बड़ी अनूठी रात भई, जिसमें
बहुत कुछ छुपा हुआ
सोचूँ कैसे बनेगा भविष्य,
राज अभी तक नहीं पता॥
सबके मन में कूकेँ कोयल,
लेती आनंद-लहरें हिलोर
परंतु मैं तो डरा सा बैठा
हूँ, लेकर प्रभु-नाम की डोर।
चंदा की तो दिखें रोशनी, मैं
अंधकार हूँ पाता लेकिन
चाहकर भी न दीप्ति-दर्शन, बीती जाए जवानी शुष्क॥
कभी सोचा था बनूँगा वयस्क
मैं, शैशव भी न हुआ पार
यूँ ही मूर्ख सम हँसता, और
जीवन को न पाया समझ।
सुना परिश्रम से
संसिद्धि-लब्ध, मैं लक्ष्य-विहीन परे रहा
इन बीते वर्षों में क्या कुछ
कर, जीवन-पूर था सकता?
न चंचल न चलायमान, बस निज
दशा पर स्वयं-विव्हल
उम्र बीते ही, पर एक दिवस भी
न है साक्षात्कार-जीवन।
फिर क्यों बड़ी बातें, जब
लघु-विषयों में न हूँ सफल ही
मन- स्वामी कभी न बना, न
इसका अहसास हुआ ही॥
कब तक रहोगे ऐसे स्थित, कब
प्राणांत व प्राप्त नवजन्म
होगी जीवन- सुगबुगाहट, कब
मुझे होगा आत्म- दर्शन?
अकेले क्षणों में बुदबुदाता
हूँ, किंतु व्यस्त पल तो निष्क्रिय
अति अपूर्णता स्वयं-प्रतीत,
श्रेष्ठता-दामन दूर ही दर्शित॥
न कहता हीन-भावना, या फिर
कहूँ कि आत्मावलोकन
किंतु उमंग-ललक कुछ बनने की,
यदा-कदा तो प्रबल।
असह्य-पीड़ा हृदय-घावों की,
न्यून-सरसराने से भी टीस
सोचा था लेपन लगा दूँगा, पर
खोजने से भी मिली ही न॥
जब-तब प्रसन्न भी है, पर
एकांत में मनन-लुप्त चाहे बुद्धि
पर अनुभव सब सतही,
सद्गुरु-मिलन न हुआ है अभी।
अच्छे लेखकों से दूरी आजकल,
सुविचारक भी न मिलते
बचकानियों में समय बीते, तब
कैसे सुधार-आशा रखते?
संयम प्रथम पग-उन्नति,
मन-वाणी-कर्म अंकुश से मंज़िल
सफलता निकट ही है व फिर मन
में श्रेष्ठता का होगा संग।
स्वाध्याय से विचार
उदय-उत्थान है, व्यर्थ संवाद-कलहों से
वाणी में तेजस्विता-ओज हो,
हर शब्द-अर्थ सम्मानीय हो॥
सदा गांभीर्य भी न जरूरी, पर
उचित वाणी अवश्य संभव
तब किसी प्रति ईर्ष्या-बू न,
सबसे निभेगा बन्धुत्व-कर्त्तव्य।
फिर होंगे सात्विक विचार,
हरेक से करोगे प्रेम- व्यवहार
सुंदरता दिखे चहुँ ओर ही, व
रहे अनेक-सुख का व्यापार॥
प्रभु विनती, बख्श
सद्बुद्धि, वही मेरे व दूसरों के ही लाभ
करो जो तुम्हें उचित जँचता,
लेकिन हो सर्वहित-पूर्णन्याय॥
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