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Saturday, 26 July 2014

सार्थक संवाद

सार्थक संवाद 


कैसा हो सुवार्तालाप, दर्शित हो करे कुछ सार्थक

शब्दों में ही न उलझ, कुछ गंभीर हेतु हो प्रयत्न॥

 

कवि-हृदय भी बालक सम, मात्र विस्मयता दर्शाता

कभी तो वह व्याकुल होता, कभी ख़ुशी ही मग्नाता।

वह बेचारा तो कदापि, निज से ऊपर हो ही न सका

बस निज अंतः संग ही, कुछ मंथन करता है रहता॥

 

पर यह उसको कदाचित, बाह्य से अलग कर देती

उसे संसार-विवादों के लिए, समय ही मिलता नहीं।

वह लघु सामग्री के साथ, इस काल-क्षण में है व्यस्त

उसी से कोशिश है, कि क्या बड़ा किया जा संभव॥

 

मूर्तिकार भी पाषाण-खंड में ही, लघु-शिल्प तराशता

महद से सूक्ष्म पर आना, शक्तियाँ समाहित करना।

लक्ष्य निकट, कलाकृति तराशने में सकल न्यौछावर

 उसे जीवन सा समझता, तभी प्राण-प्रतिष्ठा पाता कर॥

 

कवि नन्हीं कलम से, कागज़-पटल पर प्रयोग करता

कुछ मूर्तिकार से कम, क्योंकि न होती बहु स्पष्टता।

पर शायद मूर्तिकार भी, स्थिति से गुजरता होगा वैसी

चलते-२ उद्देश्य प्रखर होता, बुद्धि कार्यानुरूप देती॥

 

स्पष्ट कुछ भी न है जगत में, तो भी प्रयास किया जाता

शनै सब सम्यक भी होता, यदि प्रयत्न मन से है होता।

मानो कुछ न भी यहाँ व्यर्थ, बस है तो निष्क्रियता-मन

खड़े होकर चलो तो पाओगे, अनेक आनंद हैं विस्तृत॥

 

इस मस्तिष्क-शून्यता से ही, अद्भुत संसार निकलता

समक्ष कोई किताब भी न है, जिसे नक़ल कर सकता।

स्वयं ही साक्षी है वह, रचक- चित्रकार व मूर्तिकार भी

सीधा संबंध-संपर्क है, शाश्वत-अबाधित परम से उसी॥

 

यद्यपि वाणी चाहे मौन ही, मन-मस्तिष्क खलबलाता

प्रेरित करता नन्हीं कलम को, कुछ तो हो जाए नया।

पर यह क्या शब्द-मौन, अन्य-क्रिया भी बंद कर देगा

नहीं, वह तो सुपथ देता, अनुपमार्थ इस कलम द्वारा॥

 

माना बल-सीमा, तथापि परस्पर आदान-प्रदान संभव

सत्यमेव एक को अन्य हितार्थ, छोड़ना चाहिए स्वयं।

यही दार्शनिक प्रज्ञा-मार्ग है, जो चहुँमुखी हेतु समर्पित

नूतन विकासार्थ, सब बल-पुँज प्रयोग हो यथा-संभव॥

 

बहुत अधूरा, इतना बौना व विकास इतना है कमतर

अल्प संभावना-प्रयोग, कार्य-परिणति की इच्छा न्यून।

जीवन इतना छोटा बना दिया, अपने निम्न-उपयोग से

मनुज को पूर्णता हेतु, किंचित महान प्रयास हैं करने॥

 

दंभित या कहूँ स्वयं में डूबा, सोचता कि विज्ञान-रत

जबकि वस्तुतः सत्य, नयन भी खोल पाया न संपूर्ण।

अभी मात्र प्रथम विकास-चरण का ही हुआ शुभारंभ

और कदाचित वह, सब नई संभावनाओं से देगा भर॥

 

सब वस्तु-सामग्री, स्थान, क्रिया-कारक अनिवार्य अत्र

मैं तो यहाँ प्रयोग के लिए, निमित्त ही हूँ सामग्री मात्र।

जानता हूँ कि यह सब कुछ, क्या-क्यों-कैसे हो है रहा

शायद बालक सम स्व को, अभिभावक को दे दिया॥

 

विश्वास है कि वह, उछालेगा तो पकड़ भी लेगा ही

क्रिया चाहे अभी असह्य है, पर विकास हेतु जरूरी।

दैहिक-मानसिक कसरतें करते समय तो हैं दुखाती

पर उत्तरोत्तर धारक को अधिक सक्षम ही बनाती॥

 

अतः समक्ष बाधाओं से तो, डरने का कोई नहीं प्रश्न

पर परम हेतु दुर्गम-अलंघ्य मार्गों से, होना है गमित।

उस विकास की क्या सीमाऐं हैं, कैसे संचालित होना

व इस अन्वेषण में निज का समर्पण-कटिबद्ध होना॥

 

तब मुझे स्व-विकास हेतु, क्या -कुछ प्रयास हैं करने

प्रथम एक सूची तो बनाओ, उद्देश्य गिनवाओ अपने।

फिर विचारो क्या कार्य करना, और कब-कैसे-कहाँ

किसकी सहायता क्यों वाँछित है, हेतु कर्म-सम्पन्नता॥

 

स्व-उद्वेलित होना प्रथम शर्त है, निम्न-स्थिति सुधारार्थ

इस चरण बिना तो, कुछ भी विकास-मंथन असंभव।

पर इसको ही आगामी प्रयास-कर्म हेतु प्रेरित करना

फिर अहसास होगा, प्रति क्षण श्वास-निरंतरता का॥

 

यह तो बढ़ता ही जाता है, जितना मैं करता हूँ प्रयत्न

प्रश्न का उत्तर खोजने हेतु, क्यों न होते ही उद्योगरत?

क्या यह भी एक कदम, सार्थकता में करने हेतु प्रवेश

यूँ ही न समय गँवाते, अपितु नचिकेता सम है सक्षम॥

 

कई पुस्तकें सामने पड़ी हैं, और मैं हूँ निपट अनपढ़

कैसे ही अमूल्य ज्ञान का लाभ, पहुँचे मुझ अकिंचन?

माना कि प्रयास निरंतर सा भी, उसे समझने के हेतु

पर उठा-पटक या असमझे, कुछ पृष्ठ देख लेता हूँ॥

 

इन चेष्टाओं के भी कोई मायने नहीं, अशिक्षित हूँ यदि

स्वयमेव पठन-अशक्य, क्योंकि अक्षर-ज्ञान है नहीं।

अतः एक सुशिक्षक चाहिए, यदि कोई संपर्क करा दे

स्वर-व्यञ्जन माला, शब्द-वाक्य सकल अर्थ समझा दे॥

 

ऊसर भूमि रिक्त पड़ी है, कोई कर्मठ कृषक चाहिए

बन सकती फिर बहु-ऊर्वर, श्रम-खाद-पानी चाहिए।

प्रथम तो धरातल हो समतल, हो बाहर कंकड़-पत्थर

तब कुछ नम मृदा बिछा, अपने क्षेत्र को करो दुरस्त॥

 

प्रस्तर यह निष्प्राण पड़ा, कोई शिल्पकार इसे उठाए

सोचकर श्रेष्ठ तराशे, प्रतिमा इससे अद्भुत ही बनाऐ।

मेरी क्या है योजना, इस तन-मन का निरूपण करना

पर सर्वाधिक आवश्यक, किसी योग्य ही हाथ पड़ना॥

 

कलम-कागज़ निकट, कोई आकर इसपर कुछ कुरेदे

कुछ कालजयी लिखवा दे, माँ सरस्वती मधु-मुस्कुराऐं।

चाहती वह कुछ सक्षम बनें उसके शिष्य, और महारथी

प्रशिक्षित भी चाहती, पर आगे तो बढ़ना है खुद को ही॥

 

यह रखा दिया-तेल उपलब्ध, बाती भी पड़ी है निकट

चारों ओर गगन अँधियारा, उसमें खड़ा हूँ असमंजस।

माचिस भी हाथ में किंचित, फिर चलाने की न समझ

फिर क्यों न किसी से पूछ ले, कैसे प्रकाश हो संभव॥

 

तुम करो कुछ प्रयास अनवरत, सहारा तब मिलेगा ही

बहुत लोग देख रहे तुम्हें, अचम्भित आँखों से अपनी।

संभव यह नया स्वरूप फिर, अनेकों की समझ न आए

लेकिन सब तरह के प्राणी यहाँ, अपना काम करना है॥

 

कैनवस उपलब्ध, रंग-कूची साथ में, बाहर खुला गगन

मन तो पास तुम्हारे ही, और दृश्य देखने को हैं नयन।

फिर चित्रण कर सकते मन में, यह तो बहुत ही संभव

उठाओ पेंसिल, उकेरों शक्लें, प्राण भरा रंगों से तब॥

 

बहु संभावनाऐं हैं जीवन की, औरों भी सक्षम बना दो

सब कुछ सीखा यहीं से, औरों को भी राह दिखा दो।

चलो दुर्बलता-निवारण, उसका अर्थ भी जग-सहारा है

यह है परस्पर अवलम्बन, व सर्वहित अत्यावश्यक है॥


पवन कुमार, 

26 जुलाई, 2014 समय 21:48 रात्रि 

(मेरी डायरी दि० 17 अप्रैल, 2014 समय 9:23 प्रातः से)  

Saturday, 19 July 2014

जीवन चिन्तन

जीवन चिन्तन 


फिर वही छपछपाहट, सिहराती कुलबुलाहट

पाता स्व को पूर्ण-अज्ञानी, असहज व बोझिल॥

 

सहमा बस अंतः में, और जीवन का नहीं स्पंदन

बाहर और भीतर नितांत नीरवता का साम्राज्य।

मुझे सुनाई दे रही, चहकती चिड़ियों की चीं-चीं

और बाहर पथ पर घिसरते से वाहनों की घीं-घीं॥

 

यह चिड़ियों का चहकना ही शायद प्राणदायक

अन्यथा मुझे तो बहुदा लगता, अजीवन सा सर्व।

प्राणी चलते हुए भी, अप्राण का ही निर्वाह करते

और अपनी मुर्द शांति में ही बस सुबकते रहते॥

 

पर ये चिड़ियाँ ही हैं, जो मन को पुलकित करती

गिलहरी निज गिट-गिट से, ध्यान खींच ही लेती।

झींगुर अपनी सतत साधना से हैं प्रभावित करते

नीरवता तोड़ते हुए, जीवन प्रतिभाषित हैं करते॥

 

पर क्या बोझिलता से कभी, बाहर न आ सकता

हर क्षण भार मस्तिष्क में, अपूर्णता ढ़ोने से का।

शयन तो अधिक भाग्य में है, नहीं मेरे कदाचित

 जागृति में भी असहजता का ही रहता साम्राज्य॥

 

इस देह-मन की रण-भूमि में, मौन युद्ध है सतत

 कभी बाहर आ बोले, पर सुगबहाट से न अधिक।

पर अंदर तो तड़पन है बहुत, जो कटु-पीड़ा देती

कैसे उलझनें सुलझाऊँ, इसी धुन में लगी रहती॥

 

ये जग-जन तो स्वयं में सदैव, अस्त-व्यस्त-मस्त

इनको निज से न फुर्सत, तेरा क्या करेंगे चिंतन।

वे भी लगे हैं, अपने कई आन्तरिक-बाह्य युद्धों में

और तन्हा होंगे इस भासित विराट मनुजागार में॥

 

जैसे सावन के अन्धे को सब आता है हरा नज़र

मुझे भी किञ्चित वैसे ही, अपने जैसे लगते सब।

माना कुछों की स्थितियाँ हों कहीं सुखतर मुझसे

क्योंकि सब व्यग्र ही इस भवंडर को समझने में॥

 

यह क्या है मस्तिष्क-भारीपन व अति तन-दुखन

चिकित्सीय आयाम या कि गंभीर बदलाव-लक्षण।

मैं तो नहीं कबीर, रमन महर्षि या योगी अरविन्द

फिर क्यों ये हिचकोले आ, हिलाए जाते हैं अंदर॥

 

जग जाता प्रायः नींद से, मैं पाने अपूर्णता-निदान

खोजने लगता, कुछ पुस्तकों में उनका समाधान।

हाँ विद्वानों में अनेक, जो ऐसे दौर से होंगे परिगत

पूर्ण-अनुभूति अदर्शित, किञ्चित मात्र ही है वर्णन॥

 

वैद्य भी ऐसी औषधि या न कर सके हैं सूई ईज़ाद

जिससे हो एकाग्रता-भाव व व्यग्र-मन का ईलाज़।

अनेक सीधों को, कई मद-दुर्व्यसन सिखा देते ठग

पर सत्यता उन्हें है विदित, कि कहीं ओर है चरम॥

 

मानता हूँ, कि मैंने उस व्यसन को तो न अपनाया

पर सुनने में तो उसे, केवल ठगने वाला ही पाया।

अन्यों को बना अपंग-अबौद्धिक, उल्लू निज साधते

फिर चेतनता का ढोंग करते, वचनों से बरगलाते॥

 

विचार कहीं और चला गया गंतव्य से, जो मेरा स्व

क्षय-विकास सिलसिला, दिखाता है खेल अनवरत।

पर इस तरह के क्षणों में, स्वयं को बड़ा तन्हा पाता

व पुनः मस्तिष्क-कपाट खोलने में अक्षम हो जाता॥

 

काल कवि-मानव धरा पर यदा-कदा अवतरित हुऐं

पर वे भी तो किसी प्रशिक्षण-अभ्यास से गुज़रे होंगें।

क्या होगा चिंतन, जिसने सिखाया पहचानना मंज़िल

रहें समरसता-धारक, निखारते रहें निज का अंतः॥

 

उन महामानवों के समक्ष, अत्यंत हूँ मैं निम्न-वामन

वे वृषभ, मैं वत्स-अवयस्क, दुर्बल व मुखापेक्षी-पर।

कितना अधिक अंतर, दोनों की स्थितियों में प्रस्तुत

बीज शायद एक ही, लेकिन वर्तमान बहुत असम॥

 

माना बहु-संभावना, इसके भी विपुल विकास की

पर इस हेतु अनेकानेक प्रयोगों से गुजरना स्थिति।

फिर फल देना निहित, महादात्री-हाथों में ही उस

 और वे सौभाग्यशाली, कृपा-दृष्टि हो जाए जिनपर॥

 

माना विकास-नियम से सब बढ़ जाते देहाकार में,

पर क्या यह नियम, क्या मन-वर्धन के लिए भी है?

 हाँ सत्य भी, कुछ न कुछ चलता ही रहता है अंदर

 पर निज श्रेयष-चेष्टा ही किंचित करती है परिष्कृत॥

 

जो बाहर वह अंदर नहीं है, और अंतः तो अदर्शित

जब स्व ही अविदित हैं, अन्यों का क्या हो परिचय?

अवश्यमेव हर मनुज है, एक महासमुद्र सा स्वयं में

 यह और बात कि वह कितना अनुभूत कर पाता है॥

 

इस अज्ञात महामानव-शहर में, क्यों लाया गया मुझे

यहाँ मुझे झझकोरते-जगाते, और दुत्कार लगाते हैं।

सोए से जगाकर बैठा देते, बैठे हुए से खड़ा करते हैं

फिर गति-दौड़ को प्रेरित करते, या कहूँ धका देते॥

 

शायद देना चाहते हैं सामर्थ्य, पर इच्छाभाव मुझमें

वरन क्या न लग ता अध्यवसाय, कुंडलिनी-ज्ञान में।

मूलाधार में ही हूँ बैठा, अति महद काल पश्चात भी

तब सहस्रधार परम चक्र-स्थिति तो दूर है बहुत ही॥

 

अतः तुरंत आवश्यकता है, मध्य-चक्रों से भी गुज़रना

विस्तृत चेष्टाओं से, यह आत्म प्रकाशित करना होगा।

अपने को मनुष्य बनाना, जो मनु के नाम से है आया

जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' में यह चित्रण भला॥

 

कहाँ मैं घोर फँसा हूँ, आत्म-कुरुक्षेत्र के समर में इस

मैं तो न एक बहुत बड़ा योद्धा, न ही सारथी किंचित।

कहीं पद-दलित न होऊँ ही, किसी रथ-चक्र नीचे आ

फिर पछताऊँगा स्व भाग्य पर, आया ही क्यूँ मैं यहाँ॥

 

माना तुम एक प्राणी हो अबल व मद्धम प्राण- शक्ति

तथापि भेजे तो गए ही हो, किसी विराट उद्देश्य-पूर्ति।

शायद नहीं बताई उस नियंत्रक ने, निज भावी योजना

पर मान लो कि वह निरुद्देश्य, कुछ भी नहीं करता॥

 

मत करो ही उसकी नेक मंशा पर शंका, ऐ बन्धु तुम

सोचो बस किस विधि-कर्म से, निज करना है सुघड़।

वह अवश्य देगा, सकल अवसर पुरुषार्थ-प्रस्तुति के

पर एक महारथी बनने हेतु, गुज़रना है रथी-श्रेणी से॥

 

फिर किस दृश्य-खोज में हो, कि होगा चक्षु अभिराम

यह तो सब ओर ही हैं, बस खोलने होंगे नयन-द्वार।

माना कपाट अति भारी हैं, व नहीं अनेक उपकरण

ऊपर से अशक्त भी, कोई दिखता न है सक्षम संग॥

 

परंतु ऐसे न खुलेंगे ये, ले लो मन में विश्वास एक दृढ़

पार भी संभव, चाहे बस असहजता हो सतत कुछ।

बनो धीर मन के स्वामी, अनुभव करो स्व-विकसन

कि जो भी बनना चाहते हैं, उसी से होता निकसत॥

 

ओ विकास-यात्रा के साथी मन!, इतने क्यों चिन्तित

जबकि दार्शनिक-साधु जानते, यही है सत्य जीवन।

मनुज-जीवन नाम नहीं, किसी बड़ी मंज़िल ही का

अपितु हरेक क्षण, गहन आत्मा-अनुभूति करने का॥

 

फिर यही कुरुक्षेत्र तो है, अपना विकास गृह-स्थल

व तुम नितांत नहीं हो, रुग्ण-बेबस व मनुज निर्बल।

मात्र तुम्हारे उठ खड़े होने की ही प्रतीक्षा अग्रसरार्थ

समस्त जगत तत्पर, तेरे मार्ग-दर्शन व सहायतार्थ॥

 

यहाँ कोई नहीं है तव प्रतियोगी, सब अपने में व्यस्त

सब लगे निज धुन बनाने में हैं, यह संगीतमय जगत।

कुछ मूढ़ता भी है प्रगाढ़, जब सुध न उन्हें आत्म की

फिर सोचो तो, तेरे लिए क्यों स्वयं को देंगे कष्ट ही?

 

यहाँ बीज़-पादप-महावृक्ष व फल में भेद नहीं कोई

बीज़ में संभावना है, एक विपुल उत्पादन लाने की।

पर कुछ सावधानियाँ भी वाँछित, परिणामार्थ सफल

कहीं छितरा या खाए न जाओ, भूमि न पाओ ऊर्वर॥

 

मैं स्व-धुन में हूँ खोया, चित्रकार कलाकृति रचता रहा

जहाज़ उड़ता-ध्वनि करता, रेंगते ट्रैक्टर का शोर रहा।

सूर्य के गिर्द पृथ्वी परिक्रमा करती, फसलें उगती रहीं

रसोई-बर्तन टकरते ही रहें, चिड़िया गीत गाती रहीं॥

 

मेरी देह की भी कई अवस्था, स्वेच्छा से बदलती रहीं

यह बुद्धि भी कई भावों से, निज रंग बदलती ही रही।

मोबाईल में सतत प्रक्रिया है, मैसेज को लेने व भेजने

मेरे चाहे-अचाहे, विश्व के सभी पहलू यूँ चलते ही रहें॥

 

यदि निराशा है तो आशा भी, संभावना असीम सर्वत्र

हाँ जन्मे आतंरिक- मंथन से, तभी होगी स्थायी-चिर।

यदा-कदा है दैनिक जीवन बीच, जैसा भी हो स्पंदन

 यह अमूल्य अनुभव निधि यूँ कैद करना, रखो सहेज॥

 

सुनो सबल तुम्हारे साथ हैं, सब अबल मुख ताक रहें

साथी मुस्कुराते हैं चेष्टाओं में, स्वजन प्यार करते रहें॥

 

अतः बढ़े चलो। फिर मिलेंगे॥



पवन कुमार,
19 जुलाई, 2014 समय 20:49 सायं 
( मेरी डायरी 8 अप्रैल, 2014 समय 9:12 प्रातः से )

Thursday, 10 July 2014

कुछ संस्मरण शिलोंग

कुछ संस्मरण शिलोंग  
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कई दिन की कशमकश के बाद फिर हिम्मत करके कलम उठाई है। वास्तव में यह डायरी कई दिनों से या कहिए कि उषा और सौम्या के दिल्ली जाने के दिन से ही पास रखी मेज़ पर रख दी  गई थी।  वह दिन शुकवार था और अगले दो दिन छुट्टी के थे अतः यह सोचा था की काफ़ी समय मिलेगा कुछ लिखने के लिए, कुछ बतियाने के लिए। परन्तु शायद मैं भी यह मानने लगा हूँ कि हर चीज़ के लिए एक उपयुक्त समय होता है और वह चीज़ उसी के अनुरूप होती है। वास्तव में डायरी लिखने के विषय में तो मैं यह निश्चय से कह सकता हूँ क्योंकि मैं इसमें अनियमित रहा हूँ। यह शायद नहीं होता जब तक एक प्रबल इच्छा न हो और मैं बतियाने के लिए कुछ होते हुए भी उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाता। 

फिर आज अब या फिर उन तमाम क्षणों में जब मैं अकेला होता हूँ, इस मेरे सिवाय इस दुनिया में कौन पास होता है? यह मैं ही तो हूँ जो इस शरीर के साथ जिए जा रहा हूँ और घड़ी की टिक-टिक के साथ इस ज़िन्दगी को उसके अंतिम मुकाम की ओर शनै-शनै आगे ले जा रहा हूँ। यह भी मैं ही हूँ जो कदाचित व्यर्थ के संवादों में उलझा रहता हूँ या फिर कई बार दूसरों के विषय में कुछ बुरा कहने में आनन्दित होता हूँ या फिर अपने मन के क्लेश या संशय को रोषपूर्ण शब्दों से या दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करता हूँ या फिर मन ही मन में स्मरण करके स्वयं को व्यथित करता हूँ। या फिर तनिक अधिक चतुर बनकर केवल दूसरों के लिए नियमों का पालन कराने में अधिक आनन्दित होता हूँ। या फिर अपनी कमज़ोरी पहचान कर स्वयं को और फिर अन्यों को भी लाचार सा बर्दाश्त करता हूँ और चुपचाप चलता जाता हूँ। या फिर हिम्मत करके टोका-टोकी के द्वारा 'जब तक जीवन है -आशा है' के सिद्धान्त से चीज़ों को ठीक करने की कोशिश करता हूँ। यह कोशिश शायद ख़ुशी प्रदान करती है परन्तु इच्छा के अनुरूप फल न पाकर तनिक अवसाद भी अनुभूत होता है।

मैं अपने कार्यालय में मध्यम दर्ज़े का अफ़सर हूँ। कार्यालय में वाँछित स्टाफ़ से कहीं कम यहाँ आसीन हैं। इस अंचल में कार्य का भार अपने आकार से कहीं अधिक है और लगभग हर दिन एक या अधिक कार्य की अनुमति मिल ही जाती है।  क्षेत्र स्टाफ भी अपना पूरा ज़ोर लगाकर कार्यों को ठीक तथा समय से कराने में अधिकतर असमर्थ होता है परन्तु फिर भी उनके पास स्टाफ लगभग पूरा होता है क्योंकि लोग योजना शाखा में आसीन होने की अपेक्षा क्षेत्रो में आसीन होना ज्यादा पसंद करते हैं। चूँकि मेरे पास अधीक्षण इंजीनियर (योजना) के तीन में से दो इकाईयों का भार है, कार्य करवाना अत्यन्त कठिन हो जाता है और उस पर वरिष्ठ अधिकारियों का कार्यों के परिणाम शीघ्र-अति-शीघ्र प्रस्तुत करने का निर्देश, और मुश्किल बना देता है। इसके अलावा स्वयं भी जब बहुत अधिक कार्य अधूरे हों तो मन में क्षोभ सा होता है और स्वयं की कार्य-क्षमता पर यदा-कदा प्रश्न-चिन्ह सा लगा महसूस होता है।

उषा और मेरी प्यारी बेटी सौम्या 24 सितम्बर को नई दिल्ली से गुवाहटी आए थी और उनको लेकर मैं 30 तारीख को शिलोंग पहुँचा था। उसके बाद वे यहाँ पर लगभग एक महीना रहें और इसी 26 अक्तुबर को दीवाली के दिन में उनको 27 की सुबह राजधानी एक्सप्रेस में बैठाने गुवाहटी गया था। वह दिन दीवाली का था, गुवाहाटी में गेस्ट-हाउस (CPWD जू -नारंगी मार्ग) में रुके थे। वहीँ पर कॉलोनी में रह रहे श्री नीरज मिश्रा, अधीक्षक अभियंता (असम केंद्रीय परिमंडल-2), अनुराग गर्ग और निर्मल गोयल, जो वहां पर आए थे, के साथ दीवाली मनाई। मतलब कि सौम्या ने बच्चों के साथ पटाखे छुड़ाऐं और हमने खड़े होकर मज़ा लिया। इसके अलावा श्री अग्रवाल (सि० सि० विंग, आकाशवाणी) के सहायक अभियंता वहाँ पर आएं. वे मेरे साथ लोक नायक भवन में कनिष्ठ अभियंता थे और उन्होंने प्रोन्नति पा ली थी तब मुझे विभाग में नियुक्ति का लगभग 1 वर्ष हुआ था। मिश्रा जी का लड़का विजय जो पिछले दिनों किसी ज्वर से ग्रसित था, अब काफी स्वस्थ लग रहा था। अनुराग का लड़का केशो जो लगभग तीन वर्ष का है, काफी चपल और प्यारा लग रहा था। सौम्या भी दीवाली की ख़ुशी में काफी उत्साहित थी। वास्तव में उसकी ख़ुशी के लिए हमने 25 तारीख को ही यहाँ शिलोंग में दियें तथा मोमबत्तियों के अलावा थोड़ी मिठाई का प्रबंध किया था और आसपास के तथा कार्यालय के कुछ स्टाफ को घर बुलाया था। उस दिन यहाँ शिलोंग में मेघालय स्टूडेंट्स फेडरेशन ने बंद का आव्हान कर रखा था जिससे पूरी तरह से जनजीवन ठप्प था। केवल शाम को कुछ दुकानें खुली और पास नीचे से कुछ मिठाई और सौम्या के लिए कुछ पटाखे ख़रीदे क्योंकि वह दीवाली के दिन घर पर न रहने के कारण काफी दुखी थी अतः उसी क्षति-पूर्ति के लिए 25 को ही छोटा सा आयोजन कर लिए गया। उषा ने पकोड़े और चाय बनाई। पास की मिसेज बैद्य तथा काकोती ने इसमें मदद की। वास्तव में यहाँ पर पास में रहने वाले सचमुच बहुत अच्छे हैं।

जब उषा और सौम्या यहाँ थी तो पूरा दिन घर में लोगों की चहल-पहल रहती थी। उषा कुछ न कुछ सीखती है और दूसरों को भी सिखाती है। उदाहरण के लिए इस बार वह कई दिनों तक हमारे कार्यालय अधीक्षक श्री चन्द्र कुमार गुप्ता की बेटी से कढ़ाई तथा टेडी बीयर नुमा खिलोने बनाना सीखती रही।  पिछली बार गर्मियों में आई थी तो मि० तथा मिसेज बैद्य से नकली फूल तथा ग्लास पर पेंटिंग बनाना सीखती रही। वह गृह-कार्यों में दक्ष है और इस तरह के कार्यों में काफ़ी रूचि रखती है। अपने स्वभाव के कारण वह आसपास के लोगों में काफी प्रिय भी है। उसके विद्यालय की प्रिंसिपल उसे विशेष स्थान देती है।  

इस बार फिर कॉलोनी के निवासियों ने मुझे के० नि० लो० वि० दुर्गा पूजा कमेटी का सचिव मनोनीत किया था। पूजा की ठीक रूप से संपन्न कराने की जिम्मेवारी विशेष तौर से मेरी थी। अतः पूजा के लिए कई दिनों का समय मुझे लगाना पड़ा। उन दिनों मेरे परिवार के अलावा हमारे मु० अभियन्ता तथा अधीक्षण अभियंता का परिवार भी यहाँ आया हुआ था। कुल मिलाकर यह महीना पूजा, परिवार के साथ, छुट्टियाँ, कार्यालय के कार्य के साथ अच्छा व्यतीत हुआ। सौभाग्य से उषा का स्वास्थ्य ठीक रहा। इस बार उन्होंने अपने खान-पान का ध्यान रखा। उसका स्वास्थ्य मेरे लिए वरदान है। जब वह प्रसन्न होती है तो मैं कहीं ज्यादा प्रसन्न होता हूँ। सौम्या का समय भी खेलने, पढ़ने तथा इधर-उधर रातुल, शैली, नीलम तथा वैद्य, काकोती आंटियों के साथ समय बिताने में लगा। मुझे जब भी समय मिला, उसको पढ़ाया और कभी-2 उनके साथ बाजार वगैरा भी गया। इस बार कोई ज्यादा खरीददारी नहीं की गई लेकिन उषा ने सौम्या के लिए यहीं के सुनार से कानों की बालियाँ बनवाई।  उनको पहन कर वह बहुत सौम्या लग रही थी। 

अब पुनः लिखने की इच्छा लिए आज इस सफे को बंद  करता हूँ। 

अलविदा।  शुभ-रात्रि। 

पवन कुमार,
 10 जुलाई, 2014 समय 16 :11 सायं 
(मेरी शिलोंग डायरी 1 नवम्बर, 2000 समय 00:50 म० रा० से )     

    

Saturday, 5 July 2014

कुछ हिल्लोरें

कुछ हिल्लोरें 


कुछ नए रंग की बात हो, जिंदगी खुशहाल हो

झूमें, गाऐं, नाचें सारे, मन में तान सुरीली हो॥

 

सबका हो मन पुलकित, मस्त बसंत-बहारों में

एक दूजे को चाहे मन से, कोई ना बेहाली हो।

रंग-गुलाल अबीर यूँ फैले, तन-मन सराबोर हों

और अपनी मस्ती में, सबसे हँसी -ठिठोली हो॥

 

सर्वत्र आनंद-स्नेह-रस का, मधुमय साम्राज्य हो

भारत अपना रहे सम्पन्न, नित्य यहाँ दीवाली हो।

मन बड़ा दूजे को समझे, अति-व्यापक सोच हो

निज कर्त्तव्य-बोध, सबने मन में ऐसी ठानी हो॥

 

नागरिक सुभागीदार बनें, सदा समर्पण राष्ट्र हेतु

सब अपने हैं मैं सबका, निर्मल भाव फ़ैलाने हों।

हो सुभीता मन-दृष्टिकोण, सब पक्षों से न्याय करें

जाँचे-परखे निर्णय पूर्व, विवेक संग तब जाना हो॥

 

अच्छा लेखन-अध्ययन, सुघड़ता में मन तल्लीन रहें

बढ़ाकर निज को जग में, सबको राह दिखानी हो।

अपेक्षाओं का आदर करें, और सबसे सहयोग करें

मन-भाव समझ कर ही, कुछ कहने की बारी हो॥

 

मस्ती-भाव रहे मन में, पुलकित औरों को भी करें

न रुकना हो आलम, बस आगे बढ़ने की ठानी हो।

चले-चलो तुम निज धुन में, न हो कोई ही अहंकार

ज्ञान-चक्षु खुलें मन के, परम में जुगत लगानी हो॥

 

पवन कुमार,
 5 जुलाई, 2014 समय 21:36 रात्रि 
(मेरी डायरी दि० 23 मार्च, 2014  समय 11:20 पूर्वाह्न से)

Thursday, 3 July 2014

विरह-स्मृति

विरह-स्मृति 


यह घोर रात्रि-सन्नाटा है, नींद भी न रही आ

बर्फानी सर्दी का आलम, ऐसे में तू है कहाँ॥

 

कितना अकेला हो जाता हूँ, मैं यहाँ तेरे बिन

ऐसे लगता कि देह से आत्मा ही गई निकल।

यह प्राण तो फिर भी, जैसे चलता ही है रहता

लेकिन चक्र में, जीवन का सुख-स्पंदन कहाँ?

 

महफ़िलें तो अनेक सजती, मगर मस्ती कहाँ

रूखा जीवन है, इसमें जीवन-हरियाली कहाँ?

शायद बियाबान में, सूखे ठूँठ सा निस्पंद खड़ा

पवन-हिलौरों का, गुदगुदाहट-अहसास कहाँ॥

 

जब तू पास होती, तो लगता मुस्कान यहीं है

लेकिन अब तो यह अहसास भी संग नहीं है।

जब तू अपनी बात कहती है, मीठे अन्दाज़ से

तो दिल को अंदर से शुकून सा मिल जाता है॥

 

फिर कवि भी न हूँ, निज हृदय कर दूँ प्रस्तुत

पर सच कि बड़ा उदास हो जाता हूँ तेरे बिन।

ये साँसें चलना, घड़ी की टिक-२, सब एक सा

जैसे समय बिताने हेतु ही, सब कर्म हो है रहा॥

 

मैं तुम्हारी सुनहली यादों में, हूँ खोना चाहता

किंतु पूर्ण-लुप्त हो जाने की, वह हिम्मत ना।

फिर तुमसे बतियाने को दिल तो बहुत करता

लेकिन संकोच व स्थानों की दूरी बनती बाधा॥

 

फिर क्या हूँ, तेरा नाम भी ठीक से न ले पाता

अपने-तेरे रिश्ते की दृढ़ता भी न देख हूँ पाता।

बस चला जा रहा हूँ, मानो पैरों को करना कर्म

निज मन में रस-काव्यात्मकता, नहीं अनुभव॥

 

फिर मैं क्या और क्यों, ऐसा लिखे जा हूँ रहा

कुछ बात भी, या सफे काले करे जा हूँ रहा।

या फिर मन की बात, ठीक लिख न पा रहा

 या सोने को बेताब, सिर का बोझ ढ़ोए रहा॥

 

अभिन्नों को भी निज, कहने में हकला ही रहा

और फिर उन्हीं की जुदाई में, रुदन कर रहा।

 विकट कष्ट-अहसास, बहुत अंदर तक है गया

 स्वयं में निज-अन्वेषण का प्रयास कर हूँ रहा॥

 

संसार में सब कुछ है, पूर्ण निश्चित तो न हूँ पर

निज विषय में भी भ्रमित, जग तो अति विपुल।

उस पर तुमसे बिछुड़ने का गम ज्यादा है बहुत

पर धैर्य धरो, मिलन-घड़ी अब ज्यादा नहीं दूर॥

 

तेरा नाम लेकर ही इस सफे को करता हूँ बंद

 आशा करता कलम, सुलेख शुरू करेगी कुछ।



पवन कुमार,
3 जुलाई, 2014 समय 23:18 रात्रि 
( मेरी शिलोंग डायरी दि० 16 नवम्बर, 2000 समय 00:03 म० रा० से )