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Tuesday, 17 June 2014

अन्वेषी -राह

अन्वेषी -राह


क्यूँ हम एक विचक्षण मानव को बना देते हैं देव-चरित्र ही

जब उसने तो इस हेतु कभी इच्छा-अभिव्यक्ति ही न की॥

 

एक असहज-अबूझ, भ्रांत-अप्रकाशित नर है सामान्य अति

यदि उसे निज सत्य-स्थिति का बोध हो जाए, तो उचित ही।

हर एक की स्व-विसंगतियाँ दूर करने की है जिम्मेवारी भी

यदि श्रम कर कुछ सुभीता समझ ले, उसको साधुवाद ही॥

 

क्या मनुष्य में हैं कुछ देव-तत्व, व कैसे उनकी प्राप्ति संभव

क्या उसकी खोजें फिर कोई बड़ा साम्राज्य, जीतने को लब्ध।

किंतु वह तो स्वयं में ही इतना निमग्न है, कि चेतना ही न उसे

 फिर यदि एक उत्तम इंसान भी बन जाए, तो भी उपलब्धि है॥

 

क्यूँ वह खो जाता खुद में, व त्यजना चाहता सब जग-प्रलोभन

और वह सिद्धार्थ, महावीर, भर्तृहरि की भाँति पड़ता है निकल।

उसे तमाम जगत-रस लोलुप करने, रोकने में विफल ही होते

 चूँकि उसे अपनी प्रतिबद्धता का ज्ञान और वह एकाग्र-चक्षु है॥

 

हम बहुत ही सामान्य हैं, और कुछ इससे आगे बढ़ना चाहते

उन्हें इस जग-अनित्यता से करुणा तो है, पर उद्वेलित न होते।

बहु-व्यसन जग को मोहते, व लिप्त करते वासनाओं में अनेक

 फिर काम-क्रोध-मद-मोह-मत्सर-लोभ-ईर्ष्या-घृणा के प्रभाव॥

 

हम फँस जाते निज चक्र-व्यूह में, कोई निकास-द्वार न चिन्हित

स्व-स्थिति में कभी खुश, कभी फाँदकर निर्गम का होता मन।

किंतु सब मन-शक्ति भी हमें, एक अति-सामान्य रखती बनाए

 और समस्त विश्व-रसायन, हमें बालपन से आगे न देते हैं बढ़ने॥

 

संसार के दुःख हमें बुरा फँसाते, तमाम व्याधियों से त्रस्त करते

हम टीसते तो हैं बहुत, पर प्रबुद्धता और निवारण नहीं मिलते।

फिर छटपटाते हैं बाहर निकलने को, पर बहुत अवरोध समक्ष

 प्रपंच-निर्गम को नितांत अक्षीण, फिर भाग्य को दोष देते ढ़ीठ॥

 

कुछ हममें से तथाकथित सफल होते, और भाग्य पर इठलाते

वे भी कुसमय पकड़े जाते, तब सत्य जीवन-रस अनुभव करते।

'नानक दुखिया सब संसार', उक्ति तब उनको भी आती स्मरण

आइंस्टीन-'सापेक्षता सिद्धांत' भी, `लघु कष्ट-क्षण भी महाकंटक सम'

 

पर स्वयं पर हुए अनुभव भूल जाते, जब अन्यों से हो व्यवहार

और कभी भी मन पर न दबाव देते, क्या उचित है या विकार?

बस चलते रहते शील-विहीन ही, व्यर्थ-अभिमान में पूर्व-ग्रसित

तनिक से अल्प बुद्धि-बल-ऐश्वर्य-विद्यावानों को समझते तुच्छ॥

 

कितना निम्न उपयोग उस परम शक्ति का, जो हममें विद्यमान

और किञ्चित भी नर को, अपनी कुस्थिति पर आती है लज्जा न।

सब तरह के पाप-व्याभिचार-बलात्कार व आचरण अशोभनीय

सामान्य क्या फिर तथाकथित सभ्य-शैली में भी होते हैं चित्रित॥

 

फिर क्यूँ न उद्यत हों कुछ निर्मल मन, मुक्ति पाने को दुर्गति से

और फिर करें प्रयास निकलने को, अपनी ही रचित फाँसों से।

फिर सुयत्न, मनन व अभ्यास से ही, कुछ निर्गम उपाय पा जाते

और कुचक्रों से निकल, कुछ निज जैसे मूढ़ों को मार्ग बता देते॥

 

पर अनुसंधान-अन्वेषण भी पूरा न ज्ञात, जानते हैं वे भली-भाँति

उन्होंने कुछ पा भी लिया है तो इसका, अर्थ न वे परम-विजयी।

वे तो अंधकार से निकलकर, कुछ ही रोशनी में आए हुए लगते

पर 'बहुत कठिन है डगर पनघट की', मंज़िल अभी अति दूर है॥

 

मैं नहीं मानता कि कहीं पूर्ण-विराम है, ऐसा मनीषी भी हैं कहते

फिर पूर्ण-चिंतन में भी हम, पूर्णता का रत्ती भर समझ न सकते।

तब कहाँ है परम -ज्ञान का वरणीय पथ, व श्रेष्ठ अकाट्य अनुभव

जिससे कुछ चपल-संघ बना लिए गए, कि ये हीं अनुपम-साध्य॥

 

एक आदर-अभिव्यक्ति अपने से श्रेष्ठों हेतु है, उत्तम पुरुष-भाव

पर क्या हम भी अन्वेषी या भाट सम, मात्र व्यस्त हैं स्तुति-गान?

कितने भाव समझकर हमने, स्व से बाहर आने का किया यत्न

फिर क्या संसार के हर जन का कुछ स्तर उठाने में हुए सक्षम?

 

निश्चितेव भावों के बहुत निकट न जा पाया, प्रयास हो पुनः भी॥



पवन कुमार, 
17 जून, 2014 समय 00:47 म० रा० 
( मेरी डायरी दि० 10 जून, 2014 समय 10 बजे प्रातः )




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