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Saturday, 28 June 2014

सावधान

सावधान 


कुशलता इसी में है, यथा-संभव निपुण कार्य करो

महानता इसी में है, कि अग्रसर हो बढ़ते ही रहो॥

 

तुम क्या जानो, कार्य करने में कष्ट होता है अति

अच्छे परिणामों हेतु, अनेक रातें जागनी हैं पड़ती।

मात्र खुश-फहमी में नहीं, क्या कुछ किया अधिक

एक अनुसन्धान हेतु, प्रयोग ही हुए हैं सहस्र-लक्ष॥

 

तुम बिन शुरू किए ही, ऐसे क्यों मान जाते हो हार

क्या अयत्न ही किसी को, पूर्णता का दर्ज़ा है प्राप्त?

जीवन में कुछ भी लाभार्थ, करनी पड़ेगी ही मेहनत

 व्यर्थ कलह- चिंता- शोक से तो, निकला न है श्रेष्ठ॥

 

ऐसा तो कुछ भी न किया, जो सुश्रेणी में योग्य रखे

क्या किसी तुला में बैठने की, मेरी उपयुक्तता है?

या लगभग बराबर है, जगत में आना या नहीं आना

 श्रम-निष्ठा-निपुण मनन से, स्तर कुछ बढ़ जाएगा॥

 

विद्या-स्वाध्याय, क्रिया-योग से, मुक्ति संभव लाभ

 परंतु मैंने इस दिशा में, दर्शन-यत्न किया है मात्र।

 प्रयोग तो किसी भी भाँति के, अभी तक सोचे न हैं

 फिर इस दीर्घ-जीवन में, ठीक गुजर होगा कैसे?

 

फिर क्या अभिलाषाऐं, बांधी जा सकती हैं स्वयं से

कब यह अर्जुन, पार जा ही सकेगा विडंबनाओं से?

 कब वह गुरु कृष्ण आकर, इसे गीता-पाठ पढ़ाएगा

और हृदय में आ, इसे मधुर प्रेम-बाँसुरी सुनाएगा?

 

माँ सरस्वती आकर ही, कला-विद्या दान देगी कब

कब दक्षिणमूर्ति, निज विवेक से करेगा आकर्षित?

कब मैं उन श्रेष्ठ राहों पर, चलने में बनूँगा ही सक्षम

 जिन पथ पर बहुदा चला करते हैं महा जग-पुरुष॥

 

कब मैं अपनी ही बहु-कमजोरियों पर विजयी हूँगा

कब उस महावीर सम एक जितेन्द्रिय बन सकूँगा?

कब यह वाणी मेरे हृदय का सद-अनुसरण करेगी

 व कब मुझमें सब हेतु एक सहकार-दीप्ति जलेगी?

 

कब मेरे मनसा-वचसा-कर्मणा, एक से होंगे उत्तम

कब एक जिम्मेवार-विश्वनीय नागरिक सकूँगा बन?

कब विश्व-दर्दों में से कुछ कम करने में हूँगा सक्षम

 कब निज क्षुद्र-स्वार्थों से उठ, सब हेतु हूँगा प्रस्तुत?

 

कब मुझे अपने सब कर्त्तव्यों प्रति, पूर्ण-ज्ञान होगा

 कब निष्ठ-वरिष्ठों में कुछ श्रेयष स्थान बना सकूँगा?

 कब इस हृदय से वितृष्णा-ज्वाला, निकलेगी बाहर

 और कब अन्य की बुराई में आनंद लेना दूँगा छोड़?

 

कब जरूरतमंद कुटुंब की सहायता में हूँगा सचेत

और बुज़र्ग माँ-बाप की सेवा में निरत हूँगा अडिग?

कब उनके दिल को एक मृदुल वाणी से दूँगा सुख

और कब उनका वर- आशीर्वाद पात्र सकूँगा बन?

 

बस ऊँचे बोल से ही, कुछ बड़ा लाभ न है संभव

अन्य का हृदय को जीतना भी, एक कार्य दुष्कर।

पर जब उन्हें लगेगा कि सत्य में ही मैं हूँ योग्य इस

वे भी अपने व्यवहार में छोड़ेंगें कुछ भी कसर न॥

 

इस अनंतता-दौर में, एक अवसर मिला बहने का

पहचान बनाने का, समय पर छाप छोड़ जाने का।

हाथ पर हाथ धरे बैठने से तो असंभव ही सब कुछ

वही पुराना सफलता गुह्य, 'परिश्रम-बुद्धि' ही बस॥

 

जन्म न मिलता बारंबार, यदि हो भी तो पता नहीं

कुछ का विषय में दावा, किंतु समझ से परे मेरी।

अवश्य यदि इस जीवन में, मूल-उद्देश्य लूँ समझ

फिर जगत में आना-रहना हो जाएगा ही सफल॥

 

बहुत बार समझने का प्रयास किया, विषय में इस

कदाचित शायद मंज़िल निकट भी, आया हूँ कुछ।

किंतु जैसे पाठ स्मरण में, निरत अभ्यास ही चाहिए

अतः अनवरत-प्रयत्न की, यहाँ भी आवश्यकता है॥

 

जैसे पूर्व-कथन, चीजें इतनी आसान भी न होती

फिर विषय ऐसा, मनीषियों ने ज़िन्दगी लगा दी।

मैंने तो मात्र सोचा ही, नहीं किया बड़ा अभी यत्न

और अभी से ही, निश्चिन्त-शांत हुए लगते बहुत॥

 

आपत्ति नहीं, छद्म निश्चिन्तता-दंभता देखकर भी

किंतु बहु-प्रसन्न हूँगा, जब दिखोगे जिम्मेवार भी।

तब मंज़िल पाने हेतु, जुटाने लगते सब वस्तु तुम

जिनसे निश्चतेव बड़ी मंज़िल, व सफलता सुलभ॥

 

अभी हाल में, इस वर्ष के ज्ञानपीठ-पुरस्कार मिलें

निर्मल वर्मा व पंजाबी लेखक हरबंस सिंह जी को

इनमें से एक वर्मा जी को मैंने थोड़ा-बहुत पढ़ा है।

उनमें हुनर है, मानव-अंतः की गव्हरता मापने का

परिष्कृत हिंदी-भाषा निश्चितेव प्रभावित करती है॥

 

उनके ही एक छोटे भाई हैं, श्री रामकुमार वर्मा जी

कदाचित वे एक सुप्रसिद्ध व चित्रकार हैं यशस्वी।

'नेशनल गैलरी ऑफ़ मॉडर्न आर्ट्स' में मैंने उनके

कई चित्र-कार्य देखें, निशंक अति-प्रशंसनीय हैं॥

 

लेकिन अपनी क्या कहूँ, जो हर क्षेत्र में है अनाड़ी

कुछ अधपका विषय-ज्ञान ही, बस है जमा-पूँजी।

वह भी शायद अच्छी, यदि है दैनंदिन निरत वृद्धि

पर जितना अपेक्षित, उतना कर पा रहा हूँ नहीं।

 

क्या न देखते, कि एक-२ ईंट से महल बन जाता

और हरेक नन्हीं बूँद से तो, महासागर भर जाता।

हर रहस्योद्घाटन से मूर्ख, महाज्ञानी जाता है बन

प्रत्येक कदम से, लोग बड़ी दूरी लेते हैं तय कर॥

 

फिर क्या निष्कर्ष, सब दीर्घ तर्क-संवाद का इस

शायद अपने प्रति ईमानदारी ही प्रथम है कदम।

मुझे तो फिर, अपने मन की ही कुछ थाह है नहीं

 कहाँ से कहाँ तक अति दूर यह ले जा है सकती॥

 

निपट अज्ञानी बना रहकर, जीने में होती है पीड़ा

सच्चा गुरु कहाँ, ऊँगली पकड़ चलना दे सिखा।

कठिनतम डगर में भी, मुस्कान-पाठ सिखलाए

और स्व पैरों पर सीधा खड़ा होने की हिम्मत दे॥

 

'स्वयं-सिद्धा' एक शब्द है, प्रयोग भी किया कर

फिर स्वयं-अनुभव से अच्छा, कोई न है शिक्षक।

फिर जो भी आस-पास, कुछ उचित बुद्धि प्राणी

 उनसे यथासंभव लिया करो, सन्मार्ग-शिक्षा यही॥

 

विषयों को परखना सीखो, फिर विश्वास करना

प्रथम करो स्वयं पर निष्ठा, व निज ढ़ंग से जीना।

पूर्व कि अन्य प्रभाव हों, निज क्षेत्र करो बलशाली

यद्यपि सुगुण-ग्राही बनने में, कोई न है आपत्ति॥

 

खुद से क्या बड़ी आशा है, हर प्रश्न का उत्तर देगा

यदि कह सको कि खुद पर विश्वास है, विश्वास है।

और कठिन परिस्थिति में भी, जी सकते स्वयं संग

निश्चय ही खुद व अन्यों के, हो कुछ विश्वास-पात्र॥

 

तो खीझ छोड़ो, मुस्काना सीखो व उचित-आचार

तब तुम सभी के चितेरे बनोगे, और तुम्हारे सब।

अपने-पराए व विधर्मी के निकल जाऐंगे सब भेद

सकल जग की ज्ञान-राशि, होगी तव कर्म-क्षेत्र॥

 

धन्यवाद।


पवन कुमार,
28 जून, 2014 समय 19:10 साँय 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 11फरवरी, 2001 समय 01:05 बजे म० रा० से) 

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