलेंगे जो गुरु बन सकते, जिन्होंने स्वयं पर कुछ विजय पा ली।
ओ, कभी सहज होकर विचारा करो, संजीदा होने से भी लाभ न कुछ बड़ा,
माना शुरू में कुछ अधिक चेष्टा लगती, फिर धीरे-२ एक ढर्रा सा बन जाता।
पर समझ तू बस वहीं ठहर मत जाना, तेरी चेष्टा ही अति सहज रूप में रहे,
लेकिन वह भी सहायक हो सकती, ध्यान रहे जब तक प्राण तभी तक ज्ञान।
देह-स्वास्थ्य एक अत्यावश्यक नियम है, इसके चलते ही पहुँचोगे मूल तक,
जितने अधिक अध्ययन-घंटे संग ही बिताओगे, उतनी ही तो आएगी समझ।
सिख कहते हैं, जो खा लिया वही अपना, जो छूट गया पता न खाएगा कौन,
अतः तेरा रब तूने ही खोजना है, तुम कहीं भी पड़े रहो, मतलब किसी को न।
ओ पथिक, ज्ञान-वाहक बनकर देख, तेरे सुधरने से ही यह जग भी सुधरेगा,
कम से कम स्वयं तो लाभान्वित होवोगे ही, प्रयास बस आगे तक ले जाएगा।
पवन कुमार ,
२४ सितंबर, २०२५, मंगलवार, समय १२.४० बजे मध्य रात्रि
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी १७ जुलाई, २०१५, शुक्रवार, ९:०४ प्रातः से )
बहुत सुंदर रचना है आपकी । जीवन की गहरी सचाई को बयान करने वाली। 🙏🙏
ReplyDeleteआपकी यह कविता मन को राह दिखानेवाली है। जिस राह मे चलके मन को एक उन्नत स्तर पे ले जाति है।
ReplyDeleteAti sunder .Please keep it up 👍
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता लगी जो की काफ़ी प्रेरणा दायक है आप को बधाई हो ।
ReplyDelete🙏🙏👏👏👍👍❤️❤️
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना, आत्मा और मन को आत्म मंथन करने को विवश कर रहा है। अति सुंदर रचना है सर। आपको बार बार साधुवाद है सर। प्रणाम ।
ReplyDeleteअत्यन्त मार्मिक कृतित्व। ईश्वर आपको और अद्वितीय रचना रचने का साहस एवम् शक्ति प्रदान करें। जय जय श्री राम।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है।
ReplyDeleteआज की भागदौड़ भरी जीवन शैली मे धैर्य के साथ चिंतन मनन करने को प्रोत्साहित करती यह कृति वाकई मे जीवन का पथ परदर्शक हैं I कविता को आत्मसात करके अपने अंदर झांका जा सकता हैं I बहुत ही सुन्दर कृति I
ReplyDelete❤️❤️
ReplyDeleteमहोदय,
ReplyDeleteअत्यंत ही सुंदर रचना, आत्मा और मन को आत्म मंथन करने को विवश कर रहा है। अति सुंदर रचना है सर। आप बहुमुखी प्रतिभा के धनी है । प्रणाम ।
Mool Chand Chauhan : अति सुन्दर एवं प्रेरणादायक 🙏🙏
ReplyDeleteAkshay Kumar Das : Your creation and Translation ll be highly appreciated ever🌷🌷🌷
ReplyDeleteHappy Dasahara🌷
Rajesh Jindal : Aatisunder Aatisunder 🙏🏻🙏🏻🫡🫡👌👌👍👍
ReplyDeleteM Kamal Ahmed : 👍👍👍👍👍
ReplyDeletePrabhash Singh : Bahut sundar thoughts
ReplyDeleteSuneet K Dadhich : 👍 congratulations sir 🎉
ReplyDeleteSuneet K Dadhich : 👍 congratulations sir 🎉
ReplyDeleteVK Singh : -इठलाते, हल्का या भारी भार ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना 👍🙏🌹
Ram Avtar Jain : जीवन की गुणवत्ता/सार्थक कविता 👍🙏
ReplyDeleteRC Chand : An excellent creation sir. 👏
ReplyDeleteAlthough I belong to a non Hindi speaking state and have no formal education in school I can read and understand your poem.
Thank you for sharing.
SA Khan : 🌹🌹 Congratulations
ReplyDeleteYou are genius Sir
Nandini Mukhopadhya: आपकी यह कविता मन को राह दिखानेवाली है। जिस राह मे चलके मन को एक उन्नत स्तर पे ले जाति है।
ReplyDeleteVijay Kumar CE: मनुआ पथिक
ReplyDeleteयथार्थ के नजदीक
बिल्कुल सटीक
पवन भाई
अपने डगर पर
रहना अडिग 🙏
Pawan Kumar, CE : बहुत गहरी बात कही है आपने भाई जी। यथार्थ को बयान करने वाली। 🙏🙏
ReplyDeleteअति सुन्दर और रचनात्मक 🙏
ReplyDeleteराजेश्वर की बधाई स्वीकार करें
ReplyDeleteBahut hi sunder .
ReplyDeleteDeep Shekhar Singhal : एक अथक यात्रा की अनुपम प्रेरणा
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