यह घोर
रात्रि-सन्नाटा है, नींद भी न रही आ
बर्फानी
सर्दी का आलम, ऐसे में तू है कहाँ॥
कितना अकेला हो जाता हूँ,
मैं यहाँ तेरे बिन
ऐसे लगता कि देह से आत्मा ही
गई निकल।
यह प्राण तो फिर भी, जैसे
चलता ही है रहता
लेकिन चक्र में, जीवन का
सुख-स्पंदन कहाँ?
महफ़िलें तो अनेक सजती, मगर
मस्ती कहाँ
रूखा जीवन है, इसमें
जीवन-हरियाली कहाँ?
शायद बियाबान में, सूखे ठूँठ
सा निस्पंद खड़ा
पवन-हिलौरों का, गुदगुदाहट-अहसास
कहाँ॥
जब तू पास होती, तो लगता
मुस्कान यहीं है
लेकिन अब तो यह अहसास भी संग
नहीं है।
जब तू अपनी बात कहती है,
मीठे अन्दाज़ से
तो दिल को अंदर से शुकून सा
मिल जाता है॥
फिर कवि भी न हूँ, निज हृदय
कर दूँ प्रस्तुत
पर सच कि बड़ा उदास हो जाता
हूँ तेरे बिन।
ये साँसें चलना, घड़ी की
टिक-२, सब एक सा
जैसे समय बिताने हेतु ही, सब
कर्म हो है रहा॥
मैं तुम्हारी सुनहली यादों
में, हूँ खोना चाहता
किंतु पूर्ण-लुप्त हो जाने
की, वह हिम्मत ना।
फिर तुमसे बतियाने को दिल तो
बहुत करता
लेकिन संकोच व स्थानों की
दूरी बनती बाधा॥
फिर क्या हूँ, तेरा नाम भी
ठीक से न ले पाता
अपने-तेरे रिश्ते की दृढ़ता
भी न देख हूँ पाता।
बस चला जा रहा हूँ, मानो
पैरों को करना कर्म
निज मन में रस-काव्यात्मकता,
नहीं अनुभव॥
फिर मैं क्या और क्यों, ऐसा
लिखे जा हूँ रहा
कुछ बात भी, या सफे काले करे
जा हूँ रहा।
या फिर मन की बात, ठीक लिख न
पा रहा
या सोने को बेताब, सिर का बोझ ढ़ोए रहा॥
अभिन्नों को भी निज, कहने
में हकला ही रहा
और फिर उन्हीं की जुदाई में,
रुदन कर रहा।
विकट कष्ट-अहसास, बहुत अंदर तक है गया
स्वयं में निज-अन्वेषण का प्रयास कर हूँ रहा॥
संसार में सब कुछ है, पूर्ण
निश्चित तो न हूँ पर
निज विषय में भी भ्रमित, जग
तो अति विपुल।
उस पर तुमसे बिछुड़ने का गम
ज्यादा है बहुत
पर धैर्य धरो, मिलन-घड़ी अब
ज्यादा नहीं दूर॥
तेरा नाम लेकर ही इस सफे को
करता हूँ बंद
आशा करता कलम, सुलेख शुरू करेगी कुछ।
No comments:
Post a Comment