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Monday, 9 June 2014

कुछ - कुछ

कुछ - कुछ 


बड़ी अनूठी रात भई, जिसमें बहुत कुछ छुपा हुआ

सोचूँ कैसे बनेगा भविष्य, राज अभी तक नहीं पता॥

 

सबके मन में कूकेँ कोयल, लेती आनंद-लहरें हिलोर

परंतु मैं तो डरा सा बैठा हूँ, लेकर प्रभु-नाम की डोर।

चंदा की तो दिखें रोशनी, मैं अंधकार हूँ पाता लेकिन

 चाहकर भी न दीप्ति-दर्शन, बीती जाए जवानी शुष्क॥

 

कभी सोचा था बनूँगा वयस्क मैं, शैशव भी न हुआ पार

यूँ ही मूर्ख सम हँसता, और जीवन को न पाया समझ।

सुना परिश्रम से संसिद्धि-लब्ध, मैं लक्ष्य-विहीन परे रहा

इन बीते वर्षों में क्या कुछ कर, जीवन-पूर था सकता?

 

न चंचल न चलायमान, बस निज दशा पर स्वयं-विव्हल

उम्र बीते ही, पर एक दिवस भी न है साक्षात्कार-जीवन।

फिर क्यों बड़ी बातें, जब लघु-विषयों में न हूँ सफल ही

मन- स्वामी कभी न बना, न इसका अहसास हुआ ही॥

 

कब तक रहोगे ऐसे स्थित, कब प्राणांत व प्राप्त नवजन्म

होगी जीवन- सुगबुगाहट, कब मुझे होगा आत्म- दर्शन?

अकेले क्षणों में बुदबुदाता हूँ, किंतु व्यस्त पल तो निष्क्रिय

अति अपूर्णता स्वयं-प्रतीत, श्रेष्ठता-दामन दूर ही दर्शित॥

 

न कहता हीन-भावना, या फिर कहूँ कि आत्मावलोकन

किंतु उमंग-ललक कुछ बनने की, यदा-कदा तो प्रबल।

असह्य-पीड़ा हृदय-घावों की, न्यून-सरसराने से भी टीस

सोचा था लेपन लगा दूँगा, पर खोजने से भी मिली ही न॥

 

जब-तब प्रसन्न भी है, पर एकांत में मनन-लुप्त चाहे बुद्धि

पर अनुभव सब सतही, सद्गुरु-मिलन न हुआ है अभी।

अच्छे लेखकों से दूरी आजकल, सुविचारक भी न मिलते

बचकानियों में समय बीते, तब कैसे सुधार-आशा रखते?

 

संयम प्रथम पग-उन्नति, मन-वाणी-कर्म अंकुश से मंज़िल

सफलता निकट ही है व फिर मन में श्रेष्ठता का होगा संग।

स्वाध्याय से विचार उदय-उत्थान है, व्यर्थ संवाद-कलहों से

वाणी में तेजस्विता-ओज हो, हर शब्द-अर्थ सम्मानीय हो॥

 

सदा गांभीर्य भी न जरूरी, पर उचित वाणी अवश्य संभव

तब किसी प्रति ईर्ष्या-बू न, सबसे निभेगा बन्धुत्व-कर्त्तव्य।

फिर होंगे सात्विक विचार, हरेक से करोगे प्रेम- व्यवहार

सुंदरता दिखे चहुँ ओर ही, व रहे अनेक-सुख का व्यापार॥

 

प्रभु विनती, बख्श सद्बुद्धि, वही मेरे व दूसरों के ही लाभ

करो जो तुम्हें उचित जँचता, लेकिन हो सर्वहित-पूर्णन्याय॥


धन्यवाद। 


पवन कुमार,
9 जून, 2014 समय 23:01 रा० 
(मेरी शिल्लोंग डायरी दि० 26 जनवरी, 2002 से ) 

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